-दोहा-
अतुल गुणों के तुम धनी, तीर्थंकर नमिनाथ।
मन वच तन से भक्तियुत, नमूँ नमाकर माथ।।१।।
-नरेन्द्र छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, गणधर मुनिगण वंदे।
जय जय समवसरण परमेश्वर, वंदत मन आनंदे।।
प्रभु तुम समवसरण अतिशायी, धनपति रचना करते।
बीस हजार सीढ़ियों ऊपर, शिला नीलमणि धरते।।२।।
धूलिसाल परकोटा सुंदर, पंचवर्ण रत्नों के।
मानस्तंभ चार दिश सुंदर, अतिशय ऊँचे चमकें।।
उनके चारों दिशी बावड़ी, जल अति स्वच्छ भरा है।
आसपास के कुंड नीर में, पग धोती जनता है।।३।।
प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि में, जिनगृह अतिशय ऊँचे।
खाई लताभूमि उपवन में, पुष्प खिलें अति नीके।।
वनभूमी के चारों दिश में, चैत्यवृक्ष में प्रतिमा।
कल्पभूमि सिद्धार्थ वृक्ष को, नमूँ नमूँ अतिमहिमा।।४।।
ध्वजा भूमि की उच्च ध्वजाएँ, लहर लहर लहरायें।
भवनभूमि के जिनबिम्बों को, हम नित शीश झुकायें।।
श्रीमंडप में बारह कोठे, मुनिगण सुरनर बैठे।
पशुगण भी उपदेश श्रवण कर, शांतचित्त वहाँ बैठे।।५।।
सुप्रभमुनि आदिक गुरु गणधर, सत्रह समवसरण में।
मुनिगण बीस हजार वहाँ पे, मगन हुए जिनगुण में।।
गणिनी वहाँ मंगिनी माता, पिच्छी कमण्डलु धारी।
पैंतालीस हजार आर्यिका, श्वेत शाटिकाधारी।।६।।
एक लाख श्रावक व श्राविका, तीन लाख भक्तीरत।
असंख्यात थे देव देवियाँ, सिंहादिक बहु तिर्यक्।।
साठ हाथ तनु दश हजार, वर्षायु देह स्वर्णिम था।
नीलकमल नमिचिन्ह कहाया, भक्ति भवोदधि नौका।।७।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन, जिनवर अधर विराजें।
प्रातिहार्य की शोभा अनुपम, कोटि सूर्य शशि लाजें।।
सौ इन्द्रों से पूजित जिनवर, त्रिभुवन के गुरु मानें।
नमूँ नमूँ मैं हाथ जोड़कर, मेरे भवदु:ख हानें।।८।।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो! चिंतित फल दातार।
‘‘ज्ञानमती’’ सुख संपदा, दीजे निजगुण सार।।९।।
शरणागत के सर्वथा, तुम रक्षक भगवान।
त्रिभुवन की अविचल निधी, दे मुझ करो महान।।१०।।