अयोध्या के सभी जिनमंदिरों की सजावट देखते ही बनती है चूँकि आषाढ़ शुक्ला अष्टमी से आष्टाह्निक महापर्व आया है। अतः दशरथ महाराज ने महामहिम पूजा की तैयारी की है। उस मंदिर की शोभा तो अनिर्वचनीय है। पंचरंगी रत्नचूर्ण से मंडल पूरा गया है। दशरथ राजा ने आठ दिन का उपवास ले रखा है। तुरही के विशाल शब्दों की ध्वनि से सारी अयोध्या मुखरित हो रही है। राजा दशरथ अनेक बन्धु-बांधवों के साथ जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का महाअभिषेक करके अष्टद्रव्यमय पूजन की सामग्री से महापूजा प्रारंभ कर रहे हैं। सहज सुगंधित खिले हुए पुष्प और स्वर्ण एवं रजत के पुष्प, सामग्री की शोभा बढ़ा रहे हैं। जैसे इन्द्र सपरिवार, नन्दीश्वर द्वीप में आठ दिन लगातार पूजा-विधि सम्पन्न करता है, वैसे ही महाराजा दशरथ सपरिवार आष्टान्हिक पूजा में तत्पर हैं। आठ दिन के अनन्तर जब रानियाँ घर पहुँच गर्इं तब राजा दशरथ ने सबके लिए महापवित्र, शांतिकारक गंधोदक भिजवाया। तीन रानियों के पास गंधोदक यथासमय पहुँचा। किन्तु छोटी रानी सुप्रभा के पास गंधोदक नहीं पहुँचा। उसे इस बात का इतना दुःख हुआ कि वह मरने के लिए तैयार हो गई और एक नौकर से चुपचाप विष लाकर देने को कहा। मध्याह्नोपरांत राजा दशरथ घर आये उन्होने सुप्रभा को शयन कक्ष में उन्मनस्क देख स्थिति समझनी चाही कि इसी बीच में वह नौकर विष लेकर पहुँच गया। राजा ने विष को स्वयं हाथ में लेकर एक तरफ रखा, रानी से उसका कारण ‘गंधोदक न मिलना’ सुनकर उसे समझाने लगे। इसी बीच में वृद्ध वंâचुकी गंधोदक लेकर वहाँ पहुँच गया तब रानी ने गंधोदक मस्तक पर धारण कर संतोष व्यक्त किया। इसी बीच राजा ने कंचुकी से कहा- ‘‘अरे नीच अधम! बता तुझे यह विलम्ब कहाँ हुआ?’’ भय से काँपते हुए उस कंचुकी ने महाराज को घुटने टेककर प्रणाम किया पुनः हाथ जोड़कर लड़खड़ाते शब्दों में अपने बुढ़ापे की दुर्दशा का वर्णन करना शुरू किया- ‘‘स्वामिन्! इस बुढ़ापे से मैं अब जल्दी-जल्दी चलने में सर्वथा असमर्थ हूँ। इस लाठी के सहारे बड़े कष्ट से पैर उठाता हूँ। कमर के झुक जाने से चलते-चलते कई बार गिर जाता हूँ, आँखें जवाब दे चुकी हैं, कानों से कम सुनता हूँ। चूँकि यह राजकुल मेरी वंश परम्परा से चला आया है अतः छोड़ने में असमर्थ हो रहा हू, मुझे निकटवर्ती मृत्यु से इतना भय नहीं है कि जितना भय भविष्य में होने वाली आपके चरणों की सेवा के अभाव का है। आपकी सम्माननीय आज्ञा ही मेरे जीवित रहने का कारण है। देव! मेरे इस शरीर को जरा से जर्जरित जानकर मुझ पर क्रोध करना आपको उचित नहीं है। अतः हे धीर! प्रसन्नता धारण करो।’ कंचुकी के द्वारा बुढ़ापे के वर्णन को सुनते-सुनते राजा दशरथ को एकदम संसार से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। वे सोचते हैं कि ‘‘यह हमारा वंशपरम्परागत व्रत है कि हमारे धीरवीर वंशज विरक्त हो पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर तपोवन में प्रवेश कर जाते हैं।’’ अनंतर कुछ काल व्यतीत हो जाने पर बड़े भारी संघ से घिरे हुए मनःपर्ययज्ञान के धारी ‘सर्वभूतहित’ नामक आचार्य अयोध्या के महेंद्रोदय उद्यान में पधारे। राजा दशरथ सपरिवार मुनि वंदना को निकल पड़े। गुरु के दर्शन करके उनसे अपने भव-भवांतरों को सुनकर पूर्णतया विरक्त हुए राजा राज दरबार में आये और राम के राज्याभिषेक का विचार मंत्रियों से व्यक्त कर दिया। स्वामी को दीक्षा के सन्मुख देख मंत्रियों में और अन्तःपुर में सर्वत्र शोक का वातावरण छा गया। पिता को विरक्त देख भरत भी प्रतिबोध को प्राप्त हो साथ ही दीक्षा लेने के लिए सोचने लगा। भरत के चेहरे से उसकी विरक्ति का अभिप्राय समझकर केकेयी अत्यर्थ चिंतित हो गई। पुनः वह कुछ सोचकर पति के पास पहुँचकर निवेदन करती है- ‘‘हे नाथ! जब युद्ध के समय मैंने आपकी सहायता की थी उस समय प्रसन्न होकर आपने समस्त राजाओं और पत्नियों के सामने कहा था कि ‘जो तू चाहेगी दूँगा।’ सो हे नाथ! इस समय वह वर मुझे दीजिए।’’ ‘‘हे प्रिये! ‘ तू अपना अभिप्राय बता।’ जो तुझे इष्ट हो सो मांग, अभी देता हूँ।’’ केकेयी पति के वियोग से होने वाले दुःख से दुःखी हो आंसू डालती हुई नीचे मुख करके बोलती है- ‘‘हे नाथ! मेरे पुत्र को राज्य प्रदान कीजिए।’’ तब दशरथ ने कहा- ‘‘इसमें लज्जा की क्या बात है? तुमने अपनी धरोहर मेरे पास रख छोड़ी थी सो जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा। शोक छोड़ो, आज तुमने मुझे ऋण से मुक्त कर दिया है।’’ उसी समय दशरथ, राम को बुलाकर खिन्न चित्त से कहते हैं- ‘‘हे वत्स! कला की पारगामिनी इस चतुर कैकेयी ने पहले भयंकर युद्ध में अच्छी तरह मेरे सारथी का काम किया था। उस समय संतुष्ट होकर मैंने सभी के समक्ष इसे वर मांगने के लिए कहा था, सो यह आज अपने पुत्र के लिए राज्य माँग रही है। उस समय प्रतिज्ञा कर यदि इस समय मैं इसके इच्छानुरूप वर नहीं देता हूँ तो भरत दीक्षित हो जावेगा और यह पुत्र के शोक में प्राण छोड़ देगी तथा असत्य व्यवहार से मेरी अपकीर्ति चारों तरफ फैल जायेगी। साथ ही यह भी मर्यादा नहीं है कि बड़े पुत्र के योग्य होते हुए छोटे पुत्र को राज्य दिया जाये। जब भरत को राज्य दे दिया जायेगा तब क्षत्रिय संबंधी परम तेज को धारण करने वाले तुम लक्ष्मण के साथ कहाँ जाओगे? यह मैं नहीं जानता हूँ। तुम पंडित हो, अतः बताओ इस दुःखपूर्ण, बहुत बड़ी चिंता के मध्य में स्थित अब मैं क्या करूँ?’’ प्रसन्नमना राम पिता के चरणों में दृष्टि लगाये हुए विनयपूर्वक निवेदन करते हैं- ‘‘हे पिताजी! आप अपने सत्यव्रत की रक्षा कीजिए और मेरी चिंता छोड़िये। यदि आपकी अपकीर्ति हो तो मुझे इन्द्र की लक्ष्मी से भी क्या प्रयोजन है? जो पिता को पवित्र करे अथवा शोक से उनकी रक्षा करे, पुत्र का पुत्रपना यही है।’’ जब पिता पुत्र में ऐसी उत्तम चर्चा चल रही थी इसी बीच भरत दीक्षा के लिए तत्पर हो नीचे उतरने लगे। यह देख लोग हाहाकार करने लगे। पिता ने स्नेह से आर्द्र हो उसे रोक लिया और अपनी गोद में बिठा कर उसके मस्तक पर हाथ फैरते हुए बोले- ‘‘हे पुत्र! तू राज्य का पालन कर, मैं तपोवन को जा रहा हूँ।’’ भरत ने कहा-‘‘पूज्य पिता जी! मैं भी दीक्षा ग्रहण करूँगा।’ ‘‘पुत्र! अभी तू नवीन वय से युक्त है, अतः कुछ दिन राज्य सुख का अनुभव कर पुनः दीक्षा लेना। देख! गृहस्थाश्रम में भी धर्म धारण किया जाता है।’’ ‘‘हे तात! यदि कर्मों का क्षय घर में ही हो जाता तो आप दीक्षा क्यों ले रहे हैं? अहो! जो पुत्र को दुःख से तारे और तप की अनुमोदना करे यही तात का तातपना है पुनः आप मुझे इस राज्य में क्यों फसा रहे हैं?’’ ‘‘हे वत्स! तू धन्य है, तू प्रतिबोध को प्राप्त है, सचमुच में तू उत्तम भव्य है। फिर भी हे धीर! तूने कभी भी मेरे स्नेह को भंग नहीं किया है, तू विनयी मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ है। सुन, एक बार युद्ध में मेरे प्राणों के संशय के समय तेरी माँ के उपकार से प्रसन्न हो मैंने उसे वर दिया था सो उसने आज तेरे लिए राज्य की याचना की है। इन्द्र के समान निष्कंटक राज्य कर, जिससे असत्य के कारण मेरी अपकीर्ति न हो। चूँकि अपत्य अर्थात् पुत्र का अपत्यपना यही है कि जो माता-पिता को शोकरूपी महासागर में नहीं गिरने दे।’’ तदनंतर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए श्री रामचन्द्र ने भरत का हाथ पकड़कर मधुर शब्दों में कहना शुरू किया- ‘‘भाई! देखो, अभी तुम्हारी वय दीक्षा के योग्य नहीं है पुनश्च यह तुम्हारी माता यदि तुम्हारे जैसे पुत्र के रहते हुए मरण को प्राप्त हो तो क्या यह तुम्हारे लिए उचित है? अहो! पिता के सत्य वचन की रक्षा के लिए हम शरीर को भी छोड़ सकते हैं फिर तुम बुद्धिमान होकर भी लक्ष्मी को क्यों नहीं ग्रहण कर रहे हो? मैं किसी नदी के किनारे, पर्वत पर, अथवा वन में निवास करूँगा जहाँ कि कोई जान नहीं सकेगा इसलिए तू इच्छानुसार राज्य कर।’’ इतना कहकर रामचन्द्र पिता को नमस्कार कर वहाँ से चले गये। उसी क्षण दशरथ मूच्र्छा को प्राप्त हो गये। उधर रामचन्द्र अपनी माता अपराजिता के पास पहुँचे, उन्हें जैसे-तैसे सान्त्वना देकर सीता के पास पहुँचे। सीता रामचन्द्र के बहुत कुछ समझाने पर भी साथ चलने के लिए ही कटिबद्ध रही तब सीता को साथ ले पुनः पिता के पास आकर उन्हें सान्त्वना देकर अनेकों मंत्रियों, राजाओं से तथा परिवार के अन्य लोगों से आदरपूर्वक पूछकर श्रीरामचन्द्र चल पड़े। मंत्री लोग बहुत से रथ, हाथी, घोड़े आदि लाये थे किन्तु सबकी उपेक्षा कर वे पैदल ही चल पड़े। लक्ष्मण भी एक क्षण के लिए सोचते हैं- ‘‘हाय! यह कैसा अनर्थ है? पिता जी ने यह क्या किया? रामचन्द्र के समान दुर्लभ हृदय तो मुनि के भी जब कभी ही होता होगा। ऐसे महामना रामचन्द्र वन में विचरण करेंगे। क्या मैं आज ही दूसरी सृष्टि रच डालॅूं? क्या बलपूर्वक इन्हें राज्य लक्ष्मी में उत्सुक करूँ? अथवा इस क्रोध से क्या प्रयोजन? उचित या अनुचित यह सब पिताजी और बड़े भाई ही जानते हैं। मुझे तो इस समय इनकी सेवा में चल पड़ना ही उचित है।’’ बस, इतना सोचकर लक्ष्मण पिता-माता व परिवार की आज्ञा लेकर श्रीरामचन्द्र के साथ चल पड़े। उस समय का दृश्य बहुत ही करुण था। सीता के साथ राम-लक्ष्मण आगे बढ़े जा रहे हैं। माता-पिता और समस्त परिवार भरत और शत्रुघ्न पुत्रों के साथ धारा प्रवाह अश्रु बरसा रहे हैं। परन्तु राम-लक्ष्मण दृढ़ निश्चयी थे अतः वे सान्त्वना देते हुए बार-बार चरणों में गिरकर जैसे-तैसे माता-पिता आदि को वापस लौटाते हैं और जैसे-तैसे महल से बाहर निकल पाते हैं। उस समय भी बहुत से राजा लोग, मंत्री-अमात्य लोग और पुरवासी उनके साथ ही चलते चले जाते हैं। शहर में नाना तरह की चर्चा होने लगती है सब अपने मकान छोड़-छोड़कर भाग आते हैं- ‘‘अरे माता! यह क्या हो रहा है? यह सब किसने कर डाला।’’ ‘‘हाय, हाय, यह नगरी अभागिन हो गई, अब हम सब भी इन्हीं के साथ चलेंगें।’’ ‘‘देखो, देखो, यह सीता वैâसी जा रही है? अरे पतिव्रता स्त्रियों का यह उदाहरण है।’’ ‘‘हाय, हाय , इस नगर के देवता कहाँ चले गये? यह बड़ा अनुचित हो रहा है।’’ ‘‘अरे भाई! भरत तो दीक्षा लेना चाहता था किन्तु राजा दशरथ ने यह क्या कर दिया?’’ ‘‘ओहो! राम-लक्ष्मण को भी यह कौन-सी बुद्धि उत्पन्न हुई?’’ इत्यादि प्रकार से बोलती हुई और अश्रुओं से पृथ्वीतल को सींचती हुई समस्त प्रजा राम-लक्ष्मण के पीछे चल पड़ती है। कोई उनके चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं, कोई पूजा करते हैं, कोई भक्तिवश उनसे वार्तालाप करना चाहते हैं। प्रजा की नाना चेष्टाओं को देखते हुए रामचन्द्र अत्यर्थरूप से उन्हें सम्बोधते हैं और वापस जाने को कहते हैं किन्तु लोग उनकी कुछ भी नहीं सुनकर पागलवत् पीछे-पीछे चलते रहते हैं। वे दोनों राजपुत्र सीता सहित अरहनाथ के मंदिर में प्रवेश करते हैं। संध्या का समय है। दो दरवाजों के बाद तृतीय दरवाजे पर सबको रोक दिया जाता है। उस समय वहाँ मंदिर में अपराजिता, सुमित्रा आदि माताएं आ जाती हैं। नाना प्रकार से विलाप करती हुई पुत्रों से चलने का आग्रह करती हैं पुनः लाचार हो वापस दशरथ के पास पहुँचती हैं और कहती हैं- ‘‘हे वल्लभ! शोकरूपी समुद्र में डूबते हुए इस रघुकुलरूपी जहाज को रोको, लक्ष्मण सहित राम को वापस बुलाओ।’’ ‘‘देवियों! यह जगत् मेरे अधीन नहीं है। मेरी इच्छानुसार यदि कार्य होवे तो मैं तो यही चाहता हॅूं कि समस्त प्राणी सदा ही सुखी रहें, किसी को किंचित् मात्र भी दुःख न हो किन्तु यह जगत तो कर्मों के अधीन है, बाँधव आदि इष्ट पदार्थों से कभी भी किसी को तृप्ति न हुई है और न होगी।….आप लोग पुत्रवाली हो इसलिए अपने पुत्रों को लौटा लो। मैं तो राज्य का अधिकार छोड़ चुका हूँ और संसार के भय से भीत हूूँ अतः मुनि व्रत धारण करूँगा।’’ अद्र्धरात्रि के समय हाथ में दीपक को लेकर लक्ष्मण और सीता सहित रामचन्द्र मंदिर के बाहर निकलकर चल पड़े। जब प्रातः सभी सामन्त व पुरवासी लोगों ने देखा कि रामचन्द्र धोखा देकर चले गये हैं तो वे पुनः दौड़-दौड़कर उनके निकट पहुँच जाते हैं और भावपूर्वक पुनः-पुनः प्रणाम करके उनके साथ-साथ चलने की इच्छा व्यक्त करते हैं। राम-लक्ष्मण धीरे-धीरे परियात्रा नामक वनी में पहुँचते हैं। वहाँ शर्वरी नाम की नदी थी उसी के तट पर बैठकर रामचन्द्र कुछ लोगों को तो वापस लौटा देते हैं और कुछ लोग बहुत भारी प्रयत्न से भी नहीं लौटते हैं। तब रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘बन्धुओं! हम लोगों के साथ तुम्हारा इतना ही समागम था। अब हमारे और तुम्हारे बीच यह नदी सीमा बन गई है। इसलिए अब तुम सभी लोग लौट जाओ। पिताजी ने तुम सबके लिए भरत को राजा बनाया है सो तुम सब निर्भय होकर उसी की शरण में रहो।’’ इतना कहकर उन सबकी करुण प्रार्थना की सर्वथा उपेक्षा करने वाले रामचन्द्र सीता को लेकर नदी पार कर जाते हैं। सामंत, राजागण और प्रजागण रोते हुए इधर-उधर घूमने लगते हैं पुनः उस वन में एक मंदिर में पहुँचते हैं। वहाँ पर महामुनि के दर्शन करके विरक्त हो दिगम्बर मुनि बन जाते हैं कुछ लोग अणुव्रती श्रावक बन जाते हैं और कुछ लोग सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर रोते-विलखते वापस आ जाते हैं।
राजा दशरथ भरत का राज्याभिषक करके महेंद्रोदय उद्यान में पहुँचते हैं और बहत्तर राजाओं के साथ सर्वभूतहित गुरु के पास दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। उत्तम संहनन से युक्त होने से गुरु की आज्ञा लेकर एकाकी विहार करने लगते हैं चूँकि वे जिनकल्पी हैं। यद्यपि मुनिराज दशरथ सदा ही शुभ ध्यान की इच्छा रखते हैं फिर भी कदाचित्- क्वचित् उनका मन पुत्रशोक के कारण कलुषित हो जाता है तब वे योगारूढ़ हो संसार की स्थिति का विचार करके मन को शांत कर लेते हैं। इधर पति और पुत्र के वियोग से दुःखी हुई अपराजिता और सुमित्रा के अश्रुओं की अविरल धारा को देखकर वैकेयी अतीव दुःखी होती है, पश्चात्ताप करती है और भरत को समझाकर सभी सामंतों को साथ लेकर अपराजिता आदि के साथ रामचन्द्र के पास पहुँचकर पुनः-पुनः क्षमा याचना करते हुए उन्हे वापस चलने का आग्रह करती है- ‘‘हे पुत्रों! मेरे द्वारा जो भी गलती हुई है क्षमा करो और चलो! ये तुम्हारी मातायें शोक में पागल हो रही हैं, तुम लोग इतने निष्ठुर क्यों हो रहे हो?’’ भरत निवेदन करते हैं- ‘‘हे नाथ! आपने राज्य देकर मेरी यह क्या विडम्बना की है? जो हुआ, सो हुआ अब भी स्थिति को संभालो।’’ इत्यादि प्रकार से अनुनय-विनय करने पर भी श्री रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘भाई! क्षत्रिय पुत्र एक बार जो निश्चय कर लेते हैं उसे अन्यथा नहीं करते हैं। अतः तुम सब शोक छोड़ो और सुखपूर्वक प्रजा का पालन करो। यदि तुम समझते हो कि यह अनुचित है सो अनुचित नहीं है चूँकि मैं स्वयं तुम्हें राज्याधिकार दे रहा हूँ।’’ ऐसा कहते हुए पुनरपि तमाम राजाओं के समक्ष स्वयं श्री रामचन्द्र उसी वन में भरत का राज्याभिषेक करके अनेकों मधुर वचनों से समझा-बुझाकर सभी को वापस भेज देते हैं। भरत वापस अयोध्या आकर जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्र भगवान की महान पूजा करते हैं पुनः ‘द्युति’ नाम के आचार्य के निकट पहुँचकर उनकी वंदना करके यह प्रतिज्ञा करते हैं कि ‘‘मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण कर लूँगा। अनन्तर महामुनि भरत को समझाते हैं- ‘‘हे भरत! जब तक तुम घर में हो तब तक गृहस्थ के धर्म का पालन करो क्योंकि यह गृहस्थ धर्म मुनि धर्म का छोटा भाई है।’’ पुनः उस धर्म का विस्तार से वर्णन करते हैं। भरत महाराज गृहस्थ धर्म को विशेष रीति से पालने हेतु डेढ़ सौ स्त्रियों के बीच में रहकर भी जल से भिन्न कमल के सदृश भोगों से अनासक्त रहते हुए मुनिव्रत की भावना भाते रहते हैं।