—दोहा—
ऋषभदेव से वीर तक, तीर्थंकर चौबीस।
भक्तिभाव से नित्य मैं, नमूँ नमाकर शीश।।१।।
तीर्थ अयोध्या को नमूँ, जन्मभूमि से ख्यात।
हुये अनंतानंत भी, यहीं तीर्थकर नाथ।।२।।
वीर निर्वृति पच्चीस सौ, उन्निस का शुभ योग।
तीर्थ अयोध्या में किया, मैंने वर्षायोग।।३।।
शरद पूर्णिमा दिन वृहत्, ऋषभदेव सुविधान।
दो सौ चार सुअर्घ्य का, रचा सर्व सुखखान।।४।।
पुन: किया संक्षिप्त यह, ऋषभदेव सुविधान।
अट्ठत्तर ही अर्घ्य हैं, फिर भी महिमावान्।।५।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाधीश हुये, वीरसागराचार्य।।६।।
उनकी शिष्या मैं प्रथित, रचे ग्रंथ बहुतेक।
गणिनी ज्ञानमती लिखित, पूजा ग्रन्थ अनेक।।७।।
जब तक जिनशासन यहाँ, तब तक ‘ऋषभ विधान’।
ज्ञानमती गणिनी रचित, बने भक्त वरदान।।८।।