(श्री समन्तभद्राचार्य रचित बृहत्स्वयंभू स्तोत्र से)
(उपजाति छंद)
विधाय रक्षां परत: प्रजानां,
राजा चिरं योऽप्रतिम-प्रताप:।
व्यधात् पुरस्तात् स्वत एव शान्ति-
र्मुनिर्दयामूर्तिरिवाऽघ-शान्तिम्।।१।।
चक्रेण य: शत्रु-भयज्र्रेण,
जित्वा नृप: सर्व नरेन्द्र-चक्रम्।
समाधि-चक्रेण पुनर्जिगाय,
महोदयो दुर्जय-मोह-चक्रम्।।२।।
राज-श्रिया राजसु राज-सिंहो,
रराज यो राजसुभोग-तन्त्र:।
आर्हन्त्य-लक्ष्म्या पुनरात्म-तन्त्रो,
देवाऽसुरोदार-सभे रराज।।३।।
यस्मिन्नभूद्राजनि राज-चक्रं,
मुनौ दया-दीधिति धर्म-चक्रम्।
पूज्ये मुहु: प्राञ्जलि देव-चक्रं,
ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्त-चक्रम्।।४।।
स्व-दोष-शान्त्या विहितात्म-शान्ति:,
शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम्।
भूयाद् भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै,
शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य:।।५।।