(पंडित सदासुख जी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार की वचनिका हिन्दी टीका में दोनों पंथों को आगम सम्मत माना है और अपनी-अपनी रुचि अनुसार दोनों को पूजा करने के लिए कहा है।)
इहां ऐसा विशेष और जानना जो जिनेन्द्र के पूजन समस्त च्यार प्रकार के देव तो कल्पवृक्षनितैं उपजे गन्ध, पुष्प, फलादि सामग्री करि पूजन करै हैं अर सौधर्म इन्द्रादिक सम्यग्दृष्टि देव हैं ते तो जिनेन्द्र की भक्ति पूजन स्तवन करके ही अपनी देवपर्यायवंâू सफल मानैं। अर मनुष्यनिमें चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्रादिक राजेन्द्र हैं ते मोतीनिके अक्षत रत्ननिके पुष्प, फल, दीपकादिक तथा अमृतिंपडादिकरि जिनेन्द्र का पूजन स्तवन नृत्य गानादिककरि महापुण्य उपार्जन करै हैं। अर अन्य मनुष्यिनमें हूँ जिनके पुण्य के उदयतैं सम्यक् उपदेश के ग्रहणतैं जिनेन्द्र के आराधना में भक्ति उत्पन्न होय ते समस्त जाति, कुल के धारक यथायोग्य पूजन करैं हैं। समस्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अपना-अपना सामर्थ्य अपना-अपना ज्ञान, कुल, बुद्धि, सम्पदा, संगति देश-काल के योग्य अनेक स्त्री-पुरुष नपुंसक धनाढ्य निर्धन सरोग नीरोग जिनेन्द्र का आराधना करें हैं। केई ग्राम निवासी हैं, केई नगरनिवासी हैं, केई वननिवासी हैं, केई अति छोटे ग्राम में बसने वाले हैं तिन में केई तो अतिउज्ज्वल अष्टप्रकार सामग्री बनाय पूजन के पाठ पढ़िकरि पूजन करैं हैं केई कोरा सूका जव, गेहूं, चना, मक्का, बाजरा, उड़द, मूंग, मोठ इत्यादिक धान्य की मूठी ल्याय जिनेन्द्र को चढ़ावै हैं केई रोटी चढ़ावै हैं, केई राबड़ी चढ़ावें हैं, केई अपनी बाड़ीतैं पुष्प ल्याय चढ़ावें है केई नाना प्रकार के हरित फल चढ़ावें हैं केई जल च़ढ़ावें हैं। केई दाल, भात अनेक व्यंजन चढ़ावै हैं, केई नाना मेवा चढ़ावै हैं, केई मोतीनिके अक्षत माणिकनिके दीपक सुवर्ण रूपानिके तथा पंचप्रकार रत्ननि करि जड़े पुष्प फलादि चढ़ावैं हैं केई दुग्ध केई दही केई घृत चढ़ावें हैं, केई नाना प्रकार के घेवर, लाड़ू, बरफी, पूड़ी, पूवा इत्यादिक चढावैं हैं, केई वंदना मात्र ही करै हैं, केई स्तवन केई गीत नृत्य वादित्र ही करैं, केई अस्पर्श्य शूद्रादिक मंदिर के बाह्य ही रहि मंदिर के शिखर की तथा शिखरनि में जिनेन्द्र के प्रतिबिंब का ही दर्शन वन्दना करें हैं। ऐसे जैसा ज्ञान जैसी संगति जैसी सामर्थ्य जैसी धन सम्पदा जैसी शक्ति तिस प्रमाण देशकाल के योग्य जिनेन्द्र का आराधक मनुष्य हैं ते वीतराग का दर्शन स्तवन पूजन वन्दनाकरि भावनिके अनुकूल उत्तम, मध्यम, जघन्य पुण्य का उपार्जन करे हैं। यो जिनेन्द्र का धर्म, जाति, कुल के अधीन नाहीं, धनसम्पदा के अधीन नाहीं वाह्यक्रिया के अधीन नाहीं है। अपने परिणामनिकी विशुद्धता के अनुकूल फलै है। कोऊ धनाढ्य-पुरुष अभिमानी होय यश का इच्छुक होय मोतीनिके अक्षत माणिकानिके दीपक रत्नसुवर्ण के पुष्पनिकरि पूजन करै है अनेक वादित्र नृत्यगान करि बड़ी प्रभावना करें हैं तो हू अल्प उपार्जन करैं, वा अल्प हू नाहीं करै, केवल कर्म का बंध हो करै हेैं कषायनिके अनुकूल बंध होय है। केई अपने भावनिकी विशुद्धतातैं अति भक्तिरूप हुआ कोऊ एक जल फलादि करि वा अन्नमात्र करि वा स्तवनमात्रकरि महापुण्य उपार्जन करै हैं तथा अनेक भवनिके संचय किये पाप कर्म की निर्जरा करै हैं, धनकरि पुण्य मोल नाहीं आवै है। जे निर्वांछक हैं मन्दकषायी, ख्याति लाभ पूजादिकूं नाहीं बांछा करता केवल परमेष्ठी का गुणां में अनुरागी हैं तिनके जिनपूजन अतिशयरूप फलकूं फलै है।
अब यहां जिन पूजन सचित्त द्रव्यनितैं हु अर अचित्तद्रव्यनितैं हू आगम में कहया है जे सचित्त के दोषतैं भयभीत हैं। यत्नाचारी हैं ते तो प्रासुक जल गन्ध अक्षतकूं चन्दन कुंकुमादिकतैं लिप्त करि सुगंध रंगीन में पुष्पनिका संकल्पकरि पुष्पनितैं पूजैं है तथा आगम में कहे सुवर्ण के पुष्प वा रूपा के पुष्प तथा रत्नजटित सुवर्ण के पुष्प तथा लवंगादिक अनेक मनोहर पुष्पनिकरि पूजन करै हैं अरु प्रासुक ही बहु आरम्भादिक रहित प्रमाणीक नैवेद्य करि पूजन करै है। बहुरि रत्ननि के दीपक वा सुवर्ण रूपामय दीपकनि करि पूजन करै हैं तथा सचिक्कणद्रव्यनिके केसर के रंगादितैं दीप का संकल्पकरि पूजन करैं हैं तथा चन्दन अगरादिकूं चढ़ावै हैं तथा बादाम, जायफल, पूूंगीफलादिक अवधि शुद्ध प्रासुक फलनितैं पूजन करै हैं ऐसैं तो अचित्त द्रव्यनिकरि पूजन करै हैं। बहुरि जे सचित्त द्रव्यनितैं पूजन करै हैं ते जल, गन्ध, अक्षतादि उज्ज्वल द्रव्यनिकरि पूजन करै हैं अर चमेली, चंपक, कमल, सोनजाई इत्यादिक सचित्त पुष्पनितैं पूजन करै है घृतका दीपक तथा कपूरादिक दीपकनिकरि आरती उतारै हैं अर सचित्त आम, केला, दाडिमादिक फलकरि पूजन करै हैं धूपायनि में धूपदहन करै हैं ऐसे सचित्त द्रव्यनिकरि हू पूजन करिये हैं दोऊ प्रकार आगम की आज्ञा-प्रमाण सनातन मार्ग है अपने भावनि के अधीन पुण्य बंध के कारण है।
यद्यपि आगम में बीसपंथ से प्रचलित मान्यता के प्रमाण मौजूद हैं तेरापंथ के नहीं हैं फिर भी आज के युग में ईर्ष्या, द्वेष, भाव छोड़कर धर्मसहिष्णुता को धारण करते हुये बीसपंथियों को मिथ्यादृष्टि नहीं कहना चाहिए।तेरापंथ-तेरापंथी की उत्पत्ति कब और वैâसे हुयी? इसके लिए आप पढ़ें पं. बनारसीदास द्वारा लिखित स्वकथा जो कि ‘अर्धकथानक’ नाम से छपी है। इसमें विक्रम संवत् १६७५ में तेरहपंथ की स्थापना मानी है।