तदा प्रशान्तगम्भीरं स्तुत्वा मुनिभिरर्थित:।
मनो व्यापारयामास गौतमस्तदनुग्रहे१।।८४।।
तत: प्रशान्तसंजल्पे प्रव्यक्तकरकुड्मले।
शुशूषावहिते साधुसमाजे निभृतं स्थिते।।८५।।
वाङ्मलानामशेषाणामपायादतिनिर्मलाम्।
वाग्देवीं दशनज्योत्स्नाव्याजेन स्फुटयन्निव।।८६।।
सुभाषितमहारत्नप्रसारमिव दर्शयन्।
यथाकामं जिघृक्षूणां भक्तिमूल्येन योगिनाम्।।८७।।
लसद्दशनदीप्तांशुप्रसूनैराकिरन् सद:।
सरस्वतीप्रवेशाय पूर्वरङ्गमिवाचरन्।।८८।।
मन:प्रसादमभितो विभजद्भिरिवायतै:।
प्रसन्नैर्वीक्षितै: कृत्स्नां सभां प्रक्षालयन्निव।।८९।।
तपोऽनुभावसंजातमध्यासोनीऽपि विष्टरम्।
जगतामुपरीवोच्चैर्महिम्ना घटितस्थिति:।।९०।।
सरस्वतीपरिक्लेशमनिच्छन्निव नाधिकम्।
तीव्रयन् करणस्पन्दमभिन्नमुखसौष्ठव:।।९१।।
न स्विद्यन्न परिश्राम्यन्नो त्रस्यन्न परिस्खलन्।
सरस्वतीमतिप्रौढामनायासेन योजयन्।।९२।।
सममृज्वायतस्थानमास्थाय रचितासन:।
पल्यज्र्ेन परां कोटीं वैराग्यस्येव४ रूपयन्।।९३।।
करं वामं स्वपर्यंज्र्े निधायोत्तानितं शनै:।
देशनाहस्तमुत्क्षिप्य मार्दवं नाटयन्निव।।९४।।
व्याजहारातिगम्भीरमधुरोदारया गिरा।
भगवान् गौतमस्वामी श्रोतृन् संबोधयन्निति।।९५।।
इस प्रकार मुनियों ने जब बड़ी शान्ति और गम्भीरता के साथ स्तुति कर गणधर महाराज से प्रार्थना की तब उन्होंने उनके अनुग्रह में अपना चित्त लगाया-उस ओर ध्यान दिया।।८४।। इसके अनन्तर जब स्तुति से उत्पन्न होने वाला कोलाहल शान्त हो गया और सब लोग हाथ जोड़कर पुराण सुनने की इच्छा से सावधान हो चुपचाप बैठ गये तब वे भगवान् गौतम स्वामी श्रोताओं को संबोधते हुए गम्भीर मनोहर और उत्कृष्ट अर्थ से भरी हुई वाणी द्वारा कहने लगे। उस समय जो दाँतों की उज्ज्वल किरणें निकल रही थीं उनसे ऐसा मालूम होता था मानो वे शब्द सम्बन्धी समस्त दोषों के अभाव से अत्यन्त निर्मल हुई सरस्वती देवी को ही साक्षात् प्रकट कर रहे हों। उस समय वे गणधर स्वामी ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे भक्तिरूपी मूल्य के द्वारा अपनी इच्छानुसार खरीदने के अभिलाषी मुनिजनों को सुभाषित रूपी महारत्नों का समूह ही दिखला रहे हों। उस समय वे अपने दाँतों के किरणरूपी फूलों को सारी सभा में बिखेर रहे थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो सरस्वती देवी के प्रवेश के लिए रङ्गभूमि को ही सजा रहे हों। मन की प्रसन्नता को विभक्त करने के लिए ही मानो सब ओर पैâली हुई अपनी स्वच्छ और प्रसन्न दृष्टि के द्वारा वे गौतम स्वामी समस्त सभा का प्रक्षालन करते हुए से मालूम होते थे। यद्यपि वे ऋषिराज तपश्चरण के माहात्म्य से प्राप्त हुए आसन पर बैठे हुए थे तथापि अपने उत्कृष्ट माहात्म्य से ऐसे मालूम होते थे मानो समस्त लोक के ऊपर ही बैठे हों।
उस समय वे न तो सरस्वती को ही अधिक कष्ट देना चाहते थे और न इन्द्रियों को ही अधिक चलायमान करना चाहते थे। बोलते समय उनके मुख का सौन्दर्य भी नष्ट नहीं हुआ था। उस समय उन्हें न तो पसीना आता था, न परिश्रम ही होता था, न किसी बात का भय ही लगता था और न वे बोलते-बोलते स्खलित ही होते थे—चूकते थे। वे बिना किसी परिश्रम के ही अतिशय प्रौढ़—गम्भीर सरस्वती को प्रकट कर रहे थे। वे उस समय सम, सीधे और विस्तृत स्थान पर पर्यज्रसन से बैठे हुए थे जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो शरीर द्वारा वैराग्य की अन्तिम सीमा को ही प्रकट कर रहे हों। उस समय उनका बायाँ हाथ पर्यज्र् पर था और दाहिना हाथ उपदेश देने के लिए कुछ ऊपर को उठा हुआ था जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो वे मार्दव (विनय) धर्म को नृत्य ही करा रहे हों अर्थात् उच्चतम विनय गुण को प्रकट कर रहे हों।।८५-९५।।