जिणणाणदिट्ठिसुद्धं, पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं।
विदियं संजमचरणं, जिणणाणसदेसियं तं पि।।
(चारित्रपाहुड़ गाथा-५)
—शंभु छन्द—
सम्यक्त्वचरण चारित्र प्रथम, श्री जिनवर ने उपदेशा है।
जो सम्यग्दर्शन और ज्ञान, से शुद्ध चरित निर्देशा है।।
दूजा है संयमचरण चरित जो, सकल-विकल द्वयरूप कहा।
जिनज्ञान देशना से विकसित, चरणानुयोग में यही कहा।।
अर्थ—जिनेन्द्रदेव भाषित ज्ञान-दर्शन से शुद्ध पहला सम्यक्त्वचरण चारित्र है और दूसरा संयमचरण चारित्र है वह भी जिनेन्द्रदेव के ज्ञान से उपदेशित शुद्ध है।
भावार्थ—इस सम्यक्त्वचरणचारित्र में शंका, कांक्षा आदि आठ दोष और तीन मूढ़ता आदि सर्वदोष छोड़कर नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठ गुणों को धारण करना होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि के यह सम्यक्त्वचरण ही होता है न कि स्वरूपाचरण, क्योंकि पूर्वाचार्यों के वचनों के अनुसार ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
तं चेव गुणविसुद्धं, जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय।
जं चरइ णाणजुत्तं, पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं।।
(चारित्रपाहुड़ गाथा-८)
ऐसी वाणी को जो जिनवर के, वचन मान श्रद्धान करें।
नि:शंकितादि गुण से विशुद्ध, वास्तविक तत्त्व का ज्ञान करें।।
वह ही सम्यक्त्वचरण चारित्र, अवस्था प्रथम कहाती है।
यह मोक्ष प्राप्ति के साधन में, पहली सीढ़ी बन जाती है।।
अर्थ—वही जिन भगवान का श्रद्धान जब नि:शंकित आदि गुणों से विशुद्ध तथा यथार्थ ज्ञान से युक्त होता है, तब वही प्रथम सम्यक्त्वचरण चारित्र कहलाता है। यह चारित्र मोक्ष प्राप्ति का साधन है।
भावार्थ—वात्सल्य, विनय, दया, दान, मोक्षमार्ग की प्रशंसा, पर के दोषों को ढकना—उपगूहन, स्थितिकरण और आर्जव भाव ये सब सम्यक्त्व के गुण हैं। शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से रहित सम्यग्दर्शन विशुद्ध कहलाता है। ऐसे सम्यक्त्वी के सम्यक्त्वचरण चारित्र होता है।
हिंसारहिए धम्मे, अट्ठारहदोसवज्जिए देवे।
णिग्गंथे पावयणे, सद्दहणं होइ सम्मत्तं।।
(मोक्षपाहुड़ गाथा-९०)
जीवों की दया स्वरूप अिंहसा, धर्म में जो श्रद्धान करे।
अठरह दोषों से रहित, वीतरागी देवों का ध्यान करे।।
निर्ग्रन्थ गुरू अर्हत्प्रवचनमय, जिनवाणी का श्रद्धानी।
सम्यग्दर्शन से युक्त उसे ही, बतलाती है प्रभुवाणी।।
अर्थ—हिंसारहित धर्म में, अठारह दोषरहित देव में, निर्ग्रंथ गुरु में और अर्हंत के प्रवचन—जिनशास्त्र में जो श्रद्धा है, वही सम्यग्दर्शन है।
भावार्थ—जीव दया ही धर्म है। अठारह दोषों से रहित वीतरागी, हितोपदेशी, सर्वज्ञ भगवान ही देव हैं। दिगम्बर मुद्राधारी मुनि ही गुरु हैं और जिनागम ही सच्चे शास्त्र हैं। इनका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है जो कि मोक्षमहल की पहली सीढ़ी है।
दुविहं संजमचरणं, सायारं तह हवे णिरायारं।
सायारं सग्गंथे, परिग्गहारहिय खलु णिरायारं।।
(चारित्रपाहुड़ गाथा-२१)
सागार और अनगाररूप, संयम के हैं दो भेद कहे।
इनके पालन से श्रावकमुनि, दोनों ही शिव का मार्ग लहें।।
सागार चरित सग्ग्रंथ श्रावकों, में ही माना जाता है।
अनगार चरित निर्ग्रन्थ दिगम्बर, मुनियों में बन जाता है।।
अर्थ—सागार और अनागार के भेद से संयमचरण चारित्र दो प्रकार का है। उनमें से सागारचारित्र परिग्रह सहित श्रावक के होता है और निरागार चारित्र परिग्रह रहित मुनियों के होता है।
भावार्थ—श्रावक धर्म और मुनि धर्म के भेद से संयम के दो भेद माने हैं। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये श्रावक के १२ व्रत होते हैं। (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का एकदेश त्याग करना अणुव्रत है।) दिग्व्रत, अनर्थदण्डत्याग और भोगोपभोग परिमाण ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और अंतिम सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत हैं। श्री गौतमस्वामी ने और श्रीकुन्दकुन्ददेव ने शिक्षाव्रत में ही सल्लेखना को लिया है।
दंसण वय सामाइय, पोसह सचित्त रायभत्ते य।
बंभारंभपरिग्गह, अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदो य।।
(चारित्रपाहुड़ गाथा-२२)
श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में, दर्शन-व्रत-सामायिक है।
प्रोषध-सचित्त का त्याग रात्रि-भोजन का त्याग आदि भी है।।
शुभ ब्रह्मचर्य-आरम्भत्याग, परिग्रह-अनुमति-उद्दिष्टि त्याग।
इनके पालन से देशव्रती, श्रावक, पा जाते चरम त्याग।।
अर्थ—दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभोजनत्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये देशविरत श्रावक के ग्यारह भेद हैं।
भावार्थ—इन ग्यारह स्थानों को प्रतिमा भी कहते हैं। इनमें से छह प्रतिमा तक व्रतों का पालन गृहस्थ भी कर सकते हैं, यह जघन्य श्रावक हैं। ब्रह्मचर्य प्रतिमा से लेकर नवमीं प्रतिमा तक मध्यम श्रावक होते हैं और अंतिम दो प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा में भी क्षुल्ल्क और ऐलक ये दो भेद होते हैं। पहली प्रतिमा में गुणों से सहित, दोषों से रहित सम्यक्त्व प्रधान है और दूसरी प्रतिमा में अणुव्रत आदि बारह व्रत लिये जाते हैं।
मयमूढ़मणायदणे, संकाइवसणभयमईयारं।
जेसिं चउदालेदे, ण संति ते होंति सद्दिट्ठी।।
(चौबीस तीर्थंकर भक्ति गाथा-१)
मद आठ मूढ़ता तीन अनायतनं, छह अठ शंकादि दोष।
भय सात व्यसन भी सात पंच, अणुव्रत के जो अतिचार दोष।।
ये सभी चवालिस दोष दूर, करके जो सम्यग्दृष्टि बनें।
वे शिवपथगामी बन करके, क्रम-क्रम से सारे कर्म हनें।।
अर्थ—आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन, शंका आदि आठ दोष, सात व्यसन, सात भय और पाँच अणुव्रतों के पाँच अतिचार, ये चवालीस दोष जिनके नहीं होते हैं, वे सम्यग्दृष्टि हैं।
भावार्थ—जाति, कुल, रूप, विद्या, ऐश्वर्य, ज्ञान, बल और तप इनके निमित्त से अहंकार करना ये आठ मद हैं। देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखण्डमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं। कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और इनके आश्रितजन ये छह अनायतन हैं। शंका आदि आठ दोष हैं। जुआ, माँस, मदिरा, वेश्या-सेवन, शिकार, चोरी और परस्त्रीसेवन ये सात व्यसन हैं। इहलोक, परलोक, मरण, अगुप्ति, अरक्षा, वेदना और आकस्मिक ये सात भय हैं। पाँच अणुव्रत के पाँच अतिचार समेत इन ४४ दोषों को दूर करना चाहिए।
दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्मे ण सावया तेण विणा।
झाणज्झययं मुक्खं, जइ-धम्मे तं विणा तहा सो वि।।
(रयणसार गाथा-१०)
दाणं पूजा मुक्खो श्रावक के, धर्म प्रमुख कहलाते हैं।
क्योंकि इनसे विरहित मानव, श्रावक संज्ञा निंह पाते हैं।।
मुनि पदवी में हैं ध्यान और, अध्ययन प्रमुख जाने जाते।
क्योंकि इनसे विरहित साधू, निंह मुनी अवस्था को पाते।।
अर्थ—श्रावक धर्म में दान और पूजा ये दो मुख्य हैं, क्योंकि इनके बिना श्रावक नहीं हो सकते हैं। मुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन मुख्य हैं क्योंकि इनके बिना मुनि नहीं हो सकते हैं।
भावार्थ—श्रावक के दान, पूजा, शील और उपवास ये चार धर्म हैं। सम्यक्त्व सहित ये चारों ही क्रियाएँ परम्परा से मोक्ष के लिये कारण हैं। इनमें अथवा देव-पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह क्रियाओं में भी दान और पूजा ये दो क्रियाएँ श्रावक को नित्य करनी ही चाहिए।
दाणं भोयणमेत्तं, दिण्हई धण्णो हवेइ सायारो।
पत्तापत्तविसेसं, संदंसणे किं वियारेण।।
(रयणसार गाथा-१४)
श्रावक मुनि को आहार मात्र, दे करके धन्य कहाता है।
निंह पात्र-अपात्र विचार करे, वह ही भाक्तिक कहलाता है।।
मुद्रा सर्वत्र पूज्य होती, निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिवर की।
आहार मात्र देने हेतू, निंह उचित परीक्षा यतिवर की।।
अर्थ—गृहस्थ भोजन मात्र दान देता है और धन्य हो जाता है अत: मुनि के दर्शन मिलने पर यह पात्र है या अपात्र है ? ऐसा विचार करने से क्या प्रयोजन है ?
भावार्थ—पिच्छी-कमण्डलुधारी दिगम्बर मुनि को देखकर उन्हें आहारदान देना चाहिये। यह पात्र है या नहीं ? सच्चे मुनि हैं या शिथिलचारित्री ? इन बातों का विचार नहीं करना चाहिये। कहा भी है—‘भुक्तिमात्र प्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनां’। आहारमात्र देने के लिये तपस्वियों की क्या परीक्षा करना ? अत: आज के मुनियों को भक्ति से आहारदान देना उचित है।
गुणवयतवसमपडिमा-दाणं, जलगालणं अणत्थमियं।
दंसणणाणचरित्तं, किरिया तेवण्ण सावया भणिया।।
(रयणसार गाथा-१३७)
गुण व्रत तप समता दान और, प्रतिमा आदिक बतलाई हैं।
जलगालन रात्रीभुक्ति-त्याग, रत्नत्रयरूप कहाई हैं।।
ये भेदरूप श्रावक की त्रेपन, क्रिया नहीं हैं आगम में।
इनके त्रेपन व्रत भी होते, जो बतलाए जिनशासन में।।
अर्थ—अष्टमूलगुण, बारह व्रत, बारह तप, समता भाव, ग्यारह प्रतिमाएं, चार दान, पानी छानकर पीना, रात्रिभोजन नहीं करना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये श्रावकों की त्रेपन क्रियाएँ कही गयी हैं।
भावार्थ—पाँच उदम्बर, तीन मकार—मद्य, माँस, मधु का त्याग करना ये आठ मूलगुण हैं। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत ये बारह व्रत हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश तथा प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये बारह तप हैं। ग्यारह प्रतिमा के नाम आ चुके हैं। आहार, औषधि, शास्त्र और अभय ये चार दान हैं। इन त्रेपन क्रियाओं के त्रेपन व्रत भी किये जाते हैं।
आत्मा के तीन भेद—
तिपयारो सा अप्पा, परभिंतरबाहिरो दु हेऊणं।
तत्थ परो झाइज्जइ, अंतोवायेण चयहि बहिरप्पा।।
(मोक्षपाहुड़ गाथा-४)
बहिरात्मा अन्तर आत्मा, परमात्मा से आत्मा त्रय विध है।
पुद्गल शरीर में छिपी हुई, आत्मा निश्चय से ही प्रभु है।।
बहिरात्म अवस्था को तजकर, अन्तर आत्मा बनना चहिए।
अन्तर आत्मा के द्वारा परमात्मा, का पद लहना चहिए।।
अर्थ—यह आत्मा परमात्मा, अभ्यन्तर आत्मा और बहिरात्मा के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा का ध्यान करना चाहिए।
भावार्थ—सम्यग्दर्शन से रहित परवस्तु को अपनी मानने वाला बहिरात्मा है। सम्यग्दृष्टि होकर अपनी आत्मा को ही अपनी समझकर क्रम से चारित्र में बढ़ने वाले अन्तरात्मा हैं और अर्हंत-सिद्ध भगवान परमात्मा हैं। पहले गुणस्थान से तीसरे तक बहिरात्मा हैं। चौथे गुणस्थान से बारहवें तक अन्तरात्मा हैं। इनमें भी चौथे गुणस्थानवर्ती जघन्य, पाँचवें से ग्यारहवें तक मध्यम और बारहवें गुणस्थानवर्ती उत्तम अंतरात्मा हैंं। तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती तथा सिद्ध भगवान परमात्मा हैं।
पुत्तकलत्तणिमित्तं, अत्थं अज्जयदि पापबुद्धीए।
परिहरदि दयादाणं, सो जीवो भमदिसंसारे।।
(द्वादश अनुप्रेक्षा गाथा-३०)
जो पुत्र-कलत्रादिक निमित्त से, धन का अर्जन करते हैं।
जो पापबुद्धि से निजकुटुम्ब का, पालन-पोषण करते हैं।।
जो जीवदया अरु दान आदि, विरहित बहिरात्मा होते हैं।
वह जीव भवभ्रमण कर-करके, मानव जीवन को खाते हैं।।
अर्थ—जो जीव पुत्र, स्त्री आदि के निमित्त पापबुद्धि से धन का उपार्जन करता है, जीव दया और दान को छोड़ देता है, वह संसार में ही परिभ्रमण करता रहता है।
भावार्थ—जो अपने कुटुम्ब के पोषण के लिये ही पाप करके—झूठ, चोरी करके धन कमाता है और जीव दया आदि अणुव्रतों को धारण नहीं करता है एवं धन को दान में नहीं लगाता है वह संसार में ही घूमता रहता है, यह बहिरात्मा का लक्षण है। सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती श्रावक और महाव्रती मुनि अन्तरात्मा हैं।
तेयाला तिण्णिसया, रज्जूणं लोयखेत्तपरिमाणं।
मुत्तूणट्ठपएसा, जत्थ ण ढुरुढुल्लियो जीवो।।
(भावपाहुड़ गाथा-३६)
यह लोक तीन सौ तैंतालीस, राजू प्रमाण है कहा गया।
इसके मधि आठ प्रदेशों को, तज सभी जगह यह जीव गया।।
मेरू पर्वत की जड़ में आठ, प्रदेश नित्य ऐसे रहते।
बस उनको तज सम्पूर्ण लोक में जीव जन्म लेते रहते।।
अर्थ—तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण लोक क्षेत्र में मध्य के आठ प्रदेशों को छोड़कर ऐसा कोई प्रदेश नहीं है कि जहाँ इस जीव ने भ्रमण नहीं किया हो।
भावार्थ—यह लोक तीन सौ तेंतालीस (३४३) राजू प्रमाण है। असंख्यात योजनों का एक राजू होता है। सुमेरू की जड़ में लोकाकाश के मध्य के आठ प्रदेश हैं। उन आठ प्रदेशों को छोड़कर बाकी इस असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश में यह जीव सम्यक्त्व के बिना अनादिकाल से भ्रमण कर रहा है। जब केवली समुद्घात होता है तब आत्मा के मध्य के आठ प्रदेश सुमेरू की जड़ के आठ प्रदेशों में स्थित हो जाते हैं बाकी सर्व प्रदेश सर्व लोकाकाश में पैâल जाते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये लोकानुयोग का ज्ञान करना आवश्यक है।
एक्केक्केंगुलिवाही, छण्णवदी होंति जाणमणुयाणं।
अवसेसे य सरीरे, रोया भण कित्तिया भणिया।।
(भावपाहुड़ गाथा-३७)
मानव शरीर के इक-इक अंगुल-मात्र प्रदेशों में जानो।
इतने लघुकाय प्रदेशों में, छ्यानवें रोग होते मानो।।
तब मानव का शरीर कितने, रोगों से देखो भरा हुआ।
हे जीव! अपावन इस शरीर में, पावन आत्मा छिपा हुआ।।
अर्थ—मनुष्य के शरीर के एक-एक अंगुलमात्र प्रदेश में जब छियानवे-छियानवे रोग होते हैं तब शेष समस्त शरीर में कितने-कितने रोग कहे जा सकते हैं। हे जीव! यह तू जान।
भावार्थ—मनुष्य के शरीर में एक-एक अंगुल बराबर स्थान में छियानवे-छियानवे रोग माने गये हैं तो पूरे शरीर में संख्यात रोग माने गये हैं अत: इस शरीर को रोगों की खान समझकर इससे संयम की साधना करके मोक्ष को प्राप्त कर लेना ही उचित है। अन्यत्र सर्व रोगों की संख्या ५६८९९५८४ प्रमाण कही गयी है। इस रोगी, क्षणिक, अपवित्र शरीर से ही पूर्ण स्वस्थ, अविनाशी, शुद्ध पवित्र आत्मा को प्राप्त किया जा सकता हैै।
छत्तीसं तिण्णिसया, छावट्टिसहस्सवारमरणाणि।
अंतोमुहुत्तमज्झे, पत्तोसि णिगोयवासम्मि।।
(भावपाहुड़ गाथा-२८)
हे जीव निगोदवास में तूने, इक अन्तर्मुहूर्त भीतर।
छ्यासठ हजार त्रयशत छत्तिस, भव धारण किए सोच अन्तर।।
यह जीव निगोदवास में जाने, कितने काल बिताता है।
रत्नत्रय के प्रयास बल पर, मृत्युंजय पदवी पाता है।।
अर्थ—हे जीव! तूने निगोदवास में अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार मरण प्राप्त किया है।
भावार्थ—एक श्वांस के अठारहवें भागप्रमाण सबसे जघन्य आयु से लेकर जन्म-मरण करना क्षुद्रभव कहलाता है। अड़तालीस मिनट के अन्दर ही काल में एक जीव के उपर्युक्त संख्या प्रमाण जन्म-मरण हो जाते हैं अत: इन क्षुद्रभवों से डरकर ऐसा उपाय करना चाहिये कि जिससे बार-बार जन्म-मरण ही न करना पड़े। वह उपाय रत्नत्रय ही है इससे ही मृत्युंजय पद प्राप्त किया जाता है।
विसवेयणरत्तक्खय, भयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं।
आहारुस्सासाणं, णिरोहणा खिज्जए आऊ।।
(भावप्राभृत गाथा-२५)
विष खाने तीव्र वेदना से, रक्तक्षय भय शस्त्रादिक से।
संक्लेश आहार निरोध और, स्वासोच्छ्वासादिक रुकने से।।
इन विविध हेतुओं से अकाल, मृत्यू परमागम में मानी।
इसके निर्वारण में भक्ती, औषधि भी है निमित्त मानी।।
अर्थ—विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र ग्रहण, संक्लेश, आहार-निरोध और श्वासोच्छ्वास के निरोध आदि से आयु का क्षय हो जाता है।
भावार्थ—विष खा लेने से, तीव्र वेदना के उठ जाने से, शरीर से खून अधिक निकल जाने आदि कारणों से अकाल में ही आयु की उदीरणा होकर अकाल मृत्यु अपमृत्यु हो जाती है। आज जो अकालमरण का निषेध करते हैं तो उन्हें यह गाथा कंठाग्र कर लेनी चाहिये। उत्तरपुराण में कहा है कि महाभारत के युद्ध में सर्वाधिक अकालमृत्यु हुई है। अकालमृत्यु के निवारण हेतु औषधि आदि प्रयोग व चिकित्साशास्त्र भी माने गये हैं।
धीरेण वि मरिदव्वं, णिद्धीरेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोिंह वि मरिदव्वं, वरं हि धीरत्तणेण मरिदव्वं।।
(मूलाचार गाथा-१००)
हो धैर्यरहित या धैर्यसहित, सबको ही मरना पड़ता है।
यदि मरना आवश्यक है तो, धीरजयुत मरना अच्छा है।।
संन्यासविधी से वीरमरण, करना समाधि कहलाती है।
इसके विपरीत मरण से भव, की परम्परा बढ़ जाती है।।
अर्थ—धैर्यशाली को भी मरना पड़ता है और नियम्ा से धैर्यरहित जीव को भी मरना पड़ता है। यदि दोनों को मरना ही पड़ता है तब तो धैर्यसहित होकर ही मरना अच्छा है।
भावार्थ—मरण से डरने वाले जीव धैर्य छोड़कर हा-हाकार करते हैं, रोते-धोते हैं तो भी मरते ही हैं, उन्हें मरण से कोई बचा नहीं सकता है और मरने से नहीं डरने वाले धीर-वीर मनुष्य भी मरते ही हैं। पुन: धैर्य धारण कर सन्यास विधि से मरण करना ही अच्छा है ऐसे वीरमरण से तो संसार की परम्परा ही समाप्त हो जाती है और पुन:-पुन: मरना नहीं पड़ता है। इससे विपरीत अधीर होकर मरने से जन्म-मरण की परम्परा बढ़ती ही चली जाती है।
एगो य मरदि जीवो, एगो य जीवदि सयं।
एगस्स जादिमरणं, एगो सिज्झदि णीरयो।।
(नियमसार गाथा-१०१)
यह जीव अकेला मरता है, अरु जन्म अकेला ही पाता।
इक जीव के जन्म-मरण होते, इकला ही मुक्ती में जाता।।
ऐसी एकत्व भावना ही, संसार भ्रमण छुड़वाती है।
पर से ममत्व का भाव हटा, आत्मा का भान कराती है।।
अर्थ—जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्म लेता है। एक जीव के ही यह जन्म-मरण होता है और अकेला ही यह जीव कर्मरहित होता हुआ सिद्धपद प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ—यह एकत्व भावना ही जीव को मुक्ति के मार्ग में लगा देती है और संसार के बन्धन को छुड़ा देती है। इस भावना के द्वारा परिवार से या शिष्यपरिकर से मोह छूटता है तथा शरीर से भी निर्ममता बढ़ती है अत: प्रतिदिन तो क्या, प्रतिक्षण भी इसकी भावना भाते रहना चाहिये।
जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं।
जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं।।
(दर्शनपाहुड़ गाथा-१७)
जिनदेव वचन औषधि स्वरूप, इन्द्रिय सुख त्याग कराती है।
यह है ऐसी अमृतवाणी, जरमरण व्याधि नश जाती है।।
क्या और कहें इस वाणी से, सब दु:खों का क्षय हो जाता।
केवल सुनने से निंह प्रत्युत्, गुनने से ही फल दिलवाता।।
अर्थ—जिनेन्द्रदेव के वचन औषधिस्वरूप हैं। विषय सुखों का विरेचन— त्याग कराने वाले हैं, बुढ़ापा-मरण आदि की पीड़ा को दूर करने वाले हैं तथा समस्त दु:खों का क्षय करने वाले हैं।
भावार्थ—जिनागम के स्वाध्याय से विषय सुखों से वैराग्य होता है, यह ज्ञान ही परम औषधिस्वरूप होने से अमृततुल्य है। जन्म, जरा, मरण आदि को दूर करके संसार के सर्व दु:खों से छुड़ाने वाला है और तत्काल में भी शांति देने वाला है। स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि होती है, मोक्षमार्ग में प्रीति होती है, आत्मा के स्वरूप की पहचान होती है और परिणामों में दृढ़ता आती है।
वरवयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ निरइ इयरेिंह।
छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं।।
(मोक्षपाहुड़ गाथा-२५)
व्रत और तपस्या के द्वारा, स्वर्गादि प्राप्त करना अच्छा।
लेकिन अव्रत और बिना तपस्या, नरक में जाना निंह अच्छा।।
छाया व धूप में खड़े प्रतीक्षक, दो नर में कितना अन्तर।
वैसे ही मोक्ष प्रतीक्षा में, व्रत-अव्रत में भारी अन्तर।।
अर्थ—व्रत और तप के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त करना अच्छा है परन्तु अव्रत और अतप के द्वारा नरक के दु:ख प्राप्त करना अच्छा नहीं है। देखो! छाया और धूप में बैठकर इष्ट पुरुष की प्रतीक्षा करने वालों में बड़ा अन्तर है।
भावार्थ—अणुव्रत, महाव्रत लेकर तथा तपश्चरण आदि करके स्वर्ग को प्राप्त करने वाले अच्छे हैं, किन्तु बिना व्रत और बिना तप के भला नरक जाना कौन चाहेगा ? देखो, किसी मित्र की प्रतीक्षा में एक तो छाया में बैठा है और दूसरा घाम—धूप में बैठा है, दोनों में बहुत अन्तर है। ऐसे ही मोक्ष की प्रतीक्षा करते हुए व्रतादि से स्वर्ग में जाना अच्छा है, अव्रती रहकर नरक आदि दुर्गतियों में नहीं जाना चाहिये।
ण हि आगमेण सिज्झदि, सद्दहणं जदि ण अत्थि अत्थेसु।
सद्दहमाणो अत्थे, असंजदो वा ण णिव्वादि।।
(प्रवचनसार गाथा-२३७)
यदि जीव-अजीवादिक पदार्थ, श्रद्धान न प्राणी करता है।
तो आगमज्ञानमात्र से ही, वह सिद्ध नहीं बन सकता है।।
श्रद्धान पदार्थों का भी यदि, अविरत श्रावक को हो जावे।
तो भी निर्वाण प्राप्त करने में, निंह समर्थता वो पावे।।
अर्थ—यदि जीवाजीवादि का श्रद्धान नहीं है तो मात्र आगम के ज्ञान से ही जीव सिद्ध नहीं हो सकता है अथवा पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ भी यदि असंयत—अव्रती है तो भी निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता है।
भावार्थ—‘‘आगमज्ञानतत्त्वार्थसंयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव।’’ आगम ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयतावस्था इन तीनों के एकसाथ न होने से ‘मोक्षमार्ग’ नहीं बन सकता है, क्योंकि रत्नत्रय में मात्र सम्यग्दर्शन और ज्ञान से मोक्षमार्ग नहीं माना गया है, तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है। सम्यग्दृष्टि अविरति के मोक्षमार्ग के दो ही अवयव हैं इसलिये अविरति को सम्यक्चारित्र ग्रहण करना ही चाहिए।
सूत्तत्थपयविणट्ठो, मिच्छाइट्ठी हु सो मुणेयव्वो।
खेडेवि ण कायव्वं, पाणिप्पत्तं सचेलस्स।।
(सूत्रपाहुड़ गाथा-७)
जो आगम के सूत्रार्थ और, पदज्ञान से विरहित होते हैं।
उनको मिथ्यादृष्टी जानो, वे अज्ञानी ही होते हैं।।
यदि खेल-खेल में भी गृहस्थ, करपात्र में भोजन करते हैं।
वे वस्त्र सहित मुनिचर्या कर, मुनिराज नहीं बन सकते हैं।।
अर्थ—जो मनुष्य सूत्र के अर्थ और पद से रहित है, उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिये। वस्त्र सहित को क्रीड़ा मात्र में भी पाणिपात्र में भोजन नहीं करना चाहिये।
भावार्थ—जो मुनि बनकर भी वस्त्रधारी हैं अथवा गृहस्थ हैं, ऐसे को साधु मानकर खेल-खेल में भी करपात्र में आहार नहीं देना चाहिये। हाँ, मुनियों की चर्या पालने वाली आर्यिकाओं को करपात्र में आहार लेने का विधान है अत: सवस्त्र मुनि का निषेध समझना चाहिये और गृहस्थों को खेल-खेल में भी करपात्र में आहार, केशलोंच करना, पिच्छी आदि लेने की चर्या नहीं करनी चाहिये।