पद्यानुवादकर्त्री-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
शार्दूलविक्रीडित छंद-
न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन् ! पादद्वयं ते प्रजा:।
हेतुस्तत्र विचित्रदुःखनिचय:, संसारघोरार्णव:।।
अत्यन्तस्फुरदुग्ररश्मिनिकर-व्याकीर्णभूमण्डलो।
ग्रैष्म: कारयतीन्दुपादसलिल-च्छायानुरागं रवि:।।१।।
भगवन्! सब जन तव पद युग की, शरण प्रेम से नहिं आते।
उसमें हेतु विविध दुःखों से, भरित घोर भववारिधि है।।
अति स्फुरित उग्र किरणों से, व्याप्त किया भूमंडल है।
ग्रीषम ऋतु रवि राग कराता, इन्दुकिरण छाया जल में।।१।।
क्रुद्धाशीर्विषदष्टदुर्जयविष-ज्वालावलीविक्रमो।
विद्याभेषजमन्त्रतोयहवनै-र्याति प्रशांतिं यथा।।
तद्वत्ते चरणारुणांबुजयुग-स्तोत्रोन्मुखानां नृणाम्।
विघ्ना: कायविनायकाश्च सहसा, शाम्यन्त्यहो! विस्मय:।।२।।
कुद्धसर्प आशीविष डसने, से विषाग्नि युत मानव जो।
विद्या औषध मंत्रित जल, हवनादिक से विष शांति हो।।
वैसे तव चरणाम्बुज युग, स्तोत्र पढ़े जो मनुज अहो।
तनु नाशक सब विघ्न शीघ्र, अति शान्त हुए आश्चर्य अहो।।२।।
संतप्तोत्तमकांचन क्षितिधर-श्रीस्पर्द्धिगौरद्युते।
पुंसां त्वच्चरणप्रणामकरणात्, पीडा: प्रयान्ति क्षयं।।
उद्यद्भास्करविस्फुरत्करशत-व्याघातनिष्कासिता।
नानादेहिविलोचनद्युतिहरा, शीघ्रं यथा शर्वरी।।३।।
तपे श्रेष्ठ कनकाचल की, शोभा से अधिक कान्तियुत देव!
तव पद प्रणमन करते जो, पीड़ा उनकी क्षय हो स्वयमेव।।
उदित रवी की स्फुट किरणों से, ताड़ित हो झट निकल भगे।
जैसे नाना प्राणी लोचन, द्युतिहर रात्री शीघ्र भगे।।३।।
त्रैलोक्येश्वरभंगलब्धविजया-दत्यन्तरौद्रात्मकान् ।
नानाजन्मशतान्तरेषु पुरतो, जीवस्य संसारिण:।।
को वा प्रस्खलतीह केन विधिना, कालोग्रदावानला-
न्नस्याच्चेत्तव पादपद्मयुगलस्तुत्यापगावारणम्।।४।।
त्रिभुवन जन सब जीत विजयि बन, अति रौद्रात्मक मृत्यूराज!
भव-भव में संसारी जन के, सन्मुख धावे अति विकराल।।
किस विध कौन बचे जन इससे, काल उग्र दावानल से।
यदि तव पाद कमल की स्तुति, नदी बुझावे नहीं उसे।।४।।
लोकालोकनिरन्तरप्रवितत-ज्ञानैकमूर्ते! विभो!
नानारत्नपिनद्धदंडरुचिर – श्वेतातपत्रतय!।।
त्वत्पादद्वयपूतगीतरवत:, शीघ्रं द्रवन्त्यामया:।
दर्पाध्मातमृगेन्द्रभीमनिनदा-द्वन्या यथा कुञ्जरा:।।५।।
लोकालोक निरन्तर व्यापी, ज्ञानमूर्तिमय शान्ति विभो।
नाना रत्न जटित दण्डे युत, रुचिर श्वेत छत्रत्रय है।।
तव चरणाम्बुज पूतगीत रव, से झट रोग पलायित हैं।
जैसे सिंह भयंकर गर्जन, सुन वन हस्ती भगते हैं।।५।।
दिव्यस्त्रीनयनाभिराम! विपुल-श्रीमेरुचूडामणे!
भास्वद् बालदिवाकरद्युतिहर-प्राणीष्टभामंडल!।।
अव्याबाधमचिन्त्यसारमतुलं, त्यक्तोपमं शाश्वतं।
सौख्यं त्वच्चरणारविंदयुगल-स्तुत्यैव संप्राप्यते।।६।।
दिव्यस्त्रीदृगसुन्दर विपुला, श्रीमेरू के चूड़ामणि।
तव भामंडल बाल दिवाकर, द्युतिहर सबको इष्ट अति।।
अव्याबाध अचिंत्य अतुल, अनुपम शाश्वत जो सौख्य महान्।
तव चरणारविंदयुगलस्तुति, से ही हो वह प्राप्त निधान।।६।।
यावन्नोदयते प्रभापरिकर:, श्रीभास्करो भासयं-
स्तावद्-धारयतीह पंकजवनं, निद्रातिभारश्रमम् ।।
यावत्त्वच्चरणद्वयस्य भगवन्-न स्यात्प्रसादोदय-
स्तावज्जीवनिकाय एष वहति, प्रायेण पापं महत्।।७।।
किरण प्रभायुत भास्कर भासित, करता उदित न हो जब तक।
पंकज वन नहिं खिलते निद्रा, भार धारते हैं तब तक।।
भगवन् ! तव चरणद्वय का हो, नहीं प्रसादोदय जब तक।
सभी जीवगण प्रायः करके, महत् पाप धारें तब तक।।७।।
शांतिं शान्तिजिनेन्द्र! शांतमनस-स्त्वत्पादपद्माश्रयात्।
संप्राप्ता: पृथिवीतलेषु बहव:, शांत्यर्थिन: प्राणिन:।।
कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो! दृष्टिं प्रसन्नां कुरु।
त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदत:, शांत्यष्टकं भक्तित:।।८।।
शान्ति जिनेश्वर! शान्तचित्त से, शान्त्यर्थी बहु प्राणीगण।
तव पादाम्बुज का आश्रय ले, शान्त हुए हैं पृथिवी पर।।
तव पदयुग की शान्त्यष्टकयुत, स्तुति करते भक्ती से।
मुझ भाक्तिक पर दृष्टि प्रसन्न, करो भगवन्! करुणा करके।।८।।
शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं, शीलगुणव्रतसंयमपात्रम्।
अष्टशतार्चितलक्षणगात्रं, नौमि जिनोत्तममम्बुजनेत्रम्।।९।।
शशि सम निर्मल वक्त्र शांतिजिन, शीलगुण व्रत संयम पात्र।
नमूँ जिनोत्तम अंबुजदृग को, अष्टशतार्चित लक्षणगात्र।।९।।
पंचममीप्सितचक्रधराणां, पूजितमिंद्र-नरेन्द्रगणैश्च।
शांतिकरं गणशांतिमभीप्सु:, षोडशतीर्थकरं प्रणमामि।।१०।।
चक्रधरों में पंचमचक्री, इन्द्र नरेन्द्र वृंद पूजित।
गण की शांति चहूँ षोडश, तीर्थंकर नमूँ शांतिकर नित।।१०।।
दिव्यतरु: सुरपुष्पसुवृष्टि-र्दुन्दुभिरासनयोजनघोषौ।
आतपवारणचामरयुग्मे, यस्य विभाति च मंडलतेज:।।११।।
तरु अशोक सुरपुष्पवृष्टि, दुंदुभि दिव्यध्वनि सिंहासन।
चमर छत्र भामंडल ये अठ, प्रातिहार्य प्रभु के मनहर।।११।।
तं जगदर्चितशांतिजिनेन्द्रं, शांतिकरं शिरसा प्रणमामि।
सर्वगणाय तु यच्छतु शांतिं, मह्यमरं पठते परमां च।।१२।।
उन भुवनार्चित शांतिकरं, शिर से प्रणमूँ शांति प्रभु को।
शांति करो सब गण को मुझको, पढ़ने वालों को भी हो।।१२।।
येभ्यर्चिता मुकुटकुंडलहाररत्नै:।
शक्रादिभि: सुरगणै: स्तुतपादपद्मा:।।
ते मे जिना: प्रवरवंशजगत्प्रदीपा:।
तीर्थंकरा: सततशांतिकरा: भवंतु।।१३।।
मुकुटहारकुंडल रत्नों युत, इन्द्रगणों से जो अर्चित।
इन्द्रादिक से सुरगण से भी, पादपद्म जिनके संस्तुत।।
प्रवरवंश में जन्में जग के, दीपक वे जिन तीर्थंकर।
मुझको सतत शांतिकर होवें, वे तीर्थेश्वर शांतीकर।।१३।।
संपूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानां।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ:, करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्र:।।१४।।
स्ांपूजक प्रतिपालक जन, यतिवर सामान्य तपोधन को।
देशराष्ट्र पुर नृप के हेतू, हे भगवन्! तुम शांति करो।।१४।।
क्षेमं सर्वप्रजानां, प्रभवतु बलवान्धार्मिको भूमिपाल:।
काले काले च सम्यग्वर्षतु, मघवा व्याधयो यांतु नाशं।।
दुर्भिक्षं चौरिमारी, क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके।
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं, प्रभवतु सततं, सर्वसौख्यप्रदायि।।१५।।
सभी प्रजा में क्षेम नृपति, धार्मिक बलवान जगत् में हो।
समय-समय पर मेघवृष्टि हो, आधि व्याधि का भी क्षय हो।।
चौर मारि दुर्भिक्ष न क्षण भी, जग में जन पीड़ा कर हो।
नित ही सर्व सौख्यप्रद जिनवर, धर्मचक्र जयशील रहो।।१५।।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञानभास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।१६।।
घातिकर्म विध्वंसक जिनवर, केवलज्ञानमयी भास्कर।
करें जगत में शांति सदा, वृषभादि जिनेश्वर तीर्थंकर।।१६।।
अंचलिका
इच्छामि भंते! संतिभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं पंचमहा-कल्लाण-संपण्णाणं, अट्ठमहापाडिहेरसहियाणं, चउतीसातिसयविसेससंजुत्ताणं, बत्तीसदे-वेंदमणिमउडमत्थय-महियाणं, बलदेववासुदेवचक्कहर-रिसिमुणिजइअणगारोव-गूढाणं, थुइसयसहस्सणिलयाणं उसहाइवीरपच्छिम-मंगलमहा-पुरिसाणं, णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
हे भगवन्! श्री शांतिभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसके।
आलोचन करने की इच्छा, करना चाहूँ मैं रुचि से।।
अष्टमहा प्रातिहार्य सहित जो, पंचमहाकल्याणक युत।
चौतिस अतिशय विशेष युत, बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।
लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीर प्रभू तक महापुरुष।।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ती से।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ महामुद से।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण सम्पति होवे।।