आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या और उसके आस-पास के क्षेत्र को भी आज अवध के नाम से जाना जाता है। वैसे इन प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और उनके प्रथम पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् भरत के समय यह अयोध्या नगरी १२ योजन लम्बी और ९ योजन चौड़ी मानी गई अत: मील के हिसाब से ९६ मील (१५० किमी.) होने से लखनऊ, टिवैâतनगर, त्रिलोकपुर, बाराबंकी, महमूदाबाद आदि नगर उस समय अयोध्या नगरी की पवित्र भूमि के अंदर ही विद्यमान थे। वस्तुत: आज अयोध्या तीर्थ की पवित्रता से सम्पूर्ण अवध का वातावरण सुवासित, धर्मपरायण एवं परम पवित्र है।
उसी अवधप्रान्त के जिला सीतापुर के अन्तर्गत महमूदाबाद नामक एक नगर है, जहाँ विशाल जिनमंदिर के निकट वर्तमान में ६०-७० जैन घर हैं। उसी नगर में एक सुखपालदास जी नाम के श्रेष्ठी निवास करते थे। अग्रवाल जातीय लाला सुखपालदास जी की धर्मपत्नी का नाम मत्तोदेवी था। पूरे नगर में धर्मात्मा के रूप में प्रसिद्ध सुखपालदास जी भगवान की नित्य पूजन के साथ-साथ स्वाध्याय भी करते थे। सात्त्विक प्रवृत्ति वाले इन महामना श्रावक की धर्मपत्नी भी पतिव्रता आदि गुणों से सहित धर्मपरायण एवं अत्यन्त सरल प्रकृति की थीं। इन धर्मनिष्ठ दम्पत्ति के चार संतानें थीं जिनके नाम क्रशम: इस प्रकार हैं- १. शिवप्यारी देवी २. मोहिनी देवी ३. महिपालदास ४. भगवानदास। पिता सुखपालदास जी ने इन सभी संतानों को धर्ममय संस्कारों से विशेष संस्कारित किया था।
ईसवी सन् १९१४ में इन धर्मपरायण दम्पत्ति की बगिया में द्वितीय कन्या रत्न के रूप में जन्मीं ‘मोहिनी’ का नाम पिता ने बड़े ही प्यार से रखा था और माता-पिता कुटुम्बीजनों यहाँ तक कि नगरवासियों का भी इस कन्या पर विशेष स्नेह था। अपने सहज गुणों से हर मन को मंत्रमुग्ध एवं प्रसन्न करने वाली मोहिनी को पिता सुखपालदास जी सदैव अपने साथ लेकर घूमते थे और उसकी ओर अधिक ध्यान देते थे। प्रतिदिन रात्रि में अपने हाथों से बादाम भिगोकर प्रात: छीलकर दूध के साथ उसे देते तथा प्रतिदिन उसे अपने साथ मंदिर भी ले जाते थे। ५-६ वर्ष की उम्र में स्कूल जाने पर थोड़े ही दिनों में मोहिनी देवी ने ३-४ कक्षा तक अध्ययन कर लिया। चूँकि महमूदाबाद का इलाका मुस्लिम इलाका था अत: पिताजी ने अपने महीपाल पुत्र की शिक्षा हेतु एक मौलवी अध्यापक की व्यवस्था कर रखी थी, वे उन्हें उर्दू पढ़ाते थे और तीक्ष्ण बुद्धि की धनी कन्या मोहिनी अपने छोटे भाई को उर्दू पढ़ते देख स्वयं भी उर्दू पढ़ना सीख गई। चूँकि घर में अब छोटा बालक भगवानदास था अत: उसके प्रति विशेष वात्सल्य और खिलाने में मोहिनी ने स्कूल जाना छोड़ दिया। प्राय: देखा जाता है कि होनहार कुशाग्र बुद्धि के छात्र-छात्राएं गुरु के लिए विशेष कृपापात्र होते हैं और गुरु का उन पर विशेष स्नेह रहता है अत: जब कन्या मोहिनी कई दिन स्कूल नहीं गई तो उनकी अध्यापिकाएँ आकर लाला सुखपालदास जी से उसकी कुशाग्र बुद्धि के कारण उसे स्कूल भेजने का आग्रह करतीं, साथ ही कहतीं कि इसके बगैर तो हमारा स्कूल ही सूना हो गया है। पिताजी की प्रेरणा के बाद भी मोहिनी अपने भाई को खिलाने का बहाना कर स्कूल जाने को मना कर देतीं। चूँकि उस समय कन्याओं को पढ़ाने की परम्परा नहीं थी और मुसलमानी इलाका होने के कारण माँ मत्तोदेवी भी कन्या को स्कूल भेजने का आग्रह नहीं करती थीं अत: उनकी लौकिक शिक्षा वहीं तक रहीं पुन: पिता ने मोहिनी के अंदर धार्मिक संस्कार डालने हेतु उसे भक्तामर, तत्त्वार्थसूत्र आदि का अध्ययन कराना प्रारंभ किया और रात्रि में पूरे परिवार को एक साथ बिठाकर मोहिनी से शास्त्र पढ़वाते और बड़े खुश होते थे पुन: सबको शास्त्र का अर्थ भी समझाते थे।
एक बार पिता ने मोहिनी को एक मुद्रित ग्रंथ पद्मनंदिपंचविंशतिका देकर उससे उसका स्वाध्याय करने को कहा। मोहिनी ने पिता की आज्ञा स्वीकार कर उस ग्रंथ का स्वाध्याय किया और उस स्वाध्याय का प्रतिफल यह रहा कि मोहिनी ने उस ग्रंथ में ब्रह्मचर्य के महत्त्व को पढ़कर भगवान की प्रतिमा के सम्मुख अष्टमी, चतुर्दशी के दिन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया और किसी को इस व्रत के बारे में विदित भी न हो सका। चूँकि जिनमंदिर में प्रतिदिन सुखपालदास ही शास्त्र बांचते थे अत: सभी इन्हें पण्डितजी कहकर पुकारते थे। बड़े पुत्र महिपालदास जी कुश्ती के अच्छे खिलाड़ी बन गये थे और उस इलाके में बड़ी-बड़ी कुश्ती कर कई एक प्रतियोगिताएँ जीती थीं। मोहिनी देवी के पिताजी पहले कपड़े का व्यवसाय करते थे पुन: कपड़ा लेकर बिसवां जाने लगे और शुद्धता की दृष्टि से पूड़ी बनवाकर और दाल चावल लेकर जाते थे जिससे कभी-कभी अपने हाथ से खिचड़ी बनाकर खा लेते थे। इनका नियम था देवपूजा करके ही दुकान खोलना और अगर मंदिर न हो तो ‘जाप्य’ करके ही ग्राहक से बात करना। उनके इस नियम के कारण ही उनकी अंत समाधि बहुत ही अच्छी हुई है। एक बार वे बिसवां में व्यापार हेतु गये, प्रात: ही एक ग्राहक आ गया, तब उन्होंने कहा-भाई! मैं जाप्य करके ही वार्तालाप करूँगा। तब वह ग्राहक बाहर बैठ गया पुन: वह शुद्ध वस्त्र पहनकर जाप्य करने बैठे Dाौर जाप्य करते-करते ही उनके प्राण पखेरू उड़ जाने से उन्हें उत्तम गति की प्राप्ति हुई। उधर जब बहुत देर हो गई तो उस ग्राहक ने अंदर जाकर देखा तो उन्हें मृत पाया, तब परिवार के लोगों को बुलाकर उनकी अन्त्येष्टि की गई। वास्तव में बंधुओं! एक छोटा सा नियम भी इस जीव को संसार समुद्र से पार करने में सहकारी कारण बन जाता है इसीलिए धर्मगुरु सदैव हमें कोई न कोई व्रत-नियम लेने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
सेठ सुखपालदास जी ने अपने सामने ही अपनी सभी पुत्र-पुत्रियों का विवाह कर दिया था, जिसमें से लाडली पुत्री मोहिनी का विवाह उन्होंने अयोध्या के निकट बसे धर्मपरायण नगर बाराबंकी जिले में स्थित टिवैâतनगर नामक ग्राम के धर्मात्मा श्रावक लाला धन्यकुमार जी एवं उनकी धर्मपत्नी फूलमती देवी के द्वितीय पुत्र छोटेलाल जी के साथ किया था। चूँकि वह समय ऐसा था, जब लोग पुत्रियों को मांगकर विवाह करने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे और लाला धन्यकुमार जी ने महमूदाबाद के लाला सुखपाल जी की बहुत ही प्रशंसा सुन रखी थी, साथ ही मोहिनी के गुणों से भी वे बहुत प्रभावित थे अत: उन्होंने स्वयं अपने द्वितीय पुत्र के लिए उस मोहिनी कन्या की याचना की थी। सुखपालदास जी ने भी उनके पुत्र में एक वर के सभी गुणों को देखकर तुरंत स्वीकृति प्रदान कर दी और शुभ मुहूर्त में चि. छोटेलाल जी के साथ आयु. मोहिनी देवी का पाणिग्रहण संस्कार हो गया। माता-पिता ने अश्रुपूरित नेत्रों से अपनी प्यारी पुत्री को विदाई दी थी। उस समय सन् १९३२ में मोहिनी देवी की उम्र १८ वर्ष मात्र थी। विदाई के समय यूँ तो पिताजी ने अपनी दुलारी बिटिया को दहेज में यथायोग्य सब कुछ प्रदान किया किन्तु जब उनके मन को पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई तो उन्होंने मोहिनी को ‘‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’’ ग्रंथ को सच्चे दहेज के रूप में देकर कहा-बिटिया मोहिनी! तुम हमेशा इस ग्रंथ का स्वाध्याय करती रहना, इसी से तुम्हारे गृहस्थाश्रम में सुख और शांति की वृद्धि होगी और तुम्हारा यह नरभव पाना सफल हो जायेगा। पुत्री मोहिनी ने भी पिता के द्वारा स्नेहपूर्वक प्रदत्त सच्चे दहेज को सबसे अधिक मूल्यवान समझा था।
बारात महमूदाबाद से टिवैâतनगर आ गई और सबसे पहले वरवधू को जिनमंदिर ले जाया गया, वहाँ सातिशय भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन कर प्रसन्नमना मोहिनी का माता-पिता वियोगजनित दु:ख कम हो गया। घर में मंगल प्रवेश कर मोहिनी ने पिता द्वारा प्रदत्त उस शास्त्र को अनमोल निधि के रूप में संभाल कर रखा और नियमत: प्रतिदिन देवदर्शन के पश्चात् उसका स्वाध्याय किया। यहाँ इस भरे-पूरे परिवार में मोहिनी को घुलते-मिलते देर न लगी। सास और ससुर की सरल व धर्ममयी प्रवृत्ति, जेठ-जिठानी एवं देवर-ननदों के मधुरिम स्नेह से मोहिनी को उस घर का वातावरण बहुत ही सुखद लगता था। घर में देवदर्शन, रात्रिभोजन त्याग, जल छानकर पीना, सायंकाल मंदिर जाकर आरती करना और शास्त्र सभा में बैठकर विनयपूर्वक शास्त्र सुनना आदि श्रावकोचित्त सभी क्रियाएँ होती थीं। घर के निकट जिनमंदिर होने से मंदिर के घंटे, पूजा-पाठ व आरती की आवाज घर बैठे कानों में गूंजा करती थी। सन् १९३४ में आसोज सुदी पूर्णिमा-शरदपूर्णिमा की रात्रि में मोहिनी देवी ने प्रथम पुष्प के रूप में एक कन्या रत्न को जन्म दिया जिसकी शुभ चांदनी आज सारे भारतवर्ष में पैâल रही है। इस कन्या के पूर्व जन्म के संस्कार ही कुछ ऐसे थे कि ‘यथा नाम तथा गुण’’ के अनुरूप बचपन से ही कर्म सिद्धान्त पर अटल विश्वास था। मैना के जन्म से पहले मोहिनी देवी ने मैना सुन्दरी नाटक पढ़ा था और उन्हें सुरसुन्दरी-मैना सुन्दरी का संवाद याद था उसे वे हमेशा गुनगुनाया करती थीं और यही संस्कार गर्भस्थ बालिका पर अच्छी तरह से पड़ गये। सभी कुटुम्बीजनों एवं माता-पिता की अत्यन्त दुलारी बिटिया मैना तीक्ष्ण बुद्धि के कारण तीन-चार वर्ष में ही बहुत कुछ पढ़ गई, वहाँ पाठशाला में धार्मिक पढ़ाई की प्रमुखता के साथ-साथ प्रारंभिक गणित भी पढ़ाई जाती थी, मैना ने उसे भी पढ़ लिया और जीवन के लघुवय में ही पूर्णरूपेण हर क्रियाओं में निष्णात हो गईं। माता मोहिनी प्रतिदिन उठकर सामायिक करतीं, पुन: स्नानादि से निवृत्त होकर मंदिर में जाकर भगवान की पूजा करके ही रसोई बनाती थीं और छोटे बच्चों को दूध पिलाते समय स्वाध्याय और भक्तामर आदि के पाठ किया करती थीं जिससे वह दूध भी अमृततुल्य बन जाता था और बच्चों में धार्मिक संस्कार पड़ते जाते थे। प्रतिदिन सायंकाल वे स्वयं मंदिर जातीं और बच्चों को भी भेजती थीं, प्रतिदिन किसी भी बालक को मंदिर जाए बिना नाश्ता नहीं मिलता था, यही कारण था कि माता मोहिनी की १३ संतानें इसी धर्म के सांचे में ढलती चली गईं। पूर्वकृत पुण्य एवं वर्तमान पर्याय में माता-पिता व स्वाध्याय से प्राप्त धर्म संस्कारों के प्रभाववश मैना ने घर से क्या, पूरे ग्राम से ही मिथ्यात्व को भगा दिया था और माता मोहिनी ने भी अपनी पुत्री मैना की बातों को जैनागम से प्रमाणित समझकर मान्य किया था और सासु जी को भी मैना की तर्कपूर्ण बातों से ही समझाकर प्रसन्न रखती थीं। मैना तर्क एवं युक्तिपूर्वक बातें जब दादी को सुनातीं, तो दादी यद्यपि समझ न पातीं परन्तु ाfफर भी उसे किसी देवी का अवतार मानकर संतोष कर लेती थीं।
इधर षोडशवर्षीय मैना के विवाह की चर्चा जब घर में चली तो उन्होंने येन-केन प्रकारेण गृहबंधन में न फंसकर बाराबंकी में आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज के पास जाकर सप्तम प्रतिमा के व्रत ले लिए, उस समय माता मोहिनी ने बताया कि आज तुम्हारा १८ वर्ष पूर्ण कर १९वें वर्ष में मंगल प्रवेश है और सूर्योदय की उस घड़ी में लिए गए त्रैलोक्य पूज्य व्रत ने मैना के जीवन प्रभात को विकसित कर उनके द्वारा अगणित भव्यों का उद्धार किया। इधर मैना के गृहबंधन से निकलकर त्यागमार्ग को अंगीकार करने पर मैना के वियोग से दु:खी माता-पिता ने अपने पुत्र-पुत्रियों की शीघ्र ही शादियाँ सम्पन्न करनी प्रारंभ कर दी, फिर भी उस त्यागपथ पर निकलने का क्रमश: सभी ने प्रयास किया, जिनमें से मात्र कु. मनोवती, कु. माधुरी और रवीन्द्र कुमार जी ही त्यागमार्ग पर निकल सके और शेष ने गृहस्थधर्म को अपनी नियति समझकर अपनाया और गृहस्थी का कुशल संचालन करते हुए सदैव देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है और कु. मनोवती-आर्यिका अभयमती माताजी एवं मैं कु. माधुरी-आर्यिका चन्दनामती माताजी बनकर जिनधर्म की प्रभावना करते हुए अपनी आगमचर्या में दृढ़ हैं तथा संयम की उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहे हैं, पुत्र रवीन्द्र कुमार जी लघुवय में ही ब्रह्मचर्य व्रत लेकर पूज्य माताजी के सुयोग शिष्य के रूप में उनके द्वारा निर्देशित जिनधर्म प्रभावना के प्रत्येक कार्यों को करके अनेक तीर्थों के अध्यक्ष पद का भार संभालते हुए उनके विकास-जीर्णोद्धार करवाकर महती धर्मप्रभावना कर रहे हैं।
इस प्रकार माता-मोहिनी ने अपनी सभी संतानों को सुसंस्कारित कर गृहस्थोचित सभी क्रियाओं का कुशल संचालन करते हुए अपने पति लाला छोटेलाल जी की सुन्दर समाधि करवाकर गृहस्थ महिलाओं के लिए एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। अपने पुत्र-पुत्रियों को उन्होंने उसी प्रकार पालने में शिक्षा प्रदान की जिस प्रकार रानी मदालसा ने अपने पुत्रों को पालने में शिक्षा दी थी कि-‘शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसार माया परिवर्जितोऽसि’ हे पुत्र! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है और संसार की माया से रहित है। ऐसा सुन-सुनकर उसके सभी पुत्र युवा होकर विरक्त हो घर से चले जाते थे।
उन पुत्र-पुत्रियों की भांति ही माता मोहिनी के पुत्र-पुत्री एक-एक कर गृहबंधन से निकलते गए और कुछ न निकल पाने पर गृहस्थ धर्म में लगकर देव-शास्त्र-गुरु का दृढ़ श्रद्धान कर धर्माराधनापूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। स्वयं माता मोहिनी ने अपने गार्हस्थ जीवन में जिनमंदिर में प्रतिदिन इच्छानुसार भगवान का खूब पंचामृत अभिषेक किया तथा पूजा की है।
मोहिनी माता बनीं आर्यिका रत्नमती-सन् १९७१ में संघ का चातुर्मास अजमेर शहर में हो रहा था। उस समय अपने बड़े पुत्र वैâलाशचंद व पुत्रवधू चंदारानी के साथ संघ के दर्शनार्थ आईं, उस समय उनके साथ मैं भी गई थी। संघ में आर्यिका पद्मावती माताजी ने गत वर्ष की भांति ही भाद्रपद मास में १ माह का सोलहकारण उपवास कर रखा था और पूज्य ज्ञानमती माताजी के अत्यधिक आग्रह पर भी २१ दिनों तक जल नहीं लिया, २२वें दिन उन्होंने अपनी चर्या पालन हेतु अंतिम बार जल लिया, जिसे देने का सौभाग्य माता मोहिनी को प्राप्त हुआ, इस प्रकार माता मोहिनी प्रतिदिन कई एक साधुओं को आहार देकर अपना जीवन सफल कर रही थीं। आसोज वदी प्रतिपदा को सायंकाल में आर्यिका पद्मावती माताजी की प्रकृति कुछ बिगड़ी। संघ के सभी साधुगण आ गये और आर्यिका श्री पद्मावती माताजी ने आचार्यश्री एवं सभी साधुओं के दर्शन कर सबसे क्षमायाचना की और साधुओं के मुख से णमोकार महामंत्र सुनते हुए इस नश्वर देह को छोड़कर स्वर्ग पद प्राप्त कर लिया। ये पद्मावती माताजी जब तक माताजी के पास रहीं, सदैव इनकी छाया की भांति रहीं और माताजी ने पूर्ण वात्सल्यभाव से इनकी समाधि कराई थी। दूसरे दिन ही मासोपवासी आर्यिका शांतिमती जी की सल्लेखना हो गई। माता मोहिनी ने बड़ी तन्मयता से दोनों माताजी की सल्लेखना देखी और उसके बाद पुत्र के साथ केशरिया जी तीर्थ की यात्रा व श्रुतसागर महाराज के दर्शन कर वापस अजमेर आ गईं और वैâलाश को यह कहकर समझाकर वापस भेज दिया कि मुझे आर्यिका अभयमती जी के पास एक माह तक रुकने की इच्छा है, वह अजमेर के पास किशनगढ़ में थीं। माता मोहिनी जी किशनगढ़ जाकर एक माह रहकर वापस अजमेर आ गईं और दीपावली के बाद एक दिन आकर माताश्री ज्ञानमती जी से कहने लगीं-
माताजी! अब मेरी इच्छा घर जाने की नहीं है। वैâलाश, प्रकाश, सुभाष तीनों लड़के योग्य हैं, कुशल व्यापारी हैं। अब मेरा मन पूर्णरूपेण घर से विरक्त हो चुका है, मैं दीक्षा लेकर अपना आत्मकल्याण करना चाहती हूँ। चूूँकि माताजी ने तो इस संदर्भ में उन्हें अनेक बार प्रेरणा दी ही थी अत: इतना सुनते ही बहुत प्रसन्न होकर कहने लगीं कि आपने बहुत अच्छा सोचा है-देखो-
जब लो न रोग जरा गहे, तब लो झटिति निज हित करो।’’
इस पंक्ति के अनुसार अभी आपका शरीर साथ दे रहा है अत: अब आपको किसी की भी परवाह न कर आत्मसाधना में ही लग जाना है। इसके साथ ही पूज्य्ा माताजी ने उन्हें यह भी बता दिया कि मैंने सुगंध दशमी के दिन माधुरी को ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया है, उसकी शादी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह सुनकर आश्चर्यचकित मोहिनी माता कह उठीं कि माताजी! अभी तो माधुरी मात्र १३ वर्ष की है, वह ब्रह्मचर्य का अर्थ क्या समझे! अभी से व्रत न देकर कुछ दिन संघ में रखकर धर्म पढ़ा देतीं तो अच्छा था। खैर! अब मैं किसी के मोक्षमार्ग में बाधक क्यों बनूँ, जिसका जो भाग्य होगा, सो होगा। मुझे तो अब आर्यिका दीक्षा लेनी है।’’
माताजी ने उसी समय रवीन्द्र कुमार को बुलाकर माँ के भाव बता दिये जिसे सुनकर माँ के कमजोर शरीर एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से रवीन्द्र जी एकदम विक्षिप्त हो उठे, किन्तु माता मोहिनी ने उस हेतु अपना दृढ़ निश्चय रखा। माताजी ने रवीन्द्र जी की विक्षिप्तता देख संघस्थ शिष्य मोतीचंद जी को बुलाकर सारी बात बताई और बाजार से श्रीफल लाने को कहा। मोतीचंद जी ने यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हो चुपचाप बाजार से श्रीफल लाकर माता मोहिनी के हाथ में दे दिया और मोहिनी देवी उसी समय माताजी के साथ सेठ साहब भागचन्द जी सोनी की नशिया में आचार्यश्री के समक्ष श्रीफल लेकर बोलीं-महाराज जी! मैं आपके करकमलों से आर्यिका दीक्षा लेना चाहती हूँ और श्रीफल चढ़ा दिया। आचार्यश्री उस समय प्रसन्नमना हो माता ज्ञानमती जी की ओर देखने लगे। उपस्थित सभी साधुवर्ग उनके वैराग्य की सराहना करने लगे। तब आचार्यश्री ने कहा कि तुम्हारा शरीर बहुत कमजोर है और यह जैनी दीक्षा खांडे की धार है। तब मोहिनी माता ने सारपूर्ण उत्तर देते हुए कहा कि महाराज जी! संसार में रहकर जितने कष्ट सहन करने पड़ते हैं, उनके आगे दीक्षा में कोई कष्ट नहीं है। फिर माताजी ने अजमेर के एक अति विश्वस्थ श्रावक जीवनलाल जैन को टिवैâतनगर भेजकर यह समाचार पहुँचवा दिया। इधर घर में समाचार पहुँचते ही सबको ऐसा झटका लगा कि सब विक्षिप्त हो रोने लगे और येन-केन प्रकारेण मन को समझाकर शीघ्र ही उनके पुत्र-पुत्री, भाई आदि सब अजमेर आ गये और सभी मोहिनी जी से चिपटकर रोने लगे। सभी ने इनकी दीक्षा रोकने के बहुत प्रयत्न किये और बहुत उपद्रव भी किया। इन सभी प्रसंगों में मोहिनी जी निर्मोहिनी बन गईं और अपने निर्णय पर अडिग रहीं। अन्ततोगत्वा माता मोहिनी की दीक्षा का कार्यक्रम बहुत ही उल्लासपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ जो कि अजमेर नगर के लिए ऐतिहासिक अवसर था। दीक्षा के दिन मोहिनी जी के सिर के बाल छोटे थे क्योंकि उन्होंने एक माह पूर्व ही अपने केश काटे थे अत: छोटे केशों का लुुंचन करना बड़ा कठिन था। जब पूज्य ज्ञानमती माताजी ने चुटकी से इनके केश निकालना शुरू किया तो सारा सिर लाल-लाल हो गया उस समय माता मोहिनी के पुत्र-पुत्री और कुटुम्बी ही क्या, अनेक देखने वाले लोग भी अश्रु गिराने लगे और मोहिनी के साहस और वैराग्य की प्रशंसा करने लगे। उस समय दीक्षा के अवसर पर अनेक साधुओं ने निर्णय किया कि चूँकि माता मोहिनी साक्षात् रत्नों की खान हैं अत: इनका ‘रत्नमती’ यह सार्थक नाम रखना चाहिए, तब आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज ने इन्हें ‘‘आर्यिका रत्नमती माताजी’’ के नाम से सम्बोधित किया। उस समय अपनी जन्मदात्री माँ के आर्यिका दीक्षा के अवसर पर आर्यिका अभयमती माताजी भी किशनगढ़ से वहाँ आ गई थीं। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को यूँ ही दीक्षा देने-दिलाने में असीम आनंद की अनुभूति होती है फिर जब उनकी जन्मदात्री और वैराग्य पथ पर बढ़ने में सहयोग देने वाली सच्ची माता आर्यिका दीक्षा ले रही हों फिर उनकी खुशी का क्या ठिकाना! अजमेर में दीक्षा का यह भव्य कार्यक्रम राजस्थान मोइनिया इस्लामिया उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, स्टेशन रोड के भव्य प्रांगण में सम्पन्न हुआ था, जहाँ अगणित जैन-जैनेतरों ने भाग लिया था।
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी ने दीक्षा के पश्चात् पूज्य माताजी के संघ में रहते हुए १३ चातुर्मास किए और दीक्षा के पूर्व तो अनेक ग्रंथों के स्वाध्याय किये ही थे, दीक्षा के पश्चात् चारों अनुयोगों के ग्रंथों का अच्छी तरह स्वाध्याय किया था। आर्यिका श्री रत्नमती माताजी समय-समय पर आगत यात्रियों, महिलाओं, बालिकाओं को धर्म का उपदेश देकर देवदर्शन, पूजन, रात्रि भोजनत्याग, स्वाध्याय आदि का उपदेश देती थीं और क्षेत्र पर आगत जैनेतर बंधुओं को धर्मोपदेश देकर मद्य, मांस, मधु त्याग की प्रेरणा देती रहती थीं। आर्यिका रत्नमती माताजी का स्वास्थ्य पित्त प्रकोप की बहुलता से युक्त था अत: इन्हें जम्बूद्वीप स्थल पर खुले स्थान के कारण गर्मी की लू-लपट एवं सर्दी में ठण्ड की बाधा असह्य महसूस देती थी। कमरे को बंद करके कोदों या चावल की घास लेने के बाद भी मात्र एक साड़ी में हाथ-पैर ठण्डे पड़ जाते तथा वर्षा ऋतु में डांस, मच्छर के उपद्रव होते। रत्नमती माताजी उस समय ज्ञानमती माताजी से अन्यत्र विहार करने को कहती थीं किन्तु संस्थान के कार्यकर्ताओं का जम्बूद्वीप रचना की पूर्णता हेतु यहीं रहने का आग्रह विशेष देखकर माता रत्नमती जी उनकी प्रार्थना को ध्यान में रखकर यहाँ के कष्टों को हंसकर सहन करती थीं, यह उनका इस जम्बूद्वीप रचना में बहुत बड़ा सहयोग रहा। इनका आहार अति अल्प था, मूंग व्ाâी दाल के पानी में भीगी रोटी और लौकी का उबला साग उन्हें दिया जाता था तथा थोड़ी सी दूध की दलिया, थोड़ा सा दूध, अनार का रस और कभी-कभी जरा सा पक्का केला, बस यही उनका आहार था। इनके इतने अधिक पथ्य को देखकर कभी-कभी वैद्य भी हैरान होकर कहते थे कि माताजी! श्रावक आहार में जो आपको देता है सो यदि आपका त्याग न हो तो ले लिया करें। मौसम में आने वाले फल तथा खिचड़ी, चावल भी ले लिया करें किन्तु ये किसी की नहीं सुनती थीं। घर में भी यह अपनी संतानों को भी ऐसे ही बहुत कड़ा पथ्य कराती रहती थीं यही कारण है कि इनके पुत्र-पुत्रियों में जिव्हा की लोलुपता नहीं दिखती, आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का प्राय: सब त्याग है मात्र दो अन्न, दो रस और गिने चुने फल और उसमें भी अक्सर उनका भी त्याग कर देती हैं, अधिकतर नीरस भोजन करती हैं, अष्टमी-चतुर्दशी को अन्न का त्याग है।
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी प्रात: ३-४ बजे उठकर महामंत्र का जाप्य करके अपररात्रिक स्वाध्याय में तत्त्वार्थसूत्र का पाठ कर पुन: मंदिर जाकर देवदर्शन करके सहस्रनाम, भक्तामर, त्रिलोकवंदना, निर्वाणकाण्ड आदि स्तोत्रों का पाठ करती थीं। ७ से ८ बजे तक सामूहिक स्वाध्याय में बैठतीं अनन्तर आहार के बाद सामायिक कर विश्राम करती थीं। पुन: २ बजे से ४ बजे तक विद्यापीठ के विद्यार्थीगण और प्राचार्य जी आकर माताजी के सानिध्य में स्वाध्याय करते और वे मनोयोगपूर्वक उसे सुनती थीं, अनन्तर वृद्धावस्था के कारण कुछ क्षण शरीर की सेवा करवाकर दैवसिक प्रतिक्रमण करतीं पुन: सायंकाल भगवान के दर्शनकर सामायिक करती थीं। रात्रि में सर्दी के दिनों में तो पूर्व रात्रिक स्वाध्याय में छहढाला का पाठ सुनती थीं। इन्हें छहढाला से विशेष प्रेम था यदि किसी कारणवश यह छहढ़ाला न सुन सकें तो उन्हें लगता था कि मैंने कुछ सुना ही नहीं है। इस प्रकार यह अपनी दिनचर्या में तत्पर रहकर आगम चर्या का पूर्णत: पालन करती थीं। यदि कदाचित् पित्त प्रकोप आदि से विशेष अस्वस्थ रहती थीं तो संघस्थ आर्यिकाएँ उन क्रियाओं को सुनाती थीं। इन्हें ऋषिमण्डल स्तोत्र और मंत्र से भी विशेष प्रेम था। इनकी अस्वस्थता के कारण प्राय: संघ में चैत्यालय रहता था फिर भी मंदिर जाकर भगवान का दर्शन करके ही इन्हें संतोष होता था। पित्त प्रकोप होने से इनके शरीर के लिए उपवास हितकर नहीं था फिर भी व्रतों का प्रेम और सल्लेखना विधि की भावना से पंचमेरु के व्रत (८० उपवासपूर्वक) किया।इनकी सबसे बड़ी विशेषता थी इनकी निरभिमानता, ये कभी ज्ञानमती माताजी का नाम न लेकर उन्हें ‘माताजी’ कहकर सम्बोधित करती थीं। वास्तव में धन्य थीं उनके जीवन की वह घड़ियाँ, जब माघ कृ. नवमी, १५ जनवरी १९८५ को उन्होंने पूज्य माताजी के चरण सानिध्य में हृदयस्पर्शी धार्मिक संबोधन प्राप्तकर सल्लेखनाविधि से जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में वीरमरण किया। १ बजकर ४५ मिनट पर इस नश्वर शरीर से वह आत्मा निकलकर देवलोक में जाकर विराजमान हो गई।पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के जीवन में १३ का अंक विशेष शुभ रहा। १३ संतानों को जन्म देने वाली, दीक्षा लेकर १३ प्रकार के चारित्र का परिपालन कर १३ वर्ष तक दीक्षित जीवन में रहकर उन्होंने सदैव स्वपरकल्याण का भाव रखा और जब उनकी समाधि हुई तो उपस्थित लोगों ने रात्रि में देवों द्वारा की गई बाजों की ध्वनि सुनी थी। संभवत: वे देवगति की प्राप्ति कर वह देव बनकर तीर्थ वंदना हेतु जंबूद्वीप स्थल पर अवश्य आई होंगी।
वस्तुत: ऐसी तप:पूत, निरभिमानी, वात्सल्यमयी माता रत्नमती जी शीघ्र ही सिद्धगति की प्राप्ति करेंगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है और उनके चरण-कमलों में कोटिश: वंदन के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूँ।