-गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
त्रैलोक्यपति देवेन्द्र नमित, साधूगण वंद्य सदा जिनवर।
सुख आत्माधीन अचल तव है, स्थान भ्रमण विरहित सुस्थिर।।
तव कीर्तिलता त्रिभुवन व्यापी, औ सिद्धि रमा तव चरणरता।
तव दिव्यसुधावच भव जलधि, से तिरने को उत्तम नौका।।१।।
काकंदी में सुग्रीव पिता, माता जयरामा जग पूजित।
फाल्गुनवदि नवमी के दिन प्रभु, गर्भावतरण मंगल मंडित।।
मगसिर शुक्ला प्रतिपद तिथि थी, जब जन्में थे भगवान यहाँ।
उन पुष्पदंत की दिव्यकथा, हरती है भवभय त्रास महा।।२।।
मगसिर सुदि एकम के प्रभु ने, जिनमुद्रा धर मोहारि हना।
कार्तिक सुदि दूज दिवस केवल-लक्ष्मी ने आन लिया शरणा।।
भादों सुदि अष्टमि के दिन प्रभु, सम्मेदाचल से सिद्ध हुए।
सुखस्वात्मसुधारस पान तृप्त, त्रिभुवन के अग्र विराज गये।।३।।
चउशतकर तुंग मकर लांछन, दो लाख वर्ष पूर्वायु कही।
शशिकांत देह भी पुष्पदंत! अंतक के अन्तक तुम्हीं सही।।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय से, भूषित शिवकांता वरण किया।
मुझ ‘‘ज्ञानमती’’ का भी रत्नत्रय, बस पूर्ण करो मैं शरण लिया।।४।।