श्रीचन्द्रप्रभदेवस्त्वं, चंद्रकांतिसमप्रभ:।
श्रीचन्द्रप्रभदेवं त्वां, नमन्ति स्वसुखाप्तये।।१।।
श्रीचन्द्रप्रभदेवेन, मोहध्वांतमपाकृतं।
श्रीचन्द्रप्रभदेवाय, नम: स्वात्मगुणाप्तये।।२।।
श्रीचन्द्रप्रभदेवात् हि, ज्ञानदीधितय: स्फुटा:।
श्रीचन्द्र्रप्रभदेवस्य, भासंते भाक्तिका: भुवि।।३।।
श्रीचन्द्रप्रभदेवेऽहं, दधे नित्यं स्वमानसं।
श्रीचन्द्रप्रभदेव! त्वं, मह्यं देहि स्वसंपदं।।४।।
भव वन में घूम रहा अब तक, किंचित् भी सुख नहिं पाया हूँ।
प्रभु तुम सब दु:ख के ज्ञाता हो, अतएव शरण में आया हूँ।।
सुरपति गणपति नरपति नमते, तव गुणमणि की बहुभक्ति लिए।
मैं भी नत हूँ तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।१।।
काशी में चन्द्रपुरी सुन्दर, रत्नों की वृष्टि खूब हुई।
भू धन्य हुई जन धन्य हुए, पितु-मात के हर्ष की वृद्धि हुई।।
राका शशांक सम कांत तनु, धवलोज्ज्वल कांति यशोधारी।
चिंतित फलदाता चिंतामणि, औ कल्पतरू भी सुखकारी।।२।।
तिथि चैत्रवदी पंचमी कही, औ पौष वदी ग्यारस सुखदा।
फिर पौष वदी ग्यारस उत्तम, औ फाल्गुन वदि सप्तमी शुभा।।
फाल्गुन सुदि सप्तमि ये तिथियाँ, क्रम से पाँचों कल्याणक की।
चन्द्रप्रभ! पंचकल्याणकपति! मुझको दें पंचम सिद्धगती।।३।।
जिस वन में ध्यान धरा प्रभु ने, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहाँ शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कमल खिले लहिए।।
सब जात विरोधी गरुड़ सर्प, मृग सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिन पद चूम रहे।।४।।
महासेन पिता भी पूज्य हुए, जननी लक्ष्मणा पवित्र हुयी।
दशलाख वर्ष पुर्वायू थी, छह सौ करतुंग शरीर सही।।
शशि लांछनयुत भ्रम तम हरते, यश ज्योत्स्ना फैली जग में।
मुझको भी निज संपद देवो, मैं नमूँ सदा तव चरणों में।।५।।