निज आत्म सुखामृत सारभूत!, भय शोक मान से रहित सदा।
हे वीतराग परमात्मप्रभो!, तुमको नमोऽस्तु हो मुदा सदा।।
सकलज्ञ सूर्य! सुखरत्नाकर, हे सर्वलोकमणि तीर्थंकर।
हे जगत्पिता भाक्तिक जन के, गुरु भव से त्राण करो जिनवर।।१।।
त्रिभुवन चूड़ामणि सुखदाता, चिन्तामणि कल्पतरु तुम हो।
मेरे मन में आनंद भरो, हे अभिनन्दन! भव कंद हरो।।
वह पुरी विनीता पूज्य हुई, इक्ष्वाकुवंश के चन्द्र हुए।
जननी सिद्धार्था मान्य हुई, औ पिता ‘स्वयंवर’ धन्य हुए।।२।।
वैशाख सुदी षष्ठी के दिन, प्रभु का गर्भोत्सव इन्द्र किया।
वर माघ सुदी द्वादश तिथि को, मंदरगिरि पर अभिषेक हुआ।।
आयु है लक्षपचासपूर्व, चौदह सौ कर तनुतुंग कहा।
कनकच्छवि, मर्कटलांछनयुत, मनमर्कट को झट वश्य किया।।३।।
फिर माघ सुदी बारस आयी, धन त्याग तपोधन कहलाये।
चौदस थी पौष सुदी जब ही, वैâवल्यरमापति सुर गाये।।
वैशाख सुदी षष्ठी के दिन, शिवकांता के भर्तार हुए।
सहजात्म समुद्भव आल्हादक, परमामृत सुख आनंद लिए।।४।।
सुखवर्द्धन हे अभिनन्दन! तव, वचनामृत भुवि आनंद करो।
भव सागर में डूबे जन को, तुम पोत सदृश अवलंबन हो।।
मम अन्त:करण पवित्र करो, सब जन मन को भी शुद्ध करो।
मम ‘‘ज्ञानमती’’ लक्ष्मी मुझको, देकर झट हे जिन! तृप्त करो।।५।।