आर्यखंड में एक ब्राह्मण नाम का नगर था। वहाँ एक शांडिल्य नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी भार्या का नाम स्थंडिला था, वह ब्राह्मणी बहुत ही सुन्दर और सर्व गुणों की खान थी। इस दम्पत्ति के बड़े पुत्र के जन्म के समय ही ज्योतिषी ने कहा था कि यह गौतम समस्त विद्याओं का स्वामी होगा। उसी स्थंडिला ब्राह्मणी ने द्वितीय गार्ग्य पुत्र को जन्म दिया था, वह भी सर्वकला में पारंगत था, इन्हीं ब्राह्मण की दूसरी पत्नी केशरी के पुत्र का नाम भार्गव था। इस प्रकार ये तीनों भाई सर्व वेद—वेदांग के ज्ञाता थे। इन तीनों भाइयों के इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नाम भी प्रसिद्ध हैं। वह गौतम ब्राह्मण किसी ब्रह्मशाला में पाँच सौ शिष्यों
का उपाध्याय था। ‘‘मैं चौदह महाविद्याओं का पारगामी हूँ, मेरे सिवाय कोई और विद्वान नहीं है।’’ ऐसा अभिमानी था।
भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट होकर समवसरण की रचना हो चुकी थी किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। ६६ दिन व्यतीत हो गये। तभी सौधर्म इन्द्र ने समवसरण में गणधर का अभाव समझकर अपने अवधिज्ञान से ‘‘गौतम’’ को इस योग्य जानकर वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ गौतमशाला में पहुँचकर कहते हैं—
‘‘मेरे गुरु इस समय ध्यान में होने से मौन हैं अत: मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’’ गौतम ने विद्या के गर्व से गर्विष्ठ हो पूछा—‘‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूंगा तो तुम क्या दोगे ?’’ तब वृद्ध ने कहा—यदि आप इसका अर्थ कर देंगे, तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्यार्थियों और अपने दोनों भाइयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना।’’ महाअभिमानी गौतम ने यह शर्त मंजूर कर ली क्योंकि वह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने यह काव्य पढ़ा—
धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिता: समयैश्च लेश्या:।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै—रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायं।।
तब गौतम ने कुछ देर सोचकर कहा—‘‘अरे ब्राह्मण! तू अपने गुरु के पास ही चल। वहीं मैं इसका अर्थ बताकर तेरे गुरु के साथ वाद—विवाद करूँगा।’’ इन्द्र तो चाहता ही यह था, वह वृद्ध वेधषारी इन्द्र गौतम को समवसरण में ले आया।
वहाँ मानस्तंभ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उसे सम्यक्त्व प्रगट हो गया। गौतम ने अनेक स्तुति करते हुए भगवान् के चरणों को नमस्कार किया तथा अपने पाँच सौ शिष्यों और दोनों भाइयों के साथ भगवान् के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली और अन्तर्मुहूर्त में ही भगवान के प्रथम गणधर हो गये।