श्री चौबीसों तीर्थंकर ही, भव्यों के शिव पथ नेता हैं।
वे कर्म अचल के भेत्ता हैं, त्रिभुवन के ज्ञाता दृष्टा हैं।।
मैं उनको पुन: पुन: प्रणमूँ, नितप्रति ध्याऊँ औ गुण गाऊँ।
यावत् नहिं सिद्धि मिले तावत्, जिन चरणों में ही रम जाउ।।१।।
चन्द्रप्रभु पुष्पदंत शशि सम, छवि पार्श्व सुपार्श्व हरित तनु हैं।
श्री वासुपूज्य औ पद्मप्रभू, तनु लाल कमल सम सुन्दर हैं।।
नेमी मुनिसुव्रत नीलमणी, जिन सोलह काँचन तनु सुन्दर।
ये वर्ण सहित भी वर्ण सहित, चिन्मूर्ति अमूर्तिक परमेश्वर।।२।।
श्री वासुपूज्य मल्ली नेमी, श्री पार्श्वनाथ महावीर कहे।
ये पाँचों बाल ब्रह्मचारी, मेरे मन में नित वास करें।।
श्री वृषभदेव, जिन वासुपूज्य, नेमी प्रभु पर्यंकासन से।
बाकी सब जिनवर कायोत्सर्ग, आसन से छूटे कर्मों से।।३।।
श्री वृषभदेव अष्टापद से, श्री वासुपूज्य चंपापुरि से।
श्री नेमि ऊर्जयंत गिरि से, महावीर प्रभू पावापुरि से।।
सम्मेदशिखर से बीस प्रभू, तीर्थंकर मुक्ति पधारे हैं।
इन धाम को नित प्रति वंदूँ मैं, ये पावन करने वाले हैं।।४।।
श्री शांति-कुंथु-अर तीर्थंकर, कुरुवंश तिलक त्रिभुवन मणि हैं।
मुनिसुव्रत नेमी यदुवंशी, श्री पार्श्व उग्रकुल के मणि हैं।।
श्री वीरप्रभू नाथवंशी, औ शेष जिनेश्वर भुवि भास्कर।
इक्ष्वाकुवंश चूड़ामणि हैं, हमको होवें अविचल सुखकर।।५।।
जिनवर के पंचकल्याणक से, जन्म स्थल औ मुक्ति स्थल से।
औ मात पिता के नाम सुकीर्तन, से वंशों से चिन्हों से।।
जिन आयु वर्ण तनु ऊँचाई, के वर्णन से चौबिस जिन के।
अगणित गुणगण के कीर्तन से, मैंने स्तुति की बहु रुचि से।।६।।
चौथे युग में जब तीन वर्ष, पन्द्रह दिन औ अठमास बचे।
तब वीर प्रभू कार्तिक मावस, को कर्मनाश शिवधाम बसे।।
अब तक पच्चीस शतक वर्षों, तक शासन चलता आया है।
पच्चीस शतक का उत्सव यह, जन जन ने खूब मनाया है।।७।।
यह उत्सव एक वर्ष तक का, युग युग तक याद दिलाएगा।
श्री वीर प्रभू की वाणी को, सब जन जन में पहुँचाएगा।।
श्री वीर प्रभू का धर्मचक्र, सर्वत्र धर्म की जय करता।
सर्वत्र भ्रमण करके जग में, हर जन जन के सब अघ हरता।।८।।
श्री वीर प्रभू का यह शासन, सब जग में मंगलकारी है।
सब जग में उत्तम मान्य हुआ, सब ही जन को सुखकारी है।।
ये ही शरणं शरणागत को, अतएव सदा जयशाली है।
इच्छित से अधिक भी फलदायी, यह अद्भुत महिमाशाली है।।९।।
इस विधि चौबीसों जिनवर को, मैंने एकाग्रमना होके।
अति भक्ती से स्तुति की है, यह फले अनंतगुणा होके।।
जो भी कल्याण कल्पतरु इस, स्तव को नित प्रति पढ़ते हैं।
वे निश्चित ही ‘‘सज्ज्ञानमती’’ ईप्सित लक्ष्मी को वरते हैं।।१०।।
-दोहा-
वीर अब्द पच्चीस सौ, एक१ महागुण खान।
श्रावण शुक्ला पूर्णिमा, गुरूवार दिन जान।।११।।
शांतिनाथ के जन्म से, पावन शुभ स्थान।
गणिनी ज्ञानमती रचा, यह स्तवन महान।।१२।।
पढ़े सुने जो भाव से, नाशे क्लेश अशेष।
चौबीसों जिनराजवर, मंगल करें हमेश।।१३।।
यावत् जिनशासन रवी, करे जगत उद्योत।
तावत् यह जिनसंस्तवन, करे भविक मन मोद।।१४।।