अथ स्थापना—नरेन्द्र छंद
श्री शांतिनाथ का समवसरण, सुन्दर मणिरत्नों का।
सौ इन्द्रों से वंदित प्रभुवर, उन भक्ती भवनौका।।
ऐसे प्रभु का आह्वानन कर, अतिशय शांती पाऊँ।
जन्म मरण के दु:ख से छूटूँ, जिनगुणसंपद् पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टकं (नरेन्द्र छंद)
नंदा वापी का निर्मल जल, कंचन भृंग भराऊँ।
श्री जिनवर के चरण कमल में, धारा तीन कराऊँ।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्य गुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।१।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर घिस, गंध सुगंधित लाऊँ।
जिनवर चरण कमल में चर्चूं, निजानंद सुख पाऊँ।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्य गुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।२।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल तंदुल ले, तुम ढिग पुंज रचाऊँ।
अमल अखंडित सुख से मंडित, निज आतम पद पाऊँ।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्य गुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।३।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण की लताभूमि से, सुरभित पुष्प चुनाऊँ।
जिनवर चरण कमल में अर्पूं, निजगुण यश विकसाऊँ।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्य गुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।४।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतपिंड सदृश चरु ताजे, घेवर मोदक लाऊँ।
जिनवर आगे अर्पण करते, सब दुख व्याधि नशाऊँ।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्य गुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।५।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृप दीपक में ज्योति जलाकर, करूँ आरती भगवन्।
निज घट का अज्ञान दूर हो, ज्ञान ज्योति उद्योतन।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्यगुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।६।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपद-समन्वितश्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगरु तगर चंदन से मिश्रित, धूप सुगंधित लाऊँ।
अशुभ कर्म को दग्ध करूँ मैं, अग्नी संग जलाऊँ।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्य गुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।७।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेब आम अंगूर सरस फल, लाके थाल भराऊँ।
जिनवर सन्निध अर्पण करते, परमानंद सुख पाऊँ।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्य गुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।८।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमावलि, आदिक अर्घ बनाऊँ।
उसमें रत्न मिलाकर अर्पूं, तीन रत्न निज पाऊँ।।
समवसरण का अतिशय वैभव, त्रिभुवन जन मनहारी।
अंतरंग आनन्त्य गुणों को, पूजूँ शिवसुखकारी।।९।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपदसमन्वित- श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
शांतीधारा मैं करूँ, जिनवर पद अरविंद।
आत्यंतिक शांति मिले, प्रगटे सौख्य अनिंद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
लाल श्वेत पीतादि बहु, सुरभित पुष्प गुलाब।
पुष्पाँजलि से पूजते, हो निजात्म सुख लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणविभूतिसहिताय श्रीशांतिनाथाय नम:।
—दोहा—
स्वात्म सुधारस सौख्यप्रद, परमाह्लाद करंत।
गाऊँ जिनगुणमालिका, हो मुझ शांति अनंत।।१।।
—स्रग्विणी छंद—
मैं नमूँ मैं नमूँ सर्व तीर्थेश को।
सर्व जिनबिंब युत सर्व जिनगेह को।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।२।।
जिन समोसर्ण में सर्व मन मोहती।
चैत्यप्रासाद भू चौतरफ शोभती।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।३।।
चउदिशी वीथि में नाट्यशाला बनी।
दो तरफ दोय दो नृत्य से सोहनी।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।४।।
एक इक में बतीसों हि रंगभूमियाँ।
एक इक में बतीसों भवन देवियाँ।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।५।।
नृत्य करती हुई नाथ गुण गावतीं।
पुष्प अंजलि बिखेरंत मन भावतीं।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।६।।
एक इक जिनभवन शिखर से तुंग हैं।
उन सभी बीच सुरमहल पण पंच हैं।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।७।।
देवघर बावड़ी उपवनों युक्त हैं।
देव क्रीड़ा करें नाथ पद भक्त हैं।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।८।।
दोय दो धूप घट दो तरफ शोभते।
धूप खेवें सभी पाप मल धोवते।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।९।।
धन्य यह शुभ घड़ी धन्य है धन्य है।
धन्य मेरा जनम आप पद वंद्य है।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।१०।।
आप पद पूजते सर्व विपदा टलें।
सर्व इच्छित फलें सर्व संपत् मिले।।
नाथ मेरी सुनो एक ही प्रार्थना।
फेर होवे न संसार में आवना।।११।।
—दोहा—
भक्तों के वत्सल तुम्हीं, करुणासिंधु जिनेश।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हो, फेर न मांगूं लेश।।
ॐ ह्रीं षोडशतीर्थंकरपंचमचक्रवर्तिद्वादशकामदेवपद-समन्वितसमवसरणविभूतिसहिताय श्रीशांतिनाथाय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पाँजलि:।
—गीता छंद—
जो समवसृति की अर्चना, श्री शांति जिनवर की करें।
वे पूर्ण शांती प्राप्त कर, नवलब्धि केवल को धरें।।
संसार भ्रमण समाप्त करके, सिद्धिकन्या वश करें।
सुज्ञानमति रवि किरण से, भविजन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।