-शेर छंद-
सिद्धों को नमूँ हाथ जोड़ शीश नमा के।
ये सिद्धि सौख्य दे रहे हैं पाप नशाके।।
अर्हंतदेव को नमूँ ये मुक्ति के नेता।
आचार्य उपाध्याय साधु धर्म प्रणेता।।१।।
ये साधु कर्म नाशने में बद्ध कक्ष हैं।
अर्हंतदेव चार घातिकर्म मुक्त हैं।।
सिद्धों ने सर्व कर्म को निर्मूल कर दिया।
कृतकृत्य हुये लोक अग्रभाग पा लिया।।२।।
ज्ञानावरण के पाँच भेद शास्त्र में गाये।
नव भेद दर्शनावरण के साधु बतायें।।
दो वेदनीय मोहनीय भेद अठाइस।
आयू के चार नामकर्म त्र्यानवे कथित।।३।।
दो गोत्र अंतराय पाँच आर्ष में गाये।
सब एक सौ अड़तालिस हैं भेद बताये।।
इन सबको नाश करके ही सिद्ध कहाते।
हम सिद्ध वंदना से भव दुख को मिटाते।।४।।
मैं कर्मदहन स्तव रचना करूँ अभी।
वसुकर्म नाश होवें यह भावना अभी।।
जब तक न मोक्ष पाऊँ सिद्धों की है शरण।
प्रतिक्षण समय-समय भी हो सिद्ध स्मरण।।५।।
-शंभु छंद-
हे सिद्ध प्रभो! तुम आठ कर्म, विरहित गुण आठ समन्वित हो।
अष्टमि पृथिवी पर तिष्ठ रहे, ज्ञानाम्बुधि सिद्धरमापति हो।।
समतारस आस्वादी मुनिगण, नित सिद्ध गुणों को ध्याते हैं।
हम मन वच तन से नमन करें, जिससे सब कर्म नशाते हैं।।६।।
-शंभु छंद-
‘मतिज्ञान’ भेद हैं तीन शतक, छत्तीस व संख्यातीते भी।
सबका आवरण विनाश किया, पाया निज का पद तुमने ही।।
निज के मतिज्ञान विकास हेतु, सिद्धों का वंदन करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू भक्ती करते हैं।।१।।
पच्चीस भेद ‘श्रुत’ ग्यारह अंग, अरु चौदह पूर्व कहाये हैं।
इन सबके भेद असंख्याते भी, श्रुत में मुनि ने गाये हैं।।
इनसे विरहित केवलज्ञानी, सिद्धों का वंदन करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू भक्ती करते हैं।।२।।
जगविश्रुत ‘अवधिज्ञान’ छह विध, या असंख्यात भेदों युत हैं।
सबका आवरण विनाश किया, इसलिए ज्ञान तुम अनवधि है।।
क्षयोपशम ज्ञान शून्य क्षायिक, ज्ञानी का वंदन करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू भक्ती करते हैं।।३।।
‘मनपर्यय ज्ञान’ द्विविध उसमें, भी भेद असंख्याते मानें।
उन सब आवरण रहित सिद्धों, का पूर्ण ज्ञान त्रिभुवन जाने।।
मनपर्ययज्ञान प्राप्त हेतू, सिद्धों का वंदन करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू भक्ती करते हैं।।४।।
छह द्रव्य अखिल पर्यायों को, यह ‘केवलज्ञान’ जान लेता।
इसका आवरण विनाश किया, त्रिभुवन को एक साथ देखा।।
हम केवलज्ञान हेतु केवल, सिद्धों का वंदन करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू भक्ती करते हैं।।५।।
जो केवलज्ञान प्राप्त करके, त्रिभुवन को युगपत् जान रहे।
उत्पाद नाश अरु ध्रौव्य सहित, सब सिद्ध परम आनंद लहें।।
भवकारण सब विध्वंस किया, हम उनका वंदन करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू भक्ती करते हैं।।६।।
-नरेन्द्र छंद-
‘चक्षूदर्शन’ वर्ण विषय की, सत्ता को अवलोके।
चक्षु इन्द्रियावरण क्षयोपशम से होता नीके।।
भेद असंख्यातों युत इनसे, रहित सिद्ध को ध्याउँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१।।
संस्पर्शन रसना व घ्राण, अरु श्रोत्रेन्द्रिय से होता।
यह ‘अचक्षुदर्शन’ संसारी, सब जीवों के होता।।
इसका सब आवरण विनाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।२।।
अवधिज्ञान के पहले ‘अवधीदर्शन’ सद्दृष्टी को।
होता उसके आवरणों को नाश किया नत उनको।।
क्षयोपशम दर्शन से विरहित, सब सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।३।।
भूत भविष्यत् वर्तमान की, द्रव्य व पर्यायों को।
युगपत् देखे ‘केवलदर्शन’, नमूँ सदा मैं इसको।।
केवलदर्शन रज को नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।४।।
चलते बैठे अथवा सोते, जन ले लेते ‘निद्रा’।
इसके वश में सब संसारी, महारोग यह निद्रा।।
जिनने नाशा स्वात्मध्यान से, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।५।।
ऐसा सोवे कोई जगावे, नेत्र खोल नहिं पावे।
‘निद्रानिद्रा’ कर्म उदय से, ऐसी नींद सतावे।।
इसको नाशा आत्मध्यान से, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।६।।
किंचित् आंख खुली भी सोवे, कुछ कुछ जगता रहता।
‘प्रचला’ हल्की निद्रा फिर भी, ज्ञानशून्य ही रहता।।
निज आतम अनुभव से नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।७।।
ऐसी निद्रा लार बहे अरु, अंग चलाचल होते।
‘प्रचलाप्रचला’ नींद सतावे, गाढ़ नींद में सोते।।
स्वात्मसुधारस पीकर नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।८।।
सोते में बोले उठकर कुछ, कार्य करे फिर सोवे।
फिर भी भान रहे ना कुछ भी, ऐसी निद्रा होवे।।
नाश किया ‘स्त्यानगृद्धि’ यह, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।९।।
केवलदर्शन सकल विमल है, युगपत् तिहुंजग देखे।
इस आवरण रहित सिद्धों को, जजत निजातम देखें।।
निज शुद्धातम अनुभव हेतू, सब सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१०।।
-शेरछंद-
भोजन वसन स्त्री सुगंध, द्रव्य सुख करें।
‘साता’ उदय से जीव इन्हें, प्राप्त ही करें।।
इस कर्म को विनाश पूर्ण, सौख्य जो धरें।
सिद्धों को नमें हम निजात्म, सौख्य को भरें।।१।।
अरि शस्त्र विषादिक अनिष्ट, वस्तुएं सभी।
होती ‘असाता’ के उदय से, दु:खदायि भी।।
इस कर्म को विनाश पूर्ण, सौख्य जो धरें।
सिद्धों को नमें हम निजात्म, सौख्य को भरें।।२।।
संसार में साता व असाता, से जीव ये।
सुख दु:ख भोगते हैं, वेदनीय कर्म से।।
इस कर्म को विनाश पूर्ण, सौख्य जो धरें।
सिद्धों को नमें हम निजात्म, सौख्य को भरें।।३।।
-स्रग्विणी छंद-
कर्म ‘मिथ्यात्व’ से आत्म श्रद्धा न हो।
नाश के आप ही सिद्ध आत्मा हुए।।
नाथ! सम्यक्त्व दीजे मुझे आज ही।
मैं नमूं भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।१।।
सत्य झूठे पदार्थादि में जो रुची।
‘मिश्र’ को नाश के सिद्ध आत्मा हुए।।
तीसरे भाव को नाश कीजे प्रभो!
मैं नमूं भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२।।
शुद्ध सम्यक्त्व ना हो मलिन दोष हों।
आप ‘सम्यक् प्रकृति’ नाश के सिद्ध हो।।
चल मलिन दोष से शून्य सम्यक्त्व दो।
मैं नमूं भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।३।।
जो अनंतों भवों का कहा हेतु है।
ये ‘अनंतानुबंधी महाक्रोध’ है।।
नाश के सिद्ध हो सिद्ध मैं भी बनूँ।
मैं नमूं भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।४।।
‘मान’ मिथ्यात्व सहचारि संसार में।
नाश के आप मुक्त्यंगना को वरी।।
स्वाभिमानी बनूँ स्वात्मसंपद् भरूँ।
मैं नमूं भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।५।।
वंचना नाम ‘माया’ से तिर्यग्गती।
ये अनंतानुबंधी भ्रमावें यहाँ।।
नाश के आप मुक्तीरमा वश किया।
मैं नमूं भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।६।।
‘लोभ’ मिथ्यात्व संगी रुलावे सदा।
आत्मघाती किया नाश इसका प्रभो।।
धार संतोष पाऊं निजानंद को।
मैं नमूं भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।७।।
-चौपाई-
‘क्रोध अप्रत्याख्यानावरणी’, इसे घात प्रभु ने शिव परणी।
मैं भी स्वात्म क्षमा गुण पाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।८।।
अस्थिसमान ‘मान’ जो माना, नाश किया तुमने भवहाना।
मैं भी स्वाभिमान प्रगटाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।९।।
मेष सींग सम ‘दूजी माया’, नष्ट किया शिवपद को पाया।
मन वच तन को सरल बनाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१०।।
‘लोभ कषाय अप्रत्याख्यानी’, अणुव्रत की भी करती हानी।
मैं भी स्वात्मसुधारस पाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।११।।
‘प्रत्याख्यानावरण क्रोध’ के, उदय हुए संयम नहिं प्रगटे।
अणुव्रत की शक्ती प्रगटाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।१२।।
‘मान कषाय तीसरी’ मानी, महाव्रतों की करती हानी।।
देशव्रती बन कर्म नशाऊं, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१३।।
‘माया प्रत्याख्यानावरणी’, इसको नाशा प्रभु शिवपरणी।
इसके रहे देशव्रत पाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१४।।
‘लोभ कषाय तीसरी’ मानी, मुनि के नहीं कहे जिनवानी।
इसको नाश स्वात्मनिधि पाऊं, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१५।।
है ‘संज्वलन क्रोध’ इस जग में, जलरेखा सम रहता मुनि में।
इसे नाश संयम निधि पाऊं, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१६।।
‘चौथी मानकषाय’ बखानी, महाव्रती बन सकते प्राणी।
इसको नष्ट किया गुण गाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१७।।
‘माया संज्वलनी’ मुनि में भी, यथाख्यात नहिं होने देती।
तुमने नाश किया गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।१८।।
‘लोभ कषाय चतुर्थी’ मुनि के, तीव्र रहे विकथादिक प्रगटें।
इससे रहित आप गुण गाऊं, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।१९।।
नो कषाय है ‘हास्य’ नाम की, इसके उदय हंसी है आती।
इससे रहित सिद्धगुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२०।।
कनक कामिनी गेहादी में, ‘रती’ उदय से प्रीती इनमें।
धर्म प्रीति हेतू गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२१।।
वस्तु अनिष्ट देख ‘अरती’ हो, दूर करें मुनि निज में रत हो।।
इससे रहित सिद्धगुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२२।।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग से, ‘शोक’ प्रगट होता सब जन के।
इसके नाश हेतु गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२३।।
मन में हो अनिष्ट से भीती, ‘भय’ के उदय दु:ख यह रीती।
इससे रहित आप गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२४।।
निंद्य वस्तु से होती ग्लानी, उदय ‘जुगुप्सा’ से यह मानी।
इसके नाश हेतु गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२५।।
‘स्त्रीवेद’ उदय होने से, नारी नर से प्रीती वर्ते।
इसे नाश निज समरस पाऊँ, सिद्धप्रभू को शीश नमाऊँ।।२६।।
‘पुंवेदी’ स्त्री की इच्छा, करता वेद उदय से स्वेच्छा।
परमब्रह्म पदवी को पाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२७।।
नर नारी दोनों की इच्छा, वेद ‘नपुंसक’ उदय अपेक्षा।
वेदनाश निज में रम जाऊँ। सिद्धप्रभू को शीश नढ़ाऊँ।।२८।।
-स्रग्विणी छंद-
मोहनीकर्म को नाश के सिद्ध हो, दोष से शून्य हो वीतरागी तुम्हीं।
नाथ! मेरे सभी दोष को नाशिये, मैं नमूं भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२९।।
-रोला छंद-
नरकों में जा जीव, तेंतिस सागर तक भी।
भोगे दु:ख अतीव, गणधर कह न सकें भी।।
‘नरकायू’ को नाश, सिद्ध बने शिव स्वामी।
इसका करूँ विनाश, नमूँ सिद्ध अनुगामी।।१।।
तीन पल्य उत्कृष्ट, ‘तिर्यंचायु’ कही है।
श्वांस के अठरह भाग, आयु जघन्य रही है।।
दु:ख असंख्य प्रकार, तिर्यग्गति में पाये।
लीजे नाथ! उबार, नमूँ सिद्ध शिर नाये।।२।।
तीन पल्य उत्कृष्ट, भोगभूमि में मानी।
‘मनुष आयु’ नर इष्ट, मध्यम बहुविध मानी।।
श्वांस के अठरह भाग, आयु जघन्य मनुज की।
नाश किया प्रभु आप, नमूँ सिद्ध पद नित ही।।३।।
‘देव आयु’ उत्कृष्ट, तेंतिस सागर मानी।
जघन आयु दस सहस, वर्ष कहे जिनवानी।।
इसको नाश जिनेन्द्र, आप सिद्धपद पाया।
नमते इन्द्र नरेन्द्र, मैं भी शरणे आया।।४।।
अवगाहन गुण पाय, निरुपम सुख के भोगी।
निरवधिसुस्थित मान, सिद्धिवधूपति योगी।।
ऐसे सिद्ध महान, नितप्रति भक्ति बढ़ाऊँ।
मिले निजातम ज्ञान, भक्ती से शिर नाऊँ।।५।।
-चामर छंद-
घोर दु:ख दायिनी नरक गती प्रसिद्ध है।
पाप से मिले इसे विनाश आप सिद्ध हैं।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिए भवाब्धि से उबारिये।।१।।
पशू पक्षि आदि की ‘तिर्यग्गती’ प्रसिद्ध है।
एक इन्द्रि से पंचेन्द्रि प्राणि सर्व भीत हैं।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिए भवाब्धि से उबारिये।।२।।
स्वर्ग मोक्ष का उपाय नरगती में शक्य है।
तीन रत्न पाय के ‘मनुष्यगती’ धन्य है।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिए भवाब्धि से उबारिये।।३।।
आठ ऋद्धियों समेत देवगती श्रेष्ठ है।
किंतु एक इन्द्रि हो सकें अत: अनिष्ट है।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिए भवाब्धि से उबारिये।।४।।
‘एक इन्द्रि’ भूमि अग्नि, वायु जल वनस्पती।
जन्म धार धार के अनंत जीव हैं दुखी।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए नमें।।५।।
शंख जोंक केंचुआ ‘द्विइन्द्रियों’ को धारते।
कष्ट भोगते अनंत सुख कभी न पावते।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए नमें।।६।।
चींटि मत्कुणादि ‘तीन इंद्रियों’ को पायके।
जन्म मृत्यु धारते कुयोनि पाय पायके।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए नमें।।७।।
मक्खि मच्छरादि ‘चार इन्द्रि’ जीव जन्मते।
बार बार जन्म मृत्यु दुख असंख्य भोगते।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए नमें।।८।।
‘पाँच इन्द्रियों’ समेत नारकी तिर्यंच भी।
देव मनुज हों उन्हीं में क्रूर हिंस्र जंतु भी।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए नमें।।९।।
-दोहा-
‘औदारिक’ तनु धारते, नर तिर्यंच सदैव।
इसे नाश शिवपद लिया, नमूं भक्तिवश एव।।१०।।
देव नारकी ‘वैक्रियक’, देह धरें जग मध्य।
इसे नाश अशरीर हो, नमत मिले सुख सद्य।।११।।
मुनि ‘आहारक’ ऋद्धि युत, संशय दूर करंत।
इसे नाश सिद्धातमा, नमत करूँ भव अंत।।१२।।
‘तैजस’ कर्मोदय सहित, सब संसारी जीव।
इसे नाश अशरीर हो, नमते सौख्य अतीव।।१३।।
‘कार्मणकर्म’ उदय सहित, जग में जीव भ्रमंत।
कर्मपिंड को नाश कर, भये सिद्ध भगवंत।।१४।।
‘औदारिक परमाणु से, तनु का बंधन’ मान्य।
इसे नाश शिव पद बसे, नमत मिले सुख साम्य।।१५।।
‘विक्रियतनुबंधन’ निमित, सुघटित तनु बन जाय।
कर्मनाश सिद्धातमा, नमूं चरण सुखदाय।।१६।।
‘आहारकबंधन’ निमित, छिद्ररहित तनु होय।
इसे नाश शिव पद लिया, नमत तुम्हें सुख होय।।१७।।
‘तैजसबंधन’ के निमित, तनु में दीप्ति लसंत।
देह शून्य प्रभु सिद्ध हो, नमूँ नित्य पदकंज।।१८।।
‘कार्माण बंधन’ उदय, पुद्गल आत्म प्रदेश।
एकमेक होकर रहें, इनसे रहित जिनेश।।१९।।
‘औदारिक अणु साथ में’ आत्मा एकीरूप।
नाश किया तुमने अत:, नमूँ नमूँ चिद्रूप।।२०।।
‘वैक्रिय परमाणू मिले’, आत्म प्रदेशहिं संग।
नाश किया ‘संघात’ यह, नमते बनूँ असंग।।२१।।
‘आहारक संघात’ से, रहित सिद्ध भगवान्।
नमूँ नमूँ सब सिद्ध को, मिले भेद विज्ञान।।२२।।
‘तैजस जो वर्गणा मिलीं’, आत्मप्रदेशहिं संग।
इन्हें नाश मुक्ती लिया, नमते बनूँ निसंग।।२३।।
‘कार्माण संघात’ से, रहित निरंजन देव।
नमूँ सिद्ध परमातमा, करूँ अमंगल छेव।।२४।।
-पद्धड़ी छंद-
संस्थान प्रथम दशताल मान, ‘समचतूरस्र’ सुंदर महान।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।२५।।
जिस कर्म उदय आकार जान, वट वृक्ष सदृश ऊपर महान्।
‘न्यग्रोध’ हान प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।२६।।
‘वामी’ सम तन आकार जान, ऊपर कृश नीचे वृहत् मान।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।२७।।
जिस कर्म उदय ‘कुब्जक शरीर’, इससे विरूप जन हों अधीर।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।२८।।
जिससे ‘बामन आकार’ होय, यह देह अपावन अथिर होय।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।२९।।
जिस उदय देह बेडौल मान, विषमाकृति ‘हुंडक’ नाम जान।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३०।।
जिससे सब अंग उपांग होत, ‘औदारिक अंगोपांग’ स्रोत।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३१।।
‘वैक्रियक सु आंगोपांग’ नाम, इससे सुर तनु नयनाभिराम।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३२।।
आहारकआंगोपांग कर्म, पुतला बनता सुंदर सुशर्म।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३३।।
जिससे नस बंधन कील अस्थि, हो वङ्कासदृश अतिशायि शक्ति।
इस ‘वङ्कावृषभ’ हनि सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३४।।
जिससे हों वङ्का समान अस्थि, हों कील वङ्का की अतुल शक्ति।
इस ‘वङ्कानाराच’ हनि सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३५।।
जिससे कीलें सामान्य जान, हों अस्थि वङ्कासम शक्तिमान।
इस ‘नाराच’ हान सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३६।।
अस्थी में कीलें तरफ एक, ‘संहनन अर्धनाराच’ देख।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३७।।
जिस कर्म उदय से सर्व अस्थि, आपस में कीलित हों स्वशक्ति।
इस ‘कीलक’ हान प्रभु सिद्ध शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३८।।
नस से बंधी हों अस्थि संधि, नहिं आपस में कीलित विसंधि।
‘असंप्राप्तसृपाटिका’ हनि शुद्ध, वंदत होवे आत्मा विशुद्ध।।३९।
जिस कर्म उदय तनु धरे वर्ण, यह ‘श्वेत’ शस्त१ या अशुभ वर्ण।।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४०।।
जिस कर्म उदय से ‘पीत गात्र’, शुभ अशुभ धरें सब जीव मात्र।
इस पुद्गल गुण से मुक्त सिद्ध, मैं नमत बनूं निजगुण समृद्ध।।४१।।
जगजीव देह में ‘हरित वर्ण’, शुभ अशुभ कर्म से विविध वर्ण।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४२।।
कर्मोदय वश तनु धरे ‘कृष्ण’, शुभ अशुभ विविध देहादि वर्ण।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४३।।
कर्मोदय वश से ‘लाल’ देह, सब जीव धरें शुभ में सनेह।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४४।।
सब प्राणी को प्रिय है ‘सुगंध’, ये कर्म करें सब जगत अंध।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४५।।
जिस कर्म उदय ‘दुर्गंध गात्र’, प्राणी हो जाते दु:खपात्र।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४६।।
जो धरें ‘तिक्तरस’ सहित देह, कर्मोदयवश से विविध एह।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४७।।
जो ‘कटुक’ वनस्पति आदि गात्र, कर्मोदय से भी हों सुगात्र।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४८।।
पाते ‘कषायला रस’ समेत, कर्मोदय से हों विविध भेद।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४९।।
‘तनु अम्ल’ मिले कर्मन वशात्, एकेन्द्रिय आदिक विविध जात।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५०।।
जो ‘मधुर देह’ को पाय जीव, तनु धर धर मरते दुख अतीव।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५१।।
तनु ‘मृदु स्पर्श’ यह कर्म कार्य, निज तत्त्व ज्ञान बिन कष्ट धार्य।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५२।।
‘कर्कश स्पर्श’ तनु धरत जीव, संसार भ्रमण दुष्कर अतीव।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५३।।
‘गुरु तनु’ भी कर्मोदय निमित्त, त्रस थावर योनी धरत नित्त।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५४।।
‘लघु तनु’ धर धर प्राणी भ्रमंत, निज आत्म ज्ञान बिन नाहिं अंत।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५५।।
जल आदि जीव के ‘शीत देह’, नहिं कर्म नाश बिन हों विदेह।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५६।।
अग्नी आदिक के ‘देह उष्ण’, निश्चयनय से मैं शुद्ध जिष्णु।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५७।।
‘चिकना तनु’ कर्मोदय निमित्त, आत्मा स्वभाव से शुद्ध नित्त।
इस ‘स्निग्ध’ गुण से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५८।।
‘रूखा तनु’ धर धर मरें जीव, स्पर्श रहित आत्मा शुचीव।
इस ‘रुक्ष’ गुणों से हीन सिद्ध, मैं नमत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५९।।
-गीता छंद-
पर्याप्त पंचेन्द्रिय मनुज या, पशू पाप क्रिया करें।
नरकायु बांधें यहाँ से, मरकर नरक में भव धरें।।
विग्रहगती में पूर्व का, आकार यह अनुपूर्वी।
उनको नमूँ जिनने हना यह, ‘नरकगति अनुपूर्वी’।।६०।।
चारों गती के जीव यदि, तिर्यग्गती जाने लगें।
तनु पूर्व का आकार ‘तिर्यग्, आनुपूर्वी’ का उदै।।
गति आयु विरहित शुद्ध, परमानंदमय शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६१।।
चारों गती के जीव भी, नर जन्म धर सकते यहाँ।
विग्रहगती में आनुपूर्वी, का उदय श्रुत में कहा।।
‘नर आनुपूर्वी’ रहित, परमानंदमय शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६२।।
देवत्व पाने हेतु नर पशु, आनुपूर्वी उदय से।
जो पूर्व तनु आकार धरते, आपने नाशा उसे।।
‘देवानुपूर्वी’ रहित चिन्मय, ज्योति मुझ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६३।।
नहिं अति गुरु नहिं अति लघू, तनु धरें संसारी सभी।
इस ‘अगुरुलघु’ को नष्ट कर के, पा लिया पंचम गती।।
मैं नित्य परमानंद चिन्मय, ज्योति धर शुद्धात्मा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६४।।
निज के हि अंगोपांग निज का, घात कर देते जभी।
‘उपघात’ कर्मोदय निमित, इस घात शिव पहँुचे तभी।।
मैं शुद्धनय से ज्ञानदर्शन, पूर्ण हूँ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६५।।
जो सींग दाढ़ादिक धरें, गौ व्याघ्र सर्पादिक यहाँ।
‘परघात’ कर्मोदय निमित, इस घात शिवपद ले यहाँ।।
मैं शुद्धनय से कर्म अंजन, से रहित शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६६।।
रवि के विमानहिं चमकते, वे भूमिकायिक से बनें।
भूजीव ‘आतप’ कर्मधारी, जन्मते इनमें घने।।
सब शुद्धनय से शुद्ध भी, निजकर्म हन शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६७।।
शशि तारकादि विमान में, तनुधार पृथ्वी चमकते।
खद्योत भी ‘उद्योत’ कर्मोदय धरें मिथ्यात्व से।।
प्रभु कर्म नाशा मुक्ति लक्ष्मी, पति बने शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६८।।
सब प्राणधारी जी रहे, ‘उच्छ्वास’ अरु निश्वास से।
यह नामकर्म विनाश कर, लोकाग्र पे जो जा बसे।।
उन सिद्धसम मेरी सदा, है शुद्ध बुद्ध चिदातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६९।।
सुंदर गमन हो जीव का, ‘शुभकर विहायोगति’ उदय।
इस कर्म विरहित सिद्ध प्रभु हैं, नित करूँ उनकी विनय।।
समरस सुधास्वादी मुनी, ध्याते सदा निज आत्मा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७०।।
जिससे असुंदर हो गमन, वह ‘अप्रशस्त विहायगति’ ।
इन कर्ममल विरहित विशुद्धात्मा लहें हैं सिद्धगति।।
मैं नित्य परमाल्हाद ज्ञायक, चित् चिदानंदात्मा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७१।।
दो इन्द्रि से पंचेन्द्रि तक, ‘त्रस नाम’ कर्मोदय धरें।
दुर्लभ इसे भी प्राप्त कर, ही भव्य रत्नत्रय धरें।।
त्रस रहित सिद्धों को नमूँ, मैं बनूँ अंतर आतमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७२।।
भू जल अगनि वायू वनस्पति, पाँच ‘स्थावर’ कहे।
इनके दयालू मुनी ही, इस कर्म के घातक रहें।।
निज पर दया कर मैं स्वयं, बन जाऊँ शुद्ध चिदात्मा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७३।।
‘बादर’ उदय से जीव पर से, मरें पर को घातते।
त्रस थावरों में जन्मते, मरते सदा दुख पावते।।
इस कर्म घातन हेतु महव्रत, धर बनूं शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७४।।
जो ‘सूक्ष्म’ कर्मोदय धरें, नहिं पर निमित्त से मर सकें।
नहिं हो किसी का घात इनसे, नहिं किसी को ये दिखें।।
इन थावरों से शून्य मैं, ध्याऊँ सदा शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७५।।
‘पर्याप्ति’ अपनी पूर्ण कर, प्राणी तनू धरते यहाँ।
इस कर्म विरहित ज्ञानघन, चैतन्य चिंतामणि कहा।।
मैं शुद्धनय से चिंतवन कर, ध्याऊँ निज शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७६।।
चउपंच छह पर्याप्तियाँ, भी पूर्ण जिनकी हों नहीं।
इस ‘अपर्याप्ती’ के उदय से, क्षुद्र भव धरते सही।।
इस कर्म विरहित ज्ञानज्योती, पुंज मुझ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७७।।
जिस वनस्पति का एक जीवहि, स्वामि हो ‘प्रत्येक’ वो।
यह वनस्पति का भेद है, इस नाश कर शिव गये जो।।
एकत्व जिनका प्राप्त हो, इस हेतु ध्याऊं स्वात्मा।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७८।।
जो तनु अनंतानंत जीवों, का बने बस एक हो।
शैवाल आदि अनंतकायिक, नाम ‘साधारण’ रहो।।
प्रभु नित्य इतर निगोद पर्यय, ना लहूं यह प्रार्थना।
उन सिद्ध को वंदूं सदा, हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७९।।
-शेर छंद-
रस आदि सात धातुयें ‘स्थिर’ बनी रहें।
उपवास आदि से भी देह क्षीण ना बने।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८०।।
रस आदि धातुएं सदा ‘अस्थिर’ बनी रहें।
उपवास आिद से सदा आकुल तनू रहे।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८१।।
शिर मुख व नासिकादि श्रेष्ठ आकृती कहीं।
‘शुभनाम’ कर्म के उदय से पावते सही।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८२।।
शिर मुख व पैर आदि भी आकार ‘अशुभ’ हों।
इस नाम के उदय से हीन देह प्राणि हों।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८३।।
जिससे सभी जन अपने में प्रीति को करें।
इसको कहें ‘सुभग’ तनु शुभ कर्म से धरें।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८४।।
जिससे करें अप्रीती ‘दुर्भग’ उसे कहें।
इसके उदय से प्राणी अति दीन ही रहें।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८५।।
‘सुस्वर’ हो कोकिला सम सबको मधुर लगे।
सुनते न तृप्ति होवे इस कर्म का उदै।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८६।।
‘दु:स्वर’ हो सबको अप्रिय भाषा कठोर हो।
सुनना न कोई चाहे नीरस वचन अहो।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८७।।
जिसके उदय से तनु में कांती अपूर्व हो।
‘आदेय’ उसको कहिये मन नेत्र प्रेय हो।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८८।।
जिससे शरीर रूखा नहिं कांति को धरे।
ये कर्म अशोभन व ‘अनादेय’ दुख करे।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८९।।
जिससे सुयश हो जग में गुण हों भी या न हों।
वह कर्म ‘यशस्कीर्ती’ अतिशायि कीर्ति हो।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।९०।।
शुभ कार्य करें गुण हों फिर भी अकीर्ति हो।
यह नाम ‘अयशकीर्ती’ मन में अशांति हो।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।९१।।
सुंदर व असुंदर शरीर की करे रचना।
‘निर्माण कर्म’ ही तो विधाता यहाँ बना।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं नित नमूं तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।९२।।
‘तीर्थेश प्रकृति’ पुण्यराशि सर्वश्रेष्ठ है।
इसके उदय से धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति है।।
फिर भी ये कर्म बंधन जग में ही रोकता।
प्रभु सिद्ध को नमूं मैं मेटो जगत व्यथा।।९३।।
-चामर छंद-
नाम कर्मनाश सूक्ष्म गुण समेत सिद्ध हो।
मैं नमूँ त्रिकाल नाथ, नामकर्म नष्ट हो।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिये भवाब्धि से उबारिये।।९४।।
-रोला छंद-
‘उच्च गोत्र’ से जीव, श्रेष्ठ कुलों में जन्में।
शिवसुख हेतु अतीव, मिलें सहज ही उनमें।।
इसे नाश कर आप, लोक शिखर पर राजें।
नमत नशे भवताप, कर्मअरी दल भाजें।।१।।
‘नीच गोत्र’ से जंतु, हीनवंश में आते।
शिवकारण की पूर्ण, सामग्री नहिं पाते।।
इसे नाश कर आप, लोक शिखर पर राजें।
नमत नशे भवताप, कर्मअरी दल भाजें।।२।।
जग में ऊंच व नीच, कुल में जन्म धरावे।
गोत्र कर्म भव बीच, सब जन को हि भ्रमावे।।
इसे नाश कर आप, लोक शिखर पर राजें।
नमत नशे भवताप, कर्मअरी दल भाजें।।३।।
-चौबोल छंद-
इच्छा होती दान करें ‘दानांतराय’ ही विघ्न करे।
धन होवे पर दान नहीं कर, सकें यही हो दु:ख अरे।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।१।।
बहुविध लाभ चाहने पर, ‘लाभांतराय’ ही विघ्न करे।
लाभ न हो इच्छानुसार तब, मन में होता खेद अरे।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।२।।
अशनपानमालादिक सब, ‘भोगान्तराय’ से नहिं मिलते।
भविजन हृदय कमल मुकुलित हैं, ज्ञानसूर्य बिन नहिं खिलते।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।३।।
स्त्री वस्त्र आदि सब ‘उप-भोगांतराय’ से नहीं मिलें।
आत्मसुधारस आस्वादी मुनि, उनको ही निज सौख्य मिले।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।४।।
निज की शक्ती प्रकट न होवे, ‘वीर्य विघ्न’ का उदय कहा।
निज अनंत शक्ती मिल जावे, इसीलिए तुम शरण लिया।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।५।।
अंतराय का उदय हुए से, विघ्न पड़े सब कार्यों में।
अतुलशक्ति युत आत्मा भी तो, हीन बना है भव-भव में।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।६।।
-स्रग्विणी छंद-
एक सौ आठ चालीस प्रकृती कही।
आपने नाशके मोक्ष लक्ष्मी लिया।।
कर्म से शून्य परमात्म सुख के लिए।
मैं नमूं आपको लब्धियाँ नौ मिलें।।७।।
कर्म नाशे अनंते अनंते सभी।
आप ही ज्ञान आनन्त्य सिंधू कहे।।
मैं अनंतों गुणों को स्वयं ही वरूँ।
‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो आपकी भक्ति से।।८।।