मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदाद्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम्।।१।।
आज से लगभग २५६४ वर्ष पूर्व श्री इन्द्रभूति ब्राह्मण ने इन्द्र की प्रेरणा से राजगृही में भगवान महावीर के समवसरण के दर्शन किये। मानस्तंभ के दर्शन से ही उनका मान गलित हो गया और वे उसी क्षण सम्यग्दृष्टी बन गये। भगवान के श्रीचरणों में जैनेश्वरी दीक्षा लेते ही उन्हें मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया और वे प्रभु के प्रथम गणधर हो गये। उनका गोत्र गौतम था अत: वे गौतम स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं। इससे पूर्व गणधर के अभाव में भगवान महावीर की दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी। इनके दीक्षा लेते ही प्रभु की दिव्यध्वनि खिरने लगी। उस दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा थी प्रात:काल गौतम स्वामी ने दीक्षा ली, प्रभु की दिव्यध्वनि खिरी। उसी दिन रात्रि में श्री गौतम गणधर देव ने ग्यारह अंग-चौदह पूर्वों की रचना कर दी।
ऋद्धियाँ सात होती हैं-
बुद्धि तवो विय लद्धी, विउव्वणलद्धी तहेव ओसहिया।
रस-वल-अक्सीणा वि य, लद्धीओ सत्त पण्णत्ता१।।
बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि, रस, बल और अक्षीण, इस प्रकार ऋद्धियाँ सात होती हैं।षट्खण्डागम ग्रंथ की नवमी पुस्तक में श्री वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि गणधर देवों के सातों ऋद्धियाँ होती हैं-
बुद्धि-तव-विउवणोसहि-रस-बल-अक्खीण-सुरसरत्तादी।
ओहि-मणपज्जवेहि य, हवंति गणबालया सहिया।
गणधर देव बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि, रस, बल, अक्षीण, सुस्वरत्वादि तथा अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान से सहित हैं।
आज जितना भी जैन वाङ्मय है, वह सब प्रभु की दिव्यध्वनि का ही अंश है।
व्रत की विधि-आषाढ़ शु. १५, गुरुपूर्णिमा को धारण-एकाशन करके श्रावण कृ. १ को उपवास करके भगवान महावीर स्वामी का, श्री गौतम स्वामी की प्रतिमा का एवं सरस्वती देवी की प्रतिमा का या श्रुतस्कंध यंत्र का अभिषेक करके इन तीनों की पूजा करें पुन: गौतम स्वामी का जीवन परिचय पढ़कर सारा दिवस धर्मध्यान में व्यतीत करें।यदि उपवास की शक्ति नहीं हो तो अल्पाहार लेकर व्रत करना, ऐसे यह व्रत सात वर्ष तक करना है।
व्रत की जाप्य–ॐ ह्रीं सप्तर्द्धिसमन्वितश्रीगौतमस्वामिने नम:।
यह श्रावण कृ. १, तभी से लेकर आज तक भी वीरशासन जयंती के नाम से प्रसिद्ध है। जैन शास्त्रों में इसे युगादि दिवस भी माना गया है। इस दिन किया गया व्रत संपूर्ण अमंगल को दूर कर ज्ञान की वृद्धि करने वाला है क्योंकि यह धर्म तीर्थ उत्पत्ति का भी प्रथम दिन है अत: इसे प्रथम देशना दिवस के नाम से भी कहते हैं। श्री गौतम स्वामी के नाम से किया यह व्रत सभी के जीवन में मंगलकारी होगा। व्रत पूर्णकर राजगृही तीर्थ एवं गुणावां तीर्थ की वंदना अवश्य करना चाहिए।
श्री गौतम स्वामी का परिचय-मगध देश में ब्राह्मण नाम के नगर में शांडिल्य नाम के ब्राह्मण की दो पत्नी थीं-स्थंडिला और केशरी। स्थंडिला ने गौतम और गार्ग्य को जन्म दिया तथा केशरी ने भार्गव को जन्म दिया। इन तीनों भाइयों के इन्द्रभूति, अग्निभूति एवं वायुभूति नाम प्रसिद्ध थे। किसी जगह गौतम की जन्मतिथि चैत्र शु. एकम् मानी गई है।भगवान महावीर को केवलज्ञान प्रगट होकर समवसरण की रचना हो चुकी थी, किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। ६६ दिन व्यतीत हो गये, तभी सौधर्म इन्द्र ने समवसरण में गणधर का अभाव समझकर अपने अवधिज्ञान से ‘‘गौतम’’ को इस योग्य जानकर वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ गौतमशाला में पहुँचकर कहते हैं-
‘‘मेरे गुरु इस समय ध्यान में होने से मौन हैं अत: मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’’ गौतम ने विद्या के गर्व से गर्विष्ठ हो पूछा-‘‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूँगा तो तुम क्या दोगे?’’ तब वृद्ध ने कहा-यदि आप इसका अर्थ कर देंगे, तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्यार्थियों और अपने दोनों भाईयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना।’’ महा अभिमानी गौतम ने यह शर्त मंजूर कर ली क्योंकि वह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा-
‘‘धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिता: समयैश्च लेश्या:।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै-रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायं।।’’
तब गौतम ने कुछ देर सोचकर कहा-‘‘ब्राह्मण! तू अपने गुरु के पास ही चल। वहीं मैं इसका अर्थ बताकर तेरे गुरु के साथ वाद-विवाद करूँगा।’’ इन्द्र तो चाहता ही यह था। वह वृद्ध वेषधारी इन्द्र गौतम को समवसरण में ले आया।वहाँ मानस्तंभ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उसे सम्यक्त्व प्रगट हो गया। गौतम ने अनेक स्तुति करते हुए भगवान के चरणों को नमस्कार किया तथा अपने पाँच सौ शिष्यों और दोनों भाईयों के साथ भगवान के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। अन्तर्मुहूर्त में ही इन गौतम मुनि को सातों ऋद्धियाँ, अवधि और मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया तथा वे तीर्थंकर महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हो गये। उत्तर पुराण में लिखा है-
‘‘तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने मेरी पूजा की और मैंने पाँच सौ ब्राह्मण पुत्रों के साथ श्री वर्धमान भगवान को नमस्कार कर संयम धारण किया। परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गईं। तदनन्तर भट्टारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वान्ह काल में समस्त अंगों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। पुन: चार ज्ञान से सहित मैंने रात्रि के पूर्व भाग में अंगों की तथा रात्रि के पिछले भाग में पूर्वों की रचना की, उसी समय से मैं ग्रंथकर्ता हुआ हूँ।’’‘‘जिस दिन भगवान महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त होगा, उसी दिन मैं केवलज्ञान प्राप्त करूँगा।
श्री गौतम स्वामी के मुखकमल से निर्गत चैत्यभक्ति, वीरभक्ति एवं दैवसिक, पाक्षिक मुनि प्रतिक्रमण तथा श्रावक प्रतिक्रमण व गणधरवलय मंत्र अत्यधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हैं।जब भगवान महावीर स्वामी आज से २५३४ वर्ष पूर्व कार्तिक कृ. अमावस्या को प्रात: मोक्ष गये हैं उसी दिन देवों ने मोक्षकल्याणक पूजा कर दीपावली मनायी थी। वहीं पावापुरी में उसी दिन सायंकाल में श्री गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हो गया, अनंतर १२ वर्ष बाद श्री गौतम स्वामी ने गुणावां के जलमंदिर से मोक्ष प्राप्त किया है।
दीपावली के दिन सायंकाल में भगवान महावीर के साथ ही गौतम स्वामी की व केवलज्ञान लक्ष्मी तथा सरस्वती की पूजा करके अगले दिन से वीर निर्वाण का नया संवत् मानकर नव संवत्सर पूजा करना चाहिए।