रचयित्री—प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
—दोहा—
वंदूँ वीर जिनेन्द्र को, मन वच तन कर शुद्ध।
उनके गणधर शिष्य को, नमूँ हृदय कर शुद्ध।।१।।
श्री गौतम गणधर हुए, गणनायक मुनिराज।
जिनकी वाणी सुन बने, अन्य बहुत मुनिराज।।२।।
उन गणधर भगवान का, चालीसा सुखकार।
है सम्यक् श्रुतज्ञान का, यह भी इक आधार।।३।।
जय हो वीतराग प्रभु वाणी, वीर दिव्यध्वनि जगकल्याणी।१।।
बने नाथ जब केवलज्ञानी, समवसरण रचना के स्वामी।।२।।
दिव्यध्वनी जब खिरी नहीं थी, इन्द्र के मन तब युक्ति हुई थी।।३।।
सोचा प्रभु को शिष्य चाहिए, गणधर पद के योग्य चाहिए।।४।।
तभी दिव्यध्वनि खिर सकती है, सारी जनता सुन सकती है।।५।।
इन्द्र ने अवधिज्ञान से जाना, एक महाज्ञानी पहचाना।।६।।
सुनो उसी ज्ञानी की गाथा, जो वैâसे सम्यक्त्व है पाता।।७।।
मगध देश में ब्राह्मण नगरी, रहते थे वहाँ इक दम्पत्ती।।८।।
था शाण्डिल्य नाम पण्डित का, स्थंडिला नाम पत्नी का।।९।।
गौतम गार्ग्य पुत्रद्वय जनमे, सर्वकला में पारंगत वे।।१०।।
दूजी भार्या नाम केशरी, वह भार्गव सुत की जननी थी।।११।।
इस प्रकार त्रय पुत्र को पाकर, थे शाण्डिल्य प्रसन्न गुणाकर।।१२।।
इनके तीन नाम थे दूजे, जिनसे तीनों ही प्रसिद्ध थे।।१३।।
इन्द्रभूति गौतम को जानो, गार्ग्य को अग्निभूति तुम मानो।।१४।।
भार्गव वायुभूति कहलाया, तीनों में था मान समाया।।१५।।
पाँच शतक शिष्यों का स्वामी, इन्द्रभूति गौतम जगनामी।।१६।।
उनके पास इन्द्र ने जाकर, पूछा एक प्रश्न का उत्तर।।१७।।
वृद्ध वेषधारी का प्रश्न सुन, बोल पड़े आकस्मिक गौतम।।१८।।
तू मुझको निज गुरू के पास में, ले चल वहीं पर करूँगा वाद मैं।।१९।।
इन्द्र को तो यह इन्तजार था, प्रभु ढिग चलने को तैयार था।।२०।।
चले इन्द्र के साथ में गौतम, अपने पाँच शतक शिष्यों संग।।२१।।
राजगृही विपुलाचल ऊपर, राज रहा था समवसरण प्रभु।।२२।।
वहाँ पहुँचते ही गौतम की, सारी मिथ्याभ्रांति हटी थी।।२३।।
तत्क्षण सम्यग्दर्शन पाया, वीर प्रभू को शीश नमाया।।२४।।
बन गये नग्न दिगम्बर मुनिवर, तत्क्षण बने प्रभू के गणधर।।२५।।
हो गये चार ज्ञान के धारी, जय हे भगवन् स्तुती उचारी।।२६।।
वीर की दिव्यध्वनि तत्क्षण ही, खिर गई गणधर के मिलते ही।।२७।।
इन्द्रभूति गौतम गणधर ने, दिव्यध्वनि हृदयंगम करके।।२८।।
द्वादशांग रच दिया शीघ्र ही, उसका ही है अंश आज भी।।२९।।
श्रावण कृष्णा एकम तिथि थी, गणधर पद धारण की शुभ थी।।३०।।
महावीर शासन का शुभ दिन, कृतयुग का माना है प्रथम दिन।।३१।।
ग्रंथ आज उपलब्ध हैं जो भी, प्रभु वाणी के अंश हैं वो भी।।३२।।
है साक्षात भी गौतम वाणी, सुनो भव्यजन जगकल्याणी।।३३।।
कहें ‘‘सुदं मे आउस्संतो’’, तुम भी धारो आयुष्मन्तों।।३४।।
दश अध्यायों में विभक्त है, ज्ञान प्राप्ति हेतू सशक्त है।।३५।।
गणिनी ज्ञानमती माताजी, गणधरवाणी संग्रहकर्त्री।।३६।।
उनने गणधर वर्ष चलाया, जिन आगम का सार बताया।।३७।।
सभी भव्यजन पढ़ो पढ़ाओ, गणधर वाणी को अपनाओ।।३८।।
गौतम गणधर पूजन कर लो, नाम मंत्र भी उनका जप लो।।३९।।
जय जय बोलो प्रभु पद नम लो, सार्थक मानव जीवन कर लो।।४०।।
—शंभु छंद—
यह गौतम गणधर चालीसा, चालिस दिन तक नितप्रति पढ़ना।
हे आयुष्मन्तों ! गणधर की, ऋद्धी का फल सार्थक वरना।।
जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख की प्राप्ती करना।
फिर परम्परा से गणधर पद को, पाकर शाश्वत सुख भरना।।१।।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती, जी की शिष्या चन्दनामती।
श्री गौतमगणधर गणनायक, की स्तुति में यह रची कृती।।
श्री वीर संवत् पच्चीस शतक, आषाढ़ शुक्ल षष्ठी की तिथी।
प्रभु वीर गर्भकल्याणक दिन, गणधर पद अर्पण किया कृती।।२।।
भगवान वीर मंगलमय हों, गौतम गणधर मंगलकारी।
श्री कुन्दकुन्द आचार्य तथा, जिनधर्म सदा मंगलकारी।।
महावीर प्रभू का जिनशासन, जब तक जग में जयशील रहे।
उन शिष्य प्रभू गौतम स्वामी, की वाणी भी जयशील रहे।।३।।