—शंभु छंद—
पूरब पुष्कर पश्चिमविदेह, सीतोदा नदि के उत्तर में।
हैं नगरि अयोध्या के स्वामी, उनकी रानी देखें सपने।।
धनपति ने माता आंगन में, रत्नों की वर्षा अतिशय की।
हम गर्भ कल्याणक को वंदें, नहिं गर्भवास हो पुन: कभी।।१।।
प्रभु जन्में इंद्रासन कंपे, सुरतरु से स्वयं पुष्प बरसे।
सुरगिरि पर सुरपति ले करके, जन्मोत्सव करके अति हरषे।।
प्रभु नाम ‘नेमिप्रभ’ घोषित कर, माता के आंगन में लाये।
उन वृषभ चिन्ह को मैं वंदूँ, मेरी मन कलियाँ खिल जायें।।२।।
प्रभु वैरागी बन वन पहुँचे, कर केशलोंच जिनदीक्षा ली।
इंद्रों ने अतिशय पूजा की, प्रभु जिनवर मुनिचर्या पाली।।
इस घड़ी प्रभू को हम वंदें, निज दीक्षा का फल मिल जावे।
समकित संयम सुसमाधि मिले, भव भव का भ्रमण विनश जावे।।३।।
उत्कृष्ट ध्यान के बल से प्रभु, घाती कर्मों का घात किया।
वैâवल्यश्री को प्राप्त किया, क्षण में त्रिभुवन साक्षात् किया।।
इंदों ने संख्यातीत देव, देवी सह आकर पूजा की।
प्रभु केवलज्ञान कल्याण नमूँ, सज्ज्ञानज्योति प्रगटे निज की।।४।।
संपूर्ण कर्म को हन करके, प्रभु मुक्तिपुरी को जावेंगे।
उन मोक्षकल्याणक का उत्सव, सुर नर मुनि सभी मनावेंगे।।
मैं मोक्षकल्याणक वंदन कर, अतिशायी पुण्य प्राप्त कर लूँ।
फिर स्वयं अतीन्द्रिय पद पाकर, निज गुण अनंत निज में भर लूँ।।५।।