आचार्य जिनसेन सिद्धांत और पुराण के रचयिता अपने समय के एक महान् आचार्य हुए हैं। इन्हें आज ‘‘भगवज्जिनसेनाचार्य’’ एवं इनके महापुराण ग्रंथ को ‘‘आर्षग्रंथ’’ के रूप में मान्यता प्राप्त है।
इनका परिचय, समय, रचनाएँ और इनकी विशेषताएँ किंचित् रूप में यहाँ बताई जा रही हैं।
जीवन परिचय-इन्होंने किस जाति, कुल और देश को विभूषित किया है, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। फिर भी इनका संबंध चित्रकूट के साथ रहने से तथा राजा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित होने से इनका जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमाभूमि को अनुमानित किया जा सकता है।
हाँ, अपने दीक्षित जीवन का परिचय ‘‘जयधवला’’ की प्रशस्ति में स्वयं आचार्य जिनसेन ने अलंकारिक भाषा में दिया है-
‘‘उन वीरसेन स्वामी के शिष्य श्रीमान् जिनसेन हुए, जो कि उज्ज्वल बुद्धि के धारक थे। उनके कान यद्यपि अबिद्ध थे, तो भी ज्ञानरूपी शलाका से बेधे गये थे। निकट भव्य होने के कारण मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने उत्सुक होकर मानो स्वयं ही वरण करने की इच्छा से उनके लिए श्रुतमाला की योजना की थी। जिनने बाल्यकाल से ही अखंडित ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था फिर भी आश्चर्य है कि उन्होंने स्वयंवर की विधि से सरस्वती का उद्वहन किया था। जो न तो बहुत सुन्दर थे और न अत्यन्त चतुर ही, फिर भी सरस्वती ने अनन्यशरणा होकर उनकी सेवा की थी।
बुद्धि, शांति और विनय ये ही जिनके स्वाभाविक गुण थे, इन्हीं गुणों से जो गुरुओं की आराधना करते थे, सो ठीक ही है, गुणों के द्वारा किसकी आराधना नहीं होती ? जो शरीर से कृश थे परन्तु तपरूपी गुणों से कृश नहीं थे। वास्तव में शरीर की कृशता-कृशता नहीं हैं, जो गुणों से कृश है वही कृश है। जिन्होंने न तो कापालिका (सांख्य शास्त्र पक्ष में तैरने का घड़ा) को ग्रहण किया और न अधिक चिन्तन ही किया, फिर भी जो अध्यात्म विद्या के द्वितीय पार को प्राप्त हो गये। जिनका काल निरंतर ज्ञान की आराधना में ही व्यतीत हुआ था और इसीलिए तत्त्वदर्शी उन्हें ज्ञानमय पिण्ड कहते हैं१।
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि इन्होंने बहुत ही छोटी उम्र में दीक्षा ले ली थी। किंवदन्ती भी यही है कि इनका कर्णवेधन संस्कार भी नहीं हुआ था, जब ही ये दिगम्बर मुनि के पास अध्ययन हेतु छोड़ दिये गये थे। इनका सिद्धान्त, काव्य, अलंकार, न्याय, छंद, ज्योतिष, गणित, राजनीति आदि सभी विषय पर पूर्ण अधिकार था जभी इन्होंने स्वयं अपने को सरस्वती को विवाहने वाला कहा है।
इनके गुरु का नाम वीरसेन और दादा गुरु का नाम आर्यनन्दि था। वीरसेन के गुरु भाई जयसेन थे। यही कारण है कि जिनसेन ने अपने आदिपुराण में ‘‘जयसेन’’ का भी गुरू रूप में स्मरण किया है।
समय-जिनसेनाचार्य के समय में राजनैतिक स्थिति सुदृढ़ थी तथा शास्त्र समुन्नति का वह युग था। इनके समकालीन नरेश राष्ट्र कूटवंशी जयतुंग और नृपतुंग अपरनाम अमोघवर्ष थे, जो ईसवी सन् ८१५-८७७ में थे। जयधवला टीका की प्रशस्ति में स्वयं ही आचार्य ने लिखा है कि शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला १० के दिन पूर्वान्ह में यह टीका पूर्ण हुई। अत: ईस्वी सन् की ८वीं शती का उत्तरार्ध ही इनका समय है।
रचनाएँ-१. जयधवला टीका
२. पार्श्वाभ्युदय
३. वर्धमानपुराण
४. आदिपुराण (महापुराण)।
१. जयधवला टीका-वीरसेन स्वामी ने एलाचार्य गुरु के पास सिद्धांत ग्रंथों का अध्ययन करके षट्खण्डागम सूत्रों पर ७२,००० श्लोक प्रमाण से धवला टीका रची और ‘‘कसायपाहुड’’ सुत्त पर ‘‘जयधवला’’ नाम से टीका रचना प्रारंभ की, २०,००० श्लोक प्रमाण टीका रचना कर चुके थे कि वे स्वर्गवासी हो गये। तब उनके सुयोग्य शिष्य भगवज्जिनसेन ने ४०,००० श्लोक प्रमाण में उस ‘‘जयधवला’’ टीका को आगे लिखकर उसे पूर्ण किया। यह टीका श्री वीरसेन स्वामी की शैली में ही संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में मणिप्रवाल न्याय से लिखी गई है। इसी से श्री जिनसेनाचार्य का वैदुष्य और रचनाचातुर्य प्रगट हो रहा है। प्रशस्ति में उन्होंने कहा है कि गुरु के द्वारा ‘‘बहुवक्तव्य’’ पूर्वार्ध के प्रकाशित किये जाने पर मैंने उसको देखकर इस ‘‘अल्पवक्तव्य’’ उत्तरार्ध को पूरा किया है।
२. पार्श्वाभ्युदय-यह कालिदास के मेघदूत काव्य की समस्या पूर्ति है। इस काव्य में सम्पूर्ण मेघदूत समाविष्ट है। पार्श्वनाथ भगवान ध्यान में लीन हैं। कमठचर (शंबर नामक ज्योतिषदेव) उन पर उपसर्ग करता है। यही इस काव्य का विषय है। शृँगार रस से ओतप्रोत मेघदूत को शांतरस में परिवर्तित कर देना, यही इसकी विशेषता है।
इस काव्य की प्रशंसा में श्री योगीराज पंडिताचार्य ने लिखा है कि ‘‘श्री पार्श्वनाथ से बढ़कर कोई साधु, कमठ से बढ़कर कोई दुष्ट और पार्श्वाभ्युदय से बढ़कर कोई काव्य नहीं दिखलाई देता है१।’’ श्री प्रो. के.बी. पाठक ने रॉयल एशियाटिक सोसायटी में कुमारिलभट्ट और भर्तृहरि के विषय में निबंध पढ़ते समय जिनसेन और उनके पार्श्वाभ्युदय के विषय में जो शब्द कहे हैं, वे कितने अच्छे हैं-
‘‘जिनसेन अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्यकाल में हुए हैं, जैसा कि उन्होंने पार्श्वाभ्युदय में कहा है।पार्श्वाभ्युदय संस्कृत साहित्य में एक उत्कृष्ट रचना है। यह उस समय के साहित्य स्वाद का उत्पादकऔर दर्पणरूप अनुपम काव्य है। यद्यपि सर्वसाधारण की सम्मति से भारतीय कवियों में कालिदास को पहला स्थान दिया गया है तथापि जिनसेन मेघदूत के कर्ता की अपेक्षा अधिकतर योग्य समझे जाने के अधिकारी हैं।’’
इस काव्य में एक पंक्ति सूक्ति रूप में बहुत ही सुन्दर है-
‘‘पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव।’’
पापों के नष्ट करने में सर्वप्रथम कारण जिनेन्द्रदेव की भक्ति ही कही गई है।
३. वर्धमानपुराण-हरिवंशपुराण में इसका उल्लेख आया है किन्तु यह अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है।
४. महापुराण-इस महापुराण के पूर्वार्ध को ‘‘आदिपुराण’’ एवं उत्तरार्ध को उत्तरपुराण कहते हैं। पूर्वार्ध आदिपुराण में ४७ पर्व हैं जिनमें प्रारंभ के ४२ पर्व और तेंतालीसवें पर्व के मात्र ३ श्लोक जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं। शेष पर्वों के १६२० श्लोक उनके शिष्य भदंत गुणभद्राचार्य द्वारा विरचित हैं।
इस पुराण को महापुराण नाम क्यों दिया है ? इसके लिए श्री जिनसेनाचार्य ने कहा है-
‘‘यह ग्रंथ अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रचलित है इसलिए ‘‘पुराण’’ (पुराना) कहलाता है। इसमें महापुरुषों का वर्णन किया गया है अथवा तीर्थंकर आदि महापुरुषोें ने इसका उपदेश दिया है अथवा इसके पढ़ने से महान कल्याण की प्राप्ति होती है इसीलिए इसे ‘‘महापुराण’’ कहते हैं। यह ग्रंथ ऋषिप्रणीत होने से ‘‘आर्ष’’ सत्यार्थ का निरूपक होने से ‘‘सूक्त’’ तथा धर्म का प्ररूपक होने से धर्मशास्त्र माना जाता है ‘‘इति इह आसीत्’ यहाँ ऐसा हुआ, ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने से ऋषिगण इसे ‘‘इतिहास’ ‘‘इतिवृत्त’’ और ‘‘ऐतिहासिक’’ भी कहते हैं१।’’
यह महापुराण अनेक सूक्तियों की उत्पत्ति का स्थान-रत्नाकर है, ऐसा स्वयं इसमें वर्णित है-
यथा महार्घ्यरत्नानां प्रसूतिर्मकरालयात्।
तथैव सूक्तरत्नानां प्रभवोऽस्मात्पुराणत:२।।
जिस प्रकार महामूल्यवान् रत्नों की उत्पत्ति समुद्र से होती है, उसी प्रकार सुभाषित रूपी रत्नों की उत्पत्ति इस पुराण से होती है।
इस महापुराण ग्रंथ में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण और ९ बलभद्र ऐसे ६३ महापुरुषों का जीवन संग्रहीत है।
इसकी काव्यछटा, अलंकार, गुम्फन, प्रसाद, ओज और माधुर्य का अपूर्व सुमेल, शब्दचातुरी और बंध अपने ढंग के अनोखे हैं। भारतीय साहित्य के कोशागार में जो इने-गिने महान् ग्रंथरत्न हैं, उनमें स्वामी जिनसेन की यह कृति महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
डॉ. नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य लिखते हैं-
‘‘यह आर्ष ग्रंथ है, पुराण होते हुए भी इसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति, समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि विषय भी समाविष्ट हैं।’’
इस महापुराण के पूर्वार्ध में भगवान आदिनाथ प्रथम तीर्थंकर और भरत सम्राट् प्रथम चक्रवर्ती का सविस्तार वर्णन है। प्रसंगानुसार प्रथम कामदेव श्री बाहुबलि और जयकुमार (सेनापति) का भी सुन्दर जीवनवृत्त वर्णित है। उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बलभद्र इनका जीवन परिचय वर्णित है।
एक कथा प्रसिद्ध है कि जब जिनसेन स्वामी को इस बात का विश्वास हो गया कि अब मेरा जीवन समाप्त होने वाला है और मैं महापुराण को पूरा नहीं कर सकूगा। तब उन्होंने अपने सबसे योग्य दो शिष्य बुलाए। बुलाकर उनसे कहा कि ‘‘यह जो सूखा वृक्ष सामने खड़ा है, इसका काव्यवाणी में वर्णन करो।’’ गुरु वाक्य सुनकर उनमें से पहले ने कहा, ‘‘शुष्कं काष्ठं तिष्ठत्यग्रे’’ फिर दूसरे शिष्य ने कहा ‘‘नीरस तरुरिह विलसति पुरत:।’’ गुरु को द्वितीय शिष्य की वाणी में रस दिखा, अत: उन्होंने उसे आज्ञा दी कि तुम महापुराण को पूरा करो। गुरु आज्ञा के अनुसार द्वितीय शिष्य ने उस महापुराण को पूर्ण किया, वे द्वितीय शिष्य ही गुणभद्र नाम से भी प्रसिद्ध हैं।
डॉ. नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य लिखते हैं-
‘‘वास्तव में वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र इन तीनों आचार्यों का साहित्यिक व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय है और तीनों एक-दूसरे के अनुपूरक हैं। वीरसेन के अपूर्ण कार्य को जिनसेन ने पूर्ण किया है और जिनसेन के अपूर्ण कार्य को गुणभद्र ने।’’
इस महापुराण में एक प्रकरण वर्णव्यवस्था का, जिस विषय पर कुछ विद्वानों में अर्थ करने में मतभेद चल रहा है, उसके विषय में भी यहाँ समझ लेना आवश्यक है।
जब कल्पवृक्ष नष्ट होने लगे, तब प्रजा ने आकर प्रभु से प्रार्थना की, उस समय भगवान् वृषभदेव प्रजा को आश्वासन देकर सोचते हैं कि-
पूर्वापरविदेहेषु या स्थिति: समवस्थिता।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमू: प्रजा:।।१४३।।
षट्कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थिति:।
यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्यायाश्च पृथग्विधा:१।।१४४।।
पूर्व और पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करना चाहिए, उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जिस प्रकार असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की व्यवस्था है और जैसी ग्राम, घर आदि की पृथक्-पृथक् रचना है, वैसी यहाँ पर भी होनी चाहिए।
भगवान उसी समय इन्द्र का स्मरण करते हैं और वह आकर प्रभु की आज्ञानुसार सारी व्यवस्था कर देता है।
इस कथन से यह स्पष्ट है कि विदेह क्षेत्रों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था अनादि है और यहाँ पर युगादिपुरुष प्रथम द्वारा बनाई जाने से यद्यपि सादि है तथापि मान्य है अमान्य नहीं है।
जिन पंक्तियों के अर्थ में मतभेद है, अब उन्हें देखिए-
कृत्वादित: प्रजासर्गं तद्वृत्ति-नियमं पुन:।
स्वधर्मानतिवृत्त्यैव नियच्छन्नन्वशात् प्रजा:।।२४२।।
स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभु:।
क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रिया: शस्त्रपाणय:।।२४३।।
ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्रामस्राक्षीद् वणिज: प्रभु:।
जलस्थलादियात्राभिस्तद् वृत्तिर्वार्त्तया यत:।।२४४।।
न्यग्वृत्तिनियतां शूद्रां पद्भ्यामेवासृजत् सुधी:।
वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तद्वृत्तिर्नैकधा स्मृता।।२४५।।
मुखतोऽध्यापयन् शास्त्रं भरत: स्रक्ष्यति द्विजान्।
अधीत्यध्यापने दानं प्रतिच्छेज्येति तत्क्रिया:।।२४६।।
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या तां स्वां च नैगम:।
वहेत् स्वां ते च राजन्य: स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ता:।।२४७।।
स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत्।
स पार्थिवैर्नियन्तव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा।।२४८।।
भगवान् ने सबसे पहले प्रजा की सृष्टि (विभाग आदि) की, पुन: उसकी ‘‘वृत्ति’’ अर्थात् आजीविका के नियम बनाये पुन: वे अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लंघन न कर सकें, ऐसे नियम बनाये।
आगे २४३ से २४७ तक चार श्लोकों का अभिप्राय यह है कि भगवान ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की रचना की, आगे भरत ब्राह्मण वर्ण की व्यवस्था बनाएंगे।
पुन: २४७वें श्लोक में कहते हैं कि शूद्र के द्वारा अपनी शूद्र वृत्ति आजीविका का वहन किया जाना चाहिए अर्थात् शूद्र अपनी शूद्र वृत्ति को करे अन्य आजीविका न करे। वैश्य अपनी वैश्य की आजीविका करे और शूद्र की आजीविका सेवा शुश्रूषारूप कार्य कर सकता है। क्षत्रिय अपनी आजीविका करे और कदाचित् शूद्र तथा वैश्य की आजीविका भी कर सकता है और ब्राह्मण अपनी आजीविका करे कदाचित् किसी देशकाल आदि में वह शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय इनकी आजीविका भी कर सकता है।।२४७।।
अपनी इस वृत्ति-आजीविका का उल्लंघन करके जो अन्य की वृत्ति-आजीविका को करता है तो वह राजाओं द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए, अन्यथा वर्णसंकर दोष हो जाएगा।
पण्डित सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर आदि आर्ष परम्परा के विद्वान् ऐसे ही अर्थ मान्य करते थे और यही अर्थ मुझे समझ में आता है किन्तु पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ‘‘आदिपुराण’’ हिन्दी अनुवाद में उस २४७ श्लोक के पहले के सभी श्लोकों में आये हुए वृत्ति शब्द का अर्थ आजीविका करके २४८वें श्लोक के वृत्ति शब्द का अर्थ भी आजीविका करते हैं। मात्र मध्य के इस २४७ वें श्लोक का अर्थ आजीविका से संबंधित न करके विवाह अर्थ कर देते हैं-कि शूद्र-शूद्र स्त्री के साथ विवाह करे, वैश्य-वैश्य स्त्री एवं शूद्र स्त्री के साथ विवाह करे आदि, जो कि उपयुक्त नहीं लगता है, यदि आचार्य जिनसेन को इस श्लोक में विवाह अर्थ रखना था, तो वे स्वयं २४८वें श्लोक में ऐसा क्यों कहते कि ‘‘स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य’’ अपनी इस आजीविका का उल्लंघन कर इत्यादि। इसलिए ‘‘वोढव्या’’ में वह् धातु का अर्थ विवाह न होकर आजीविका अर्थ ही सुुघटित है। व्याकरणाचार्य विद्वानों को आगे और पीछे के संदर्भ से ही अर्थ करना चाहिए, बिना संदर्भ के नहीं।
त्रिलोकसार आदि अन्य ग्रंथों में भी ‘‘जातिसंकर’’ दोष आया है अत: विद्वानों को आर्ष परम्परा एवं आगे-पीछे के संदर्भ के अनुसार ही अर्थ करना चाहिए।
इस प्रकार वर्ण व्यवस्था आदि को बतलाने वाला यह पुराण आर्ष ग्रंथ है। इसी के अनुसार पापभीरू श्रावकों को अपनी प्रवृत्ति करनी चाहिए।