(१) करोम्यहं—आजकल कुछ साधु-साध्वियां ‘‘कुर्वेऽहं’’ क्रिया को पढ़ने लगे हैं किंतु मुझे यह संशोधन नहीं जँचा है अत: मैंने यहाँ ‘‘करोम्यहं’’ ऐसा आचार्य प्रणीत प्राचीनपाठ ही सर्वत्र रखा है।
सिद्धांतचक्रवर्ती श्रीवीरनंदि आचार्य ने आचारसार ग्रंथ में ‘‘करोम्यहं’’ पाठ ही लिया है। यथा-‘‘क्रियायामस्यां व्युत्सर्गं भक्तेरस्या: करोम्यहं१।’’
अनगार धर्मामृत में पाक्षिक प्रतिक्रमण के लक्षण की स्वोपज्ञटीका में ‘‘करोम्यहं’’ क्रिया का प्रयोग पंद्रह बार आया है। उदाहरण के लिये देखिये—
‘‘सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं पाक्षिकप्रतिक्रमणक्रियायां……. सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं२।’’ इत्यादि।
क्रियाकलाप में देववंदना, दैवसिक प्रतिक्रमण, पाक्षिकप्रतिक्रमण एवं अन्य क्रियाओं की प्रयोगविधि में ‘‘करोम्यहं’’ पाठ ही उपलब्ध है।
चारित्रसार ग्रंथ में भी-‘‘चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्य ……इत्यादि पाठों में ‘‘करोमि’’ क्रिया ही है। ऐसा ही सामायिक भाष्य गं्रथ एवं प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में भी ‘‘करोमि, करोम्यहं’’ पाठ ही उपलब्ध हो रहे हैं। कुल मिलाकर सभी ग्रंथों में इस परस्मैपदी ‘‘करोमि’’ क्रिया ही उपलब्ध हो रही है पुन: इसे बदलकर ‘‘कुर्वेऽहं’’ पाठ क्यों रखा गया? यह विचारणीय है।
(२) ‘‘णाणाणं दंसणाणं चरित्ताणं’ पाठ सामायिक दण्डक में है यहाँ ‘तवाणं’ पाठ बढ़ाया है सो उचित नहीं है देखिये प्रमाण—
‘‘णाणाणमित्यादि—ज्ञानदर्शनचारित्राणां सदा करोमि क्रियाकर्म। गुणानामानन्त्य—संभवेऽपि रत्नत्रयस्य प्राधान्येन मोक्षोपायभूतत्वात्तदेव स्तुतम्।’’
(क्रियाकलाप पृ. १४६)
इससे स्पष्ट है कि ‘तवाणं’ पद मूल में नहीं है। टीकाकारों ने भी नहीं माना है।
(३) ऐसे ‘‘कीरंतं पि ण समणुमणामि’’ पाठ के स्थान पर—
‘‘अण्णं करंतं पि ण समणुमणामि’’ पाठ श्री गौतमस्वामी की कृति में सुधारना सर्वथा अनुचित है।
(४) इसी प्रकार—
‘‘वंदामि रिट्ठणेिंम’’ पाठ ही थोस्सामि स्तव में सर्वत्र मान्य है।
श्रमणचर्या के प्रथम संस्करण में—
‘वंदाम्यरिट्ठणेमिं’ किया है। पुन: द्वितीय संस्करण में ‘‘वंदे अरिट्ठणेिंम’’ किया है।
इस परिवर्तन पाठ को पढ़ना उचित नहीं है।
(५) सामायिक भाष्य में चैत्यभक्ति की अंचलिका की टीका में देखिए—
‘‘अंचेमि अर्चामि। पूजेमि पूजयामि। वंदामि स्तौमि। णमंसामि नमस्यामि प्रणिपतामि।’’ (सामायिक भाष्य पृ. १७५)
टीकाकार ने भी प्राचीन पाठ ही लिया ‘अंचेमि’ आदि। अत:—
श्रमणचर्या में पृ. १०२ पर—
‘‘अच्चेमि पुज्जेमि वंदामि णमस्सामि।’’ पाठ सुधारना कहाँ तक उचित है।
(६) इसी तरह ‘‘सल्लेहणामरणं’’ के अनंतर ‘‘तिदियं अब्भोवस्साणं चेदि’’ पाठ हटाकर ‘‘इच्चेदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि’’ बढ़ाना उचित नहीं है। मूल पाठ जो क्रियाकलाप’ आदि ग्रंथों में चला आ रहा है। उसे ही पढ़ना चाहिये।
ऐसे ही एक पाठ परिवर्तन और है जो कि अतीव विचारणीय है—मूल पाठ है—‘से अभिमदजीवाजीवउवलद्धपुण्णपाव-आसवसंवरणिज्जरबंधमोक्खमहिकुसले।’
अब इसे बदल कर ऐसा पाठ रखा गया है—‘से अभिमदजीवाजीवउवलद्ध-पुण्णपावआसवबंधसंवरणिज्जरमोक्खमहिकुसले।’
मूलपाठ में नवतत्त्वों का क्रम यह था-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष।
परिवर्तित पाठ का क्रम ऐसा हो गया है जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।
विचार करने से यह समझ में आता है कि—इस मूलपाठ के क्रम के अनुसार ही कुंंदकुंददेव ने समयसार में गाथा रखी है—
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।१३।।
और इसी गाथा के क्रम के अनुसार ही श्रीकुंदकुंददेव ने समयसार में अधिकार विभक्त किये हैं। जीवाजीवाधिकार के बाद पुण्य-पापाधिकार है पुन: आस्रव अधिकार, संवर अधिकार, निर्जरा अधिकार लेकर तब बंध अधिकार है इसके बाद मोक्ष अधिकार है।
(८) क्रियाकलाप पृ. श्रमणचर्या पृ.
देवा वि तस्स पणमंति ६६ देवा वि तं णमंसंति ४०
प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी में टीकाकार ने यही क्रियाकलाप वाला पाठ रखकर इसी की टीका की है। जैसे—
‘‘देवा वि तस्स पणमंति-देवा अपि तस्य प्रणमंति।’’ इस प्रकार अनेक संशोधन वर्तमान में किये जा रहे हैं किन्तु विचार करने की बात है कि इन टीकाकार प्रभाचंद्राचार्य तक तो यह प्राचीन पाठ ही प्रमाणभूत माना गया है और श्रीटीकाकार भी प्राकृत-संस्कृत व्याकरण व छंद शास्त्रादि के ज्ञाता अवश्य थे फिर भी उन्होंने यह पाठ नहीं बदला है। आजकल ऐसे ही अनेक संशोधन हुये हैं जो कि हमें इष्ट नहीं हैं।