—गीता छंद—
वर धातकी पश्चिम विदेहे, नदी सीतोदा तटे।
नगरी सुसीमा पिता नृपकीर्ती प्रजापालक कहें।।
माँ वीरसेना गर्भ में, आये प्रभू त्रिभुवनपती।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, वंदत मिले अनुपम गती।।१।।
मृगपती चिन्ह समेत तीर्थंकर, प्रभू शुभ योग में।
जन्में उसी क्षण सर्व बाजे, बज उठे सुरलोक में।।
तिहुँ लोक में भी हर्ष छाया, तीर्थकर महिमा महा।
सुरशैल पर जन्माभिषव को, देखते ऋषिगण यहाँ।।२।।
किंचित् निमित को प्राप्त कर, वैराग्य उपजा नाथ को।
देवर्षिगण आये वहाँ, संस्तव किया अति मुदित हो।।
पालकी मणिमय में बिठा, उद्यान सुंदर ले गये।
स्वयमेव दीक्षा ली प्रभो, त्रैलोक्य में वंदित हुए।।३।।
तीर्थेश ऋषभानन प्रभू, कैवल्य लक्ष्मीपति हुये।
धनदेव कृत द्वादश सभा के, नाथ कमलापति हुये।।
अनुपम समवसृति मध्य में, तीर्थेश प्रभु राजें वहाँ।
द्वादश गणों के भव्य जिनध्वनि, सुनें अति प्रमुदित वहाँ।।४।।
भगवान जब शिव जायेंगे, तब जायेंगे फिर भी यहाँ।
उन भक्तगण प्रभु पूजकर, निज संपदा पाते अहा।।
प्रभु भक्ति भवदधितारणी, भवदु:ख संकटहारिणी।
संपूर्ण सौख्यप्रदायिनी, मैं नमूँ आनंदकारिणी।।५।।