नेमिनाथो जिनेन्द्रस्त्वं, दीक्षालक्ष्मी: समाश्रित:।
नेमिनाथं नमामि त्वां, यमनियमप्राप्तये।।१।।
नेमिनाथेन लोकेऽस्मिन्, जीवदया प्रदर्शिता।
नेमिनाथाय भक्त्या मे, नमोऽस्तु कोटिकोटिश:।।२।।
नेमिनाथाद् महातीर्थं, ऊर्जयन्तं भुवि श्रुतं।
नेमिनाथस्य भक्ता हि, कृष्णहलभृदादय:।।३।।
नेमिनाथे मनो बद्धं, वरदत्तगणीश्वर:।
हे नेमिनाथ! मां पाहि, यथाख्यातं प्रयच्छ मे।।४।।
यावन्नो प्रभवेच्च नेमिभगवन्! तेंऽघ्रिप्रसादोदय:।
तावद्दु:खमुपैति जीवनिवह:, तावत्सुखं नाश्नुते।।
यावद्भक्तिरतस्य मे नहि भवेद्, दृष्टि:प्रसन्ना प्रभो:।
तावद्धि प्रभवेत् स तापजनको, दुर्वारकर्मोदय:।।१।।
गुणसिन्धोर्जनक: समुद्रविजयो, शौरीपुरीशासक:।
शिवदेव्यां भगवानवाप शिवदं, गर्भागमं मंगलं।।
सुरवृंदैरभिपूजितौ च पितरौ, षष्ठ्यां सिते कार्तिके।
सुरशैले जननोत्सवोऽस्य समभूत्, षष्ठ्यां सिते श्रावणे।।२।।
मुक्त्वा त्वं प्राणिबंधं, किल नभसि१ सिते, षष्ठ्यां जिनपति:।
त्यक्त्वा राजीमतीं च, त्रिदशपतिनुतां, दीक्षाश्रियमित:।।
वैâवल्यश्री: वृणीते, स्वयमपि जिनपं, नीलोत्पलनिभं।
शुक्लाद्ये ह्याश्विनेऽसौ, सकलगुणनिधि:, विध्वस्तमदन:।।३।।
य: शुचौ२ सिते सुसप्तमीतिथौ शिवश्रियं श्रितो जिनोऽस्ति।
जात ऊर्जयंतपर्वत: सुपूज्यतां व्रतैर्युतार्यिकापि।।
सोग्रसेनतुक् महाव्रतैर्गुणैर्भृता किलैकशाटिका च।
मे मन: पुनीहि सततं जिनेश्वरो वसेत् मनोम्बुजे हि।।४।।
भववारिधौ ब्रुडता मया कथमप्यवाप्य सुशर्मदां।
व्रतशीलसंयमसंपदं त्वधुना प्रमाद इहास्तु मा।।
प्रभुनेमिनाथ! प्रयच्छ शांतिमभीप्सितामविनश्वरीं।
प्रणमाम्यहं जिनपुंगवं सितशंखचिन्हसमन्वितम्।।५।।
दशचापसमुत्सेध: सहस्राब्दायुरन्वित:।
सिद्धिकांतापतिर्नेमि:, मे स्यात् सर्वार्थसिद्धये।।६।।
भव वन में भ्रमते-भ्रमते अब, मुझको कथमपि विज्ञान मिला।
हे नेमि प्रभो! अब नियम बिना, नहिं जाने पावे एक कला।।
मैं निज से पर को पृथक् करूँ, निज समरस में ही रम जाऊँ।
मैं मोह ध्वांत को नाश करूँ, निज ज्ञान सूर्य को प्रकटाऊँ।।१।।
शौरीपुर में प्रभु जन्में तक, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
धन धन्य समुद्रविजय राजा, कृतकृत्य शिवादेवी भी थी।।
कार्तिक सुदि छठ के गर्भागम, श्रावण सुदि छट्ठ जन्म लीना।
यौवन में राजमती के संग, परिजन ने ब्याह रचा दीना।।२।।
पशु बंधन को देखा प्रभु ने, तत्क्षण सब बंधन तोड़ दिया।
राजमती मोह परिग्रह तज, तपश्री से नाता जोड़ लिया।।
श्रावण सुदि छट्ठ सुखद प्यारी, सिरसा वन में जा ध्यान धरा।
आश्विन सुदि एकम आते ही, वैâवल्य श्री ने आन वरा।।३।।
तब राजमती भी दीक्षा ले, आर्या में गणिनी मान्य हुईं।
प्रभु ने शिव का पथ दर्शाया, धर्मामृत वर्षा खूब हुई।।
तनु चालिस हाथ प्रमाण कहा, प्रभु आयू एक हजार वर्ष।
वैडूर्य१ मणी सम कांति अहो, प्रभु शंख चिन्ह से हैं चिह्नित ।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन, पर चतुरंगुल से अधर रहें।
चउदिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्मा हैं।।
प्रभु के विहार में चरण कमल, तल स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहु कोसों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।५।।
तरुवर अशोक था शोक रहित, सिंहासन रत्न खचित सुन्दर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहें, ढुरते हैें चौंसठ श्वेत चमर।
सुर पुष्पवृष्टि नभ से बरसें, दिव्यध्वनि पैâले योजन भर।।६।।
आषाढ़ सुदी सप्तमि तिथि थी, प्रभु ऊर्जयंत से सिद्ध हुए।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, तुम पूजें ध्यावें भक्ति लिए।।
हे भगवन्! तुम बाह्याभ्यंतर, अनुपम लक्ष्मी के स्वामी हो।
दो मुझे अनंतचतुष्टय श्री, ‘सज्ज्ञानमती’ सिद्धिप्रिय जो।।७।।
ऋषभदेव से वीर तक चौबीसों भगवंत।
नमूँ अनंतों बार मैं, पाऊँ सौख्य अनंत।।१।।
शांतिनाथ तीर्थेश को, नमूँ अनन्तों बार।
कुंथुनाथ अरनाथ को, नमूँ भक्ति उरधार।।२।।
कुंदकुंद आम्नाय में, गच्छ सरस्वती मान्य।
बलात्कारगण सिद्ध है, उनमें सूरि प्रधान।।३।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाचार्य थे, वीरसागराचार्य।।४।।
देकर दीक्षा आर्यिका, दिया ज्ञानमती नाम।
गुरुवर कृपा प्रसाद से, सार्थ हुआ कुछ नाम।।५।।
वीर अब्द पच्चीस सौ, अड़तालिस जगमान्य।
पूर्णिमा वैशाख सुदि, अतिशायी प्राधान्य।।६।।
तेरहद्वीप रचना यहाँ, बनी विश्व में एक।
चौंतिसवाँ प्रतिष्ठापना१, दिवस आज है श्रेष्ठ।।७।।
इक्कीस सौ सत्ताइस, जिनप्रतिमाएं वंद्य।
जिन प्रतिमाओं को नमूँ, पाऊँ सुख अभिनंद्य।।८।।
मांगीतुंगी तीर्थ पर, ऋषभगिरी शुभ नाम।
ऋषभदेव जिनबिम्ब से, वंद्य हुई अभिराम।।९।।
‘‘ऋषभदेव जिनस्तुती’’, का संकलन महान।
पढ़ो पढ़ावो भक्तगण, पावो सौख्य निधान।।१०।।
परम अहिंसा धर्म है, जब तक जग में मान्य।
जिनप्रतिमा की भक्ति भी, तब तक दे सुख साम्य।।११।।