—गीता छंद—
मेरू सुदर्शन पूर्व क्षेत्र विदेह में दक्षिण दिशी।
विजया नगरि दृढ़रथ पिता माता सुतारा ने निशी।।
शुभ स्वप्न सोलह देखकर हर्षितमना पतिदेव से।
फल पूछतीं प्रभु गर्भकल्याणक नमूँ अति भक्ति से।।१।।
श्री आदि देवी मात की सेवा करें अति भक्ति से।
अति गूढ़ करतीं प्रश्न वे उत्तर दिया माँ युक्ति से।।
प्रभु जन्मते ही इन्द्रगण अति हर्ष से उत्सव किया।
सौधर्म सुरपति ने सुमेरू पर न्हवन विधिवत् किया।२।।
वैराग्य प्रभु का जानकर देवर्षि सुरगण आ गये।
शुभ पालकी में बिठाकर उद्यान सुन्दर ले गये।।
सम्पूर्ण परिग्रह छोड़कर प्रभु ने स्वयं दीक्षा लिया।
मनपर्ययी ज्ञानी हुये शुभ ध्यान आत्मा का किया।।३।।
प्रभु शुक्लध्यान प्रभाव से चउ घातिया का क्षय किया।
वैâवल्य लक्ष्मी प्राप्त कर छ्यालीस गुण प्रगटित किया।।
जिन समवसृति में अधर राजें इंद्र शत मिल पूजते।
हम भी नमें वैâवल्य संपति प्राप्ति हेतू भक्ति से।।४।।
गजचिन्हधारी नाथ ‘युगमंधर’ अघाती घात के।
निर्वाण पद को पायेंगे मैं जजूँ कर द्वय जोड़ के।।
ये प्रभू संप्रति राजते सुविदेह जम्बूद्वीप में।
जो भक्ति से नित वंदते वे दर्श प्रभु का पायेंगे।।५।।