स्थापना—गीता छंद
अरिहंत प्रभु ने घातिया को घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह दोष का सब क्षय किया।।
शत इंद्र नित पूजें उन्हें गणधर मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभो! तुम अर्चना के हेतु अभिनन्दन करें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
—बसन्ततिलका छंद—
श्रीमज्जिनेंद्र पद में जलधार देऊं।
आतंक पंक जग का सब दूर होवे।।
इच्छानुसार फलदायक कल्पतरू ये।
पूजा जिनेन्द्रप्रभु की त्रय ताप नाशे।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परमेष्ठिभ्य: स्वाहा। (जलं निर्वपामीति स्वाहा।)
काश्मीरि केशर सुचंदन को घिसाउँ।
चर्चूं जिनेन्द्र पदपंकज में रुचि से।।
संसार के सकल ताप विनाश करती।
पूजा जिनेन्द्र प्रभु की सब सौख्य देती।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परमात्मकेभ्य: चंदनं … ।
जो कुंदपुष्प कलियों सम दीखते हैं।
धोये सु तंदुल लिये भर थाल में हैं।।
अर्हंत सन्मुख रखूँ बहु पुंज नीके।
पाथेय मोक्षपथ में जन के लिये हो।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनादिनिधनेभ्य: अक्षतं … ।
मल्ली गुलाब वर पुष्प सुगंधि करते।
अर्हंत के चरण में रुचि से चढ़ाउँâ।।
पापान्धकूप मधि डूब रहे जनों को।
उद्धार हेतु जिनपूजन ही जगत् में।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: सर्वनृसुरासुरपूजितेभ्य: पुष्पं … ।
शालीय ओदन सुगंधित भोज्यवस्तू।
पीयूष तुल्य चरु लेकर थाल भरके।।
अर्हंत सन्मुख चढ़ा क्षुध व्याधि नाशूँ।
तृप्ती अनंत जिनपूजन से मिलेगी।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतज्ञानेभ्य: नैवेद्यं … ।
जो चित्त का तमसमूह विनाश करके।
त्रैलोक्यगेह वर दीपक दीप ज्योति।।
ले दीप आरति करूँ वरज्ञानज्योति।
पाउँâ अनंत निजज्ञान विकास करके।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतदर्शनेभ्य: दीपं … ।
जो धूप सुन्दर सुगंध बिखेरती है।
अग्नी विषे जलत धूम्र उड़ावती है।।
खेउँ दशांगवर धूप जिनेन्द्र आगे।
संपूर्ण पाप जलते वर सौख्य होगा।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतवीर्येभ्य: धूपं … ।
ये कल्पवृक्ष फल सम अति मिष्ट ताजे।
अमृत समान रस से परिपूर्ण दीखें।।
पूजा करूँ फल चढ़ाकर आपकी मैं।
स्वात्मैक सिद्धि फल प्राप्त करूँ इसी से।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतसौख्येभ्य: फलं … ।
नीरादि आठ वर द्रव्य संजोय करके।
घंटा ध्वजा चंवर छत्र सुदर्पणादी।।