(पृथ्वी छंद)
सुरेन्द्र-मुकुट-स्फुरद्विविधरत्न-कांत्युल्लसच्-
चलन्मधुकरैर्हि यस्य चरणाब्जयुक् चुम्बितम्।।
भवत्यपि हृदि स्मृतं सकलतापशांत्यै क्षणात्।
स्तवीमि सततं तमेव किल शांतिनाथ मुदा।।१।।
इन्द्रमुकुट के स्फुरित विविध, रत्नों की कांति चमचमती,
जिनके चरण कमल युग चुंबित, भ्रमरों की शंका करती।
जिनकी नाम स्तुति भी हृदि में, सकल ताप को शांत करी,
अहो मुदित उन शांतिनाथ की, करूँ संस्तुति सौख्यकरी।।१।।
अनन्त-गुणसागर! त्रिभुवनैकनाथस्य ते।
चिकीर्षति विभो! स्तवं विगतबुद्धित: कोऽपि चेत्।।
नभोऽन्तमपि गंतुमंघ्रिपशिर: समारोहति।
अशक्तिकथनं ततोस्तु तव शांतिनाथ! स्तुति:।।२।।
हे अनंत गुणसागर! त्रिभुवननाथ! तुम्हारे संस्तव को।
करना चाहे बुद्धि रहित यदि, कोई भी आश्चर्य विभो!
गगन अंत पाने को वृक्ष शिखर, पर चढ़ क्या पा सकते ?
तत: अशक्तिपने का कथन, प्रभू संस्तुति वह ही है।।२।।
न शक्य इह संस्तव: सकल-दिव्य-भाषापते:।
तथापि कुरुते हि यस्तमपि भक्तिवेगोदयात्।।
जिनेन्द्र! तव नाममात्रमपि सर्वशांतिप्रदं।
स्फुरेद् हृदि यदा स्तुतिर्भवतु चाथ साध्वी न वा।।३।।
सब भाषामय दिव्यध्वनि के, पति तव संस्तव शक्य नहीं।
तथापि जो भी करते हैं वे, भक्ती के वश हुए सही।।
हे जिनेन्द्र! तव नाम मात्र भी, सर्व शांति-प्रद है जग में।
पुन: स्तुति सुन्दर हो या मत, हो जब नाम मंत्र मन में।।३।।
रतिस्त्वयि न विद्यते सकल-संग-परिवर्जनात्।
विनायुधतया भवान् क्वचिदपीह न द्वेषवान्।।
अत: परमसाम्यतो निखिल-कर्मणां संक्षय:।
अनंत-गुण-संश्रयश्च जिन! पाहि मां संसृते:।।४।।
सकल परिग्रह त्याग दिया, अतएव राग नहिं लेश तुम्हें।
आयुध, गदा रहित निर्भय हो, अत: द्वेष भी नहिं तुममें।।
तत: परम साम्य भावों से, सकल कर्म का नाश किया।
अनंत गुण के आश्रय जिन! मम करो भवोदधि से रक्षा।।४।।
सुवर्षमिह योग-लीन-तनुनिश्चल: प्राग्भवे।
लताभिरहिभिश्च वन्य-बहु-जन्तुभिर्वेष्टित:।।
स्वशुद्ध-परमात्मजं सुख-सुधा-रसं संपिबन्।
महार्णवमना: स्थितो जयतु योगचक्रेश्वर:।।५।।
पूरव भव में एक वर्ष का, योग लिया हो निश्चल तन।
वृक्ष वल्लरी सर्प बिच्छु वन-जंतू से वेष्टित भगवन्!।।
स्वयं शुद्ध परमात्मध्यान से, जन्य सौख्य अमृत पीकर।
महासमुद्रमना स्थित थे, जयतु योग के चक्रेश्वर!।।५।।
दिवश्च्युतवत: पुरा भुवि तवेश! षण्मासत:।
सुरत्नमणि-वृष्टितो ‘वसुमतीति’ सिद्धा धरा।।
सुरैश्च तव मातुरंघ्रि-युगलं मुदा चर्चितं।
जिनेन्द्र! भवतो विना क्वचिदपीति महिमा कुत:।।६।।
दिव से पृथ्वी पर आने के छह महिने पहिले ही ईश।
पंद्रह मास रत्न वृष्टी से, ‘‘वसुमति’’ नाम धरा हुई सिद्ध।।
इन्द्रादिक तव माता के भी, चरण कमल मुद से पूजें।
हे जिनेन्द्र! आपके बिन, अन्यत्र कहाँ यह महिमा है।।६।।
सुदर्शनगिरौ तवेश! जननाभिषेकोत्सवे।
सुरासुरगणा: शची-प्रभृतयोऽभिषेकं व्यधु:।।
सुरेन्द्र-वनितादयश्च शुभनर्तनं चक्रिरे।
जयेति जय देव! नंद शुभवर्णमालां जगु:।।७।।
मेरु सुदर्शन पर हे जिन! जन्माभिषेक के उत्सव में।
इन्द्रादिक गण शची देवियाँ, प्रमुदित सब अभिषेक करें।।
इन्द्र करें तांडव नर्तन अरु, सुराप्सरा भी नृत्य करें।
जय जय जय हे देव! नंद, वर्धस्व शब्द इस विध उचरें।।७।।
विजित्य सकलां महीं सकलचक्रपत्वं गत:।
समाधिवर-चक्रत: कटुकषाय-चक्रं जितं।।
ज्वलद्विमलबोध-चक्र-किरणैर्मुनीशांबुज-
प्रबोधनकर: प्रभो:! जयतु धर्मचक्रेश्वर:।।८।।
षट्खंड पृथ्वी सकल जीत, चक्रेश्वर प्रभु तुम हुए तथा।
शुक्लध्यान चक्र के बल से, कटु कषाय का चक्र हता।।
ज्वलद विमल वैâवल्य चक्र से, मुनिजन कमल खिलाते हो।
जिनेन्द्र! जयतु धर्म चक्रेश्वर! धर्मवर तीर्थ चलाते हो।।८।।
सभा तव विभाति भव्यजन-वेष्टिता द्वादश।
मुनीशजन-वैâरव-प्रविकचेन्दुशांति-प्रभो।।
सुरेश-परिनिर्मितं बृहदनर्घ्य-सिंहासनं।
विचित्रमणि-रश्मिभि: कृत-विशेष-शोभं हि ते।।९।।
बारह सभा आपकी भव्य, जनों से वेष्टित शोभ रहीं।
भविजन वैâरव विकास हेतू, हे शांतिप्रभु! चन्द्र तुम्हीं।।
सुरेश निर्मित विशाल सिंहासन है अनर्घ्यमणि शोभित।
विविध विविध रत्नों से सुन्दर, करता तव वैभव प्रकटित।।९।।
त्वदंघ्रिनत-सन्नरा अशुभयोग-शुभहानित:।
च्युता: खलु किमद्भुतं गतशुचो विवेकोदयात्।।
तवांतिकमुपागतस्तरुरपीत्यशोकोऽभवत्।
न कार्यमिह दृश्यते प्रभवकारणादर्शनात्।।१०।।
तव पद में नत जन के इष्ट, वियोग अनिष्टसंयोग नहीं।
इसमें क्या आश्चर्य! शोक च्युत, हुये सुपुण्य उदय से ही।।
तव संनिध आया जड़ तरु भी, जब ‘अशोक’ हो जाता है।
क्योंकि जगत में कारण के बिन, कार्य नहीं हो पाता है।।१०।।
विभाति जिनराज! ते विलासितातपत्रत्रयं।
सुधां स्रवयतीह किं सितसुलंबमुक्ताच्छलात्।।
प्रकाशनपरं च ते त्रिभुवनैकविभुता प्रभो!
पदाम्बुजरतस्य ते दुरित-सूर्य-संताप हृत्।।११।।
हे प्रभु! तव छत्रत्रय को शुभ, श्वेत लटकती मुक्तायें।
भव्य जनों के नेत्रों से, हर्षाश्रू अमृत वर्षायें।।
तथा आपके त्रिभुवन की, प्रभुता को प्रगटित करें अहो!
तव पादाब्जरत भविजन के, सब पाप ताप को हरें अहो!।।११।।
चलत्सुचमरी-रुहैर्विधुमयूख-समनिर्मलै:।
सुयक्षधृत-हस्तवैâ: सदसि वीज्यमानो जिन:।।
स्मरश्च शरपंचकं विफलमेव वीक्ष्य त्वयि।
मिषान्नु जिन! चित्रवर्णमय-पुष्पवृष्टिं व्यधात्।।१२।।
चन्द्र किरण सम उज्ज्वल चामर, यक्षों के कर में स्थित।
समवसरण में तुम पर भगवन्! ढुरते रहते हैं संतत।।
कामदेव से छोड़े तुम कर, पुष्प बाण जब हुऐ विफल।
तब ही पुष्प वृष्टि छल से, मानों तव भक्ति करें प्रतिक्षण।।१२।।
सुरेन्द्रकृत-दुंदुभि: कथयतीव खे संध्वन्-
उपेत सकला जना! जिनमुपेत भवशांतये।।
जनस्य भवसप्तदर्शि तव नाथ! भामंडलं।
सहस्रशशिसूर्य-रश्मिमतिशय्य तेजो बभौ।।१३।।
देवदुंदुभी नभ में बजती, मानो कहती है भविजन।
आवो आवो सकल भव्य! भव, शांति हेतु लो जिन की शरण।।
तव भामंडल जन के सात, भवों को दिखलाता हे नाथ!
कोटिसूर्य शशि किरणों से भी, अधिक चमकशाली है कांत।।१३।।
अशेषमपि वस्तु-तत्त्व-कथनैकपरतां दधत्।
महाद्विनव-भाषया च लघुसप्तशत्या हि ते।।
गभीरमभियोजनं ध्वनिमुपास्य भव्या: प्रभो!।
कलंकरहितास्त्रिलोकशिखरे वसंति क्षणात्।।१४।।
सकल वस्तु तत्त्वों को कहने, में तव दिव्यध्वनी प्रधान।
अठरा महाभाषा लघुभाषा, सातशतक अरु अगणित जान।।
चारकोश तक गभीर ध्वनि की, भविजन नित उपासना कर।
कर्मकलंक रहित होकर जा, बसते त्रिभुवन के शिर पर।।१४।।
त्वदाश्रितनयर्तुजंतु-गणशत्रुभावच्युता:।
मिथ: परममित्रतां दधति नाथ! सम्यग्गता:।।
कथंचिदिति नीतितस्तव मतेऽविरुद्धा नया:।
सकृत्सुफल-पुष्पभार-नतजात-सर्वर्तव:।।१५।।
तव आश्रय में नय ऋतु प्राणी-गण सब बैर भाव तजकर।
करें परस्पर परम मित्रता, हे प्रभु! सम्यक् हित मिलकर।।
‘कथंचित्’ ऐसी शैली से, तव मत में सब नय अविरोधी।
एक साथ फल पुष्प भार से, फल जाती है षट् ऋतु भी।।१५।।
स्वजाति-गतवैरिणो नकुल-सर्प-सिंहादय:।
स्थिता: किल तथा सुखाद् रतिमुपेत्य गोवत्सवत्।।
न चित्रमिह विद्यते सकलशांति-माप्ताय ते।
स्वदोषपरिशांतये जिन! नमोऽस्तु भवशांतये।।१६।।
जात विरोधी नकुल सर्प गज, सिंह हरिण प्राणी गण भी।
गाय वत्स सम परम प्रीति से, सुख अनुभव करते सब ही।।
नहिं इसमें आश्चर्य! नाथ! तुम, सकल शांति को प्राप्त हुये।
स्वदोष शांती हेतू हे जिन! नमोस्तु तुमको भक्ति लिये।।१६।।
त्वमेव भव-घर्म-तप्तजन-यंत्र-धारा-गृह:।
त्वमेव भववल्लिभिद् भिषगपीह भवरुग्भृते।।
त्वमेव भववारिधौ पतितजंतुवालंबनं।
त्वमेव जगतां गुरु: शिशुहिताय मातेव च।।१७।।
भव आतप से तप्त जनों को, वारियंत्र धारागृह आप।
भववल्ली के नाशक! भव-रोगी के लिए वैद्य भी आप।।
भवसागर में पतित जनों को, अवलंबन तुम ही भगवन्।
त्रिभुवन के भी गुरु, बालक के, हित करने में माता सम।।१७।।
त्वमेव परमौषधं सकल-रोग-पीडाहर:।
त्वमेव मणि-मंत्र-तंत्र-रस-सिद्धि-विद्याकर:।।
त्वमेव जिनचन्द्रमा भविक-वैâरवाह्लादकृत्।
त्वमेव च विभाकरो जनमनोऽन्धकारांतकृत्।।१८।।
सकल रोग पीड़ा के नाशक, परमौषधी तुम्हीं तो हो।
मणि अरु मंत्र तंत्र रस सिद्धि, विद्याओं की खनि भी हो।।
भव्य कुमुद आल्हादक जिनवरचंद्र! तुम्हीं हो शांति जिनेश!।
जन मन अंधकार विध्वंसक! तुम्हीं सूर्य भी अहो महेश!।।१८।।
जिनेश्वर! नमोस्तु ते त्रिभुवनैक-चूड़ामणे!
शतेन्द्र-नुतपात! भव्य सुयशोऽभिवृद्ध्यै विधु:।।
शरद् विमल-पूर्ण-षोडश-कला-भृते ते नम:।
विधेहि भुवि मे च शांतिमपि सर्वसंघस्य च।।१९।।
त्रिभुवनैक चूड़ामणि जिनवर! शतेन्द्र पूजित पद शांतीश।
नमोऽस्तु तुमको भविजन कीर्ति-सिंधुवर्धन को चंद्र जिनेश।।
शरद् ऋतु के पूर्ण कला सोलह सुकलाधर नमो तुम्हें।
शांति करो मेरे लिए भगवन्! संघ के लिए भी सब जग में।।१९।।
सुभक्तिवरयंत्रत: स्फुटरवा-ध्वनिक्षेपकात्।
सुदूर-जिन-पार्श्वगा भगवत: स्पृशंति क्षणात्।।
पुन: पतनशीलतोऽवपतिता नु ते स्पर्शनात्।
भवन्त्यभिमतार्थदा: स्तुतिफलं ततश्चाप्यते।।२०।।
ध्वनि-विक्षेपण भक्ति यंत्र से, निकले प्रगट शब्द सुन्दर।
सिद्ध शिला पर जाकर जिनवर, का स्पर्श किया तत्क्षण।।
पुन: अधो गिरने स्वभाव से, शब्द हि क्या वापस आकर।
अभिमत फलसिद्धी झट करते, अत: मिलता है स्तुति फल।।२०।।
त्वमेव स जिनेत्यहं मतिरुदेति ते ध्यानत:।
तत: स्वपरकांतरा-नुभवजन्य-सौख्यामृतं।।
पिबामि किल चात्मनि स्थिरमना: प्रसादाद्धि ते।
प्रसीद जिन! मे कृपां कुरु च शांतिमात्यंतिकीम्।।२१।।
तुम्हीं तो मैं हूँ यह ‘सोहं’ बुद्धी तुम ध्याते हुई उदित।
पुन: स्वपर अंतर अनुभव से, उदित हुआ जिन सौख्यामृत।।
उसको पी निज आत्मा में, तव प्रसाद से सुस्थिर होऊँ।
प्रभु! प्रसन्न हो मुझ पर करुणा, करो शांति शाश्वत पाऊँ।।२१।।
त्वदंघ्रि-कमलाश्रयादपि जनो न तुष्येद्यदि।
तदेव परमद्भुुतं त्रिभुवनाधिपत्येन किम्।।
यदेक-नगराधिपोऽपि शरणागतं रक्षति।
गतोऽस्मि शरणं शरण्य! कुरु तत्स्वकर्त्तव्यताम्।।२२।।
यदि तव चरण कमल आश्रय से, भी नहीं तुष्टि मिले जन को।
यही परम आश्चर्य अहो! त्रिभुवन अधिपत्य से फिर क्या हो।।
चूँकि एक ग्रामाधिप भी, जब शरणागत रक्षक जिनदेव!
शरण्य! तेरी शरण लिया मैं, निज कर्तव्य करो अतएव।।२२।।
अशांत-हृदय: सुखं मृगयते बहिर्हंत! हा!।
प्रियं किमिति पादयोर्न तव यन्न रागस्त्वयि।।
कथं भवति शांतिभागिति ततश्च याचेऽसकृत्।
मनो मन रमेत ते चरणयोर्हि यावच्छिवं।।२३।।
मन अशांत हो बाहर में हा खेद है सुख को खोज रहा।
क्या ऐसी प्रिय वस्तु जो प्रभु चरणों में नहिं मिले अहा।।
क्यों तुम प्रति है राग न सच्चा, शांति मिलेगी कहाँ! अत:।
पुन: पुन: याँचू यावत् शिव, नहिं तव पद में रमें मन:।।२३।।
शुभाशुभ-वियोग-योग-जनितार्त-दुर्ध्यानजं।
द्वयं हि भुवि देहिना-मसुहरं महादु:खदं।।
शुभाशुभविहीन-पाद-युगलं समासाद्य ते।
विशुद्धहृदयो जनो जगति तस्य नेष्टं न किं।।२४।।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग्ा से, उदित आर्त दुर्ध्यान महा।
दोनों ही जग में जीवों को, बहु दुखदायी प्राण हरा।।
शुभ अरु अशुभ रहित जिनचरण, कमल को जो आश्रय लेते।
शुद्धमना होते जग में शुभ, क्या नहिं जो नहिं हो उनके।।२४।।
अनेक-भव-संचिताद्विविध-कर्म-पाकोदयात्।
विमुग्ध-जनखेदित: पृथुलदु:खभाग् जायते।।
त्वदाश्रयवशादसौ भजति शं विवेकोदयात्।
उपास्य समतां निहंति घनघातिराशिं क्षणात्।।२५।।
भव अनेक में संचित बहुविध, कर्म उदय में आने से।
मूढ़ जनों के कटुक वचन, आदिक दु:ख से दु:खी होते।।
वे भी तव आश्रय से भेद, ज्ञान से सच्चा सुख पाते।
साम्य भावधर घन घाती-राशी का शीघ्र घात करते।।२५।।
त्वदीय चरणस्मृतिर्भव-भवार्ति-संहारिणी।
विमुक्ति-फलदायिनी सकल-सिद्धि-संपत्करी।।
दधाति हृदयाम्बुजे हि भुवि तामपुण्योऽप्यसौ।
अभीप्सितफल: प्रभो! भवति ते प्रसादात् क्षणात्।।२६।।
प्रभु तव चरणों की स्मृति भी, भव भव दुख संहार करी।
मुक्ति श्री को देने वाली, सकल सिद्धि संपत्तिकरी।।
पुण्य रहित भी जन हृदयाम्बुज, में यदि उसको कर धारण।
अभीष्ट फल तत्क्षण पा जाते, तव प्रसाद से हे भगवन!।।२६।।
यथाकुलमनास्तनोत्यनिशमन्य-चिंतां जन:।
अनंतमपि भागमात्रमिह तस्य चेत्त्वां स्मरेत्।।
पराभव-निकेतनं नहि भवेत् तदासौ किल।
न जातु तमसो गतिर्दश-शतांशु-सूर्योदये।।२७।।
व्याकुल होकर यह मन जितनी, पर की चिंता अहो! करे।
प्रभु अनंतवें भाग भी उसके, यदि तुमको स्मरण करे।।
तिरस्कार का पात्र कहो, वैâसे फिर हो सकता जग में।
सूर्योदय के होने पर क्या, अंधकार टिकता जग में।।२७।।
त्वदंघ्रि-युगपद्मनीतमपि मे मनो भ्राम्यति।
प्रभो! तदितस्ततो भ्रमयतीह मामप्यहो।।
सदोषमपि पाहि मां च हृदयस्थ-रागादित:।
न जातु विगुणेऽपि निष्ठुरवती हि मातांगजे।।२८।।
तव पद कमलों में लाया भी, मन घूमे हा! इधर उधर।
प्रभो घुमाता है मुझको भी, चहुंगति में हा! बहु दुखकर।।
सदोष भी मेरी रक्षा, करिये चित्तज रागादिक से।
क्योंकि निर्गुणी भी सुत में, नहिं माता निष्ठुर हो जग में।।२८।।
प्रभो! तव मताग्रही यदि लभेत तापं भुवि।
कथं क इह संश्रयेत् तव मतस्य पक्षं पुन:।।
कथं न शिवमाप्नुयादिह कदाग्रही च भ्रमेत्।
अतो हि तव शासनं सततमेव सौख्यास्पदं।।२९।।
यदि तव मत का आग्रह करने, से संताप जगत में हो।
क्यों फिर तव मत पक्ष ग्रहें जन, अत: न दुख हेतू मत तव।।
क्यों नहिं कदाग्रही शिव पाते, क्यों जग में ही भ्रमते हैं।
अत: प्रभो सबविध सुखदायक, तव शासन ही जग में है।।२९।।
करोमि भवदंघ्रि-पद्म-युगलस्य सेवां सदा।
ममैव परिपूर्यते त्रिभुवना-धिपैतावता।।
इहैव-पर जन्मनीति खलु सर्वकालं परं।
मुनीन्द्र! न हि कामयेऽतिशुभकल्पवृक्षं त्वकम्।।३०।।
तव पदपद्म युगल की सेवा, करूँ सदा मैं भक्ती से।
त्रिभुवन नाथ! इसी से बस हो, यह ही ईप्सित पूर्ण करे।।
इस भव में परभव में भी मैं, सदा काल तव भक्ति करूँ।
हे मुनीन्द्र! शुभ कल्पवृक्ष, तुमसें नहिं किंचित् अन्य चहूँ।।३०।।
विभो! षडद्वयांगजो न खलु तत्त्वबोधो मयि।
चरित्रमपि मुक्तिदं सुलभ-मत्र काले न मे।।
न संहनन-मुत्तमं बहुतप: प्रकर्तुं तत:।
प्रभो! त्वयि सुभक्तिरेव शिवदास्ति सैकास्तु मे।।३१।।
द्वादशांग श्रुत ज्ञान तथा कुछ, तत्त्व बोध भी नहिं मुझमें।
दुषमकाल में मुक्तिप्रद, चारित्र नहीं हो सकता है।।
नहिं उत्तम संहनन शक्ति भी, उग्र उग्र तप करने की।
अत: प्रभो! तव भक्ति एक ही, शिव सुखदायक रहे बनी।।३१।।
मृगेन्द्र-गज-वन्हि-सिंधु-फणि-युद्ध-रोगादिजं।
प्रबंधनभवं च दुष्ट-सुर-मानवैर्निर्मितम्।।
महाव्यसनदो-पसर्गमपि विग्रहं प्राणिनां।
त्वदाश्रयवशाद् भयं लघुभियेव दूरं व्रजेत्।।३२।।
सिंह गजेन्द्र अग्नि सागर-सर्पारि युद्ध रोगादि से।
बंधन से अरु दुष्ट मनुज सुर, तिर्यंचादिक कष्टों से।।
महाकष्टप्रद उपसर्गों से, देह कलह उद्भव दु:ख से।
होने वाले सब भय संकट, तव भक्तों के झट नशते।।३२।।
शतेन्द्र-मुनिवृंद-वंदित-मनोज-सौन्दर्यभृत्।
सुषोडश च तीर्थकृत् त्वमिह पंचमश्चक्रभृत्।।
स्तुते त्वयि च पूज्यपाद-मुनिनामले स्तो दृशौ।
ममापि खलु शांतिनाथ! वितनु प्रसन्नां दृशम्।।३३।।
सौ इन्द्रों मुनिवृन्दों से, वंदित हे कामदेव सुन्दर।
सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ! प्रभु पंचम चक्रेश्वर।।
स्तोता मुनि पूज्यपाद की, तुमने दृष्टी किया प्रसन्न।
हे प्रभु शांतिनाथ! मुझ पर भी, अब निज दृष्टी करो प्रसन्न।।३३।।
आपत्कर्म-कलंक विग्रहभवा स्तुत्यैव ते शाम्यति।
साहं पूर्विकयैति वश्यमवशा सर्वार्थसिद्धि: स्वयं।।
याचे शांतिविभो! तत: स्तुतिफलं त्वय्येव सक्तामति:।
भूयाज्ज्ञानमतिश्च सिद्धिरचिरात् शांतिस्तथा शाश्वती।।३४।।
कर्म कलंक कलह तनु से हुये, दु:ख संस्तुति से होते शांत।
मैं पहले मैं पहले कह, सर्वार्थ-सिद्धियाँ होती वश।।
तत: संस्तुति फल याचूं मैं, नित तुझमें ही मम रमें मती।
होवे ‘ज्ञानमती’ सिद्धी झट तथा शांति भी शाश्वतिकी।।३४।।