-गीताछंद-
इस प्रथम जम्बूद्वीप में, है भरतक्षेत्र सुहावना।
इस मध्य आरजखंड में, जब काल चौथा शोभना।।
साकेतपुर में इन्द्र वंदित, तीर्थकर जन्में जभी।
उन अजितनाथ जिनेश को, मैं भक्ति से वंदूं अभी।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, जय समवसरण लक्ष्मी भर्ता।
जय जय अनंत दर्शन सुज्ञान, सुख वीर्य चतुष्टय के धर्ता।।
इन्द्रिय विषयों को जीत ‘‘अजित’’ प्रभु ख्यात हुए कर्मारिजयी।
इक्ष्वाकुवंश के भास्कर हो, फिर भी त्रिभुवन के सूर्य तुम्हीं।।२।।
अठरह सौ हाथ देह स्वर्णिम, बाहत्तर लक्ष पूर्व आयू।
घर में भी देवों के लाये, भोजन वसनादि भोग्य वस्तू।।
तुमने न यहाँ के वस्त्र धरे, नहिं भोजन कभी किया घर में।
नित सुर बालक खेलें तुम संग, अरु इंद्र सदा ही भक्ती में।।३।।
गृह त्याग तपश्चर्या करते, शुद्धात्म ध्यान में लीन हुए।
तब ध्यान अग्नि के द्वारा ही, चउ कर्मवनी को दग्ध किये।।
प्रभु समवसरण में बारह गण, तिष्ठे दिव्य ध्वनि सुनते थे।
सम्यग्दर्शन निधि को पाकर, परमानंदामृत चखते थे।।४।।
श्रीसिंहसेन गणधर प्रधान, सब नब्बे गणधर वहाँ रहें।
मुनिराज तपस्वी एक लाख, जो सात भेद में कहे गये।।
त्रय सहस सात सौ पचास मुनि, चौदह पूर्वों के धारी थे।
इक्कीस सहस छह सौ शिक्षक, मुनि शिक्षा के अधिकारी थे।।५।।
नौ सहस चार सौ अवधिज्ञानि, विंशति हजार केवलज्ञानी।
मुनि बीस हजार चार सौ विक्रिय-ऋद्धीधर थे निजज्ञानी।।
बारह हजार अरु चार शतक, पच्चास मन:पर्ययज्ञानी।
मुनि बारह सहस चार सौ मान्य, अनुत्तरवादी शुभ ध्यानी।।६।।
आर्यिका प्रकुब्जा गणिनी सह, त्रय लाख विंशति सहस मात।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएँ, पण लाख चतु:संघ सहित नाथ।।
सब देव देवियाँ असंख्यात, नरगण पशु भी वहाँ बैठे थे।
सब जात विरोधी वैर छोड़, प्रभु से धर्मामृत पीते थे।।७।।
गजचिन्ह से तुमको जग जाने, सब रोग शोक दु:ख दूर करो।
हे अजितनाथ! बाधा विरहित, मुझको शिव सौख्य प्रदान करो।।
हे नाथ! तुम्हें शत शत वंदन, हे अजित! अजय पद को दीजे।
मुझ ‘ज्ञानमती’ केवल करके, भगवन्! जिन गुण संपति दीजे।।८।।
-दोहा-
मैं वंदूं श्रद्धा सहित, अजितनाथ चरणाब्ज।
चतुर्गति दु:ख दूर हो, मिले स्वात्म साम्राज्य।।९।।