-गीता छंद-
श्री पुष्पदंतनाथ जिनेन्द्र त्रिभुवन, अग्र पर तिष्ठें सदा।
तीर्थेश नवमें सिद्ध हैं, शतइन्द्र वंदे सर्वदा।।
चउज्ञानधारी गणपती, प्रभु आपके गुण गावते।
हम सभी यहाँ वंदन करें, प्रभु भक्ति से शिर नावते।।१।।
-रोला छंद-
अहो! जिनेश्वर देव! सोलह भावन भाया।
प्रकृती अतिशय पुण्य, तीर्थंकर उपजाया।।
पंचकल्याणक ईश, हो असंख्य जन तारे।
त्रिभुवन पति नत शीश, कर्म कलंक निवारें।।२।।
नाममंत्र भी आप, सर्वमनोरथ पूरे।
जो नित करते जाप, सर्व विघ्न को चूरें।।
तुम वंदत तत्काल, रोग समूल हरे हैं।
पूजन करके भव्य, शोक निमूल करे हैं।।३।।
इन्द्रिय बल उच्छ्वास, आयू प्राण कहाते।
ये पुद्गल परसंग, इनको जीव धराते।।
ये व्यवहारिक प्राण, इन बिन मरण कहावे।
सब संसारी जीव, इनसे जन्म धरावें।।४।।
निश्चयनय से एक, प्राण चेतना जाना।
इनका मरण न होय, यह निश्चय मन ठाना।।
यही प्राण मुझ पास, शाश्वत काल रहेगा।
शुद्ध चेतना प्राण, सर्व शरीर दहेगा।।५।।
कब ऐसी गति होय, पुद्गल प्राण नशाऊँ।
ज्ञानदर्शमय शुद्ध, प्राण चेतना पाऊँ।।
ज्ञान चेतना पूर्ण, कर तन्मय हो जाऊँ।
दश प्राणों को नाश, ज्ञानमती बन जाऊँ।।६।।
गुण अनंत भगवंत, तब हों प्रगट हमारे।
जब हो तनु का अंत, यह जिनवचन उचारें।।
समवसरण में आप, दिव्यध्वनी से जन को।
करते हैं निष्पाप, नमूँ नमूँ नित तुम को।।७।।
श्रीविदर्भमुनि आदि, अट्ठासी गणधर थे।
दोय लाख मुनि नाथ, नग्न दिगम्बर गुरु थे।।
घोषार्या सुप्रधान, आर्यिकाओं की गणिनी।
त्रय लख अस्सी सहस, आर्यिकाएँ गुणश्रमणी।।८।।
दोय लाख जिनभक्त, श्रावक अणुव्रती थे।
पाँच लाख सम्यक्त्व, सहित श्राविका तिष्ठे।।
जिन भक्ती वर तीर्थ, उसमें स्नान किया था।
भव अनंत के पाप, धो मन शुद्ध किया था।।९।।
चार शतक कर तुंग, चंद्र सदृश तनु सुंदर।
दोय लाख पूर्वायु, वर्ष आयु थी मनहर।।
चिन्ह मगर से नाथ, सब भविजन पहचाने।
नमूँ नमूँ नत माथ, गुरुओं के गुरु माने।।१०।।
दोहा- ध्यानामृत पीकर भये, मृत्युंजय प्रभु आप।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हो, नमत मिटे भव ताप।।११।।