जिन काम मोह यमराज मल्ल, तीनोें को जीत विजेता हैं।
वे मल्लिजिनेश्वर मेरे भी, दुष्कर्म मल्ल के भेत्ता हैं।।
मिथिला नगरी के कुंभराज, औ प्रजावती मंगलकारी।
शुभ चैत्र सुदी एकम के दिन, था हुआ गर्भ मंगल भारी।।१।।
मगसिर सुदि ग्यारस में प्रभु को, सुरशैल शिखर पर ले जाके।
सुरदेवी सह इंद्रादिकगण, अभिषेक किया गुण गा-गा के।।
मगसिर सित ग्यारस दीक्षा ली, वदि पौष दूज ध्यानाग्नि जला।
सब घाति कर्म को भस्म किया, उस ही क्षण ज्ञान प्रभात खिला।।२।।
सौ हाथ देह काँचन कांती, थिति पचपन सहस वर्ष जानो।
मल्लिका कुसुम सम सुरभिततनु, शुभ कलश चिन्ह से पहचानो।।
फाल्गुन सित पंचमि तिथि आई, सम्मेदगिरी पर ध्यान धरा।
पंचमगति की लक्ष्मी आई, उसने प्रभु को था स्वयं वरा।।३।।
हे मल्लि प्रभो! मेरे त्रय विध, मल को हरिए निर्मल करिए।
मुरझाई सुखवल्ली मेरी, वचनामृत से पुष्पित करिये।।
मैं परमानंद सुखामृत के, झरने का अनुभव प्राप्त करूँ।
वैâवल्य ज्ञानमति पूर्ण करो, निज का आह्लाद विकास करूँ।।४।।