—शंभु छंद—
विद्युन्माली पूरब विदेह, सीतानदि के दक्षिण दिश में।
विजया नगरीपति देवराज हैं, जनक उमा माता सच में।।
प्रभु ‘‘महाभद्र’’ गर्भावतार, धनपति ने रत्नवृष्टि की थी।
मैं वंदूँ गर्भकल्याणक नित, पा जाऊँ जिनगुण संपत्ती।।१।।
प्रभु जन्म हुआ सुरपति गृह में, स्वयमेव वाद्य सब बाज उठे।
इंद्रों के मुकुट झुके तत्क्षण, सुरतरु से विविध सुमन बरसे।।
सौधर्म इंद्र ने मेरू पर, प्रभु जन्मकल्याणक न्हवन किया।
प्रभु जन्मकल्याणक नमते ही, संपूर्ण दुखों का शमन किया।।२।।
प्रभु ने कचलोंच किया विधिवत्, जैनेश्वरि दीक्षा ग्रहण किया।
उग्रोग्र तपस्या कर करके, भव्यों का मार्ग प्रशस्त किया।।
प्रभु का जो तप कल्याण नमें, निर्विघ्न मोक्षपथ पाते हैं।
हम भी प्रभु तपकल्याणक की, भक्ती करके हरषाते हैं।।३।।
प्रभु महाभद्र तीर्थंकर को, जब केवलज्ञान प्रकाश मिला।
त्रिभुवन में भी आनंद हुआ, सब जनता का मन कमल खिला।।
प्रभु कमलासन पर अधर रहें, भव्यों को नित संबोध रहें।
मैं वंदूँ ज्ञानकल्याणक नित, प्रकटित हो ज्ञानज्योति हृदये।।४।।
शशि चिन्ह से प्रभु को पहचानो, संप्रति ये समवसरण में हैं।
सिद्धीकन्या को पायेंगे, निश्चित यह आगम वर्णित है।।
इनके निर्वाणकल्याणक को, हम वंदन नितप्रति करते हैं।
भावी सिद्धों का अर्चन कर, संपूर्ण अमंगल हरते हैं।।५।।