स्थापना-गीताछंद
है नगर भद्दिल भूप द्रढ़रथ, सुष्टुनंदा ता तिया।
तजि अचुतदिवि१ अभिराम२ शीतलनाथ सुत ताके प्रिया।।
इक्ष्वाकु, वंशी अंक३ श्रीतरु, हेमवरण शरीर है।
धनु नवे उन्नत पूर्व लख इक, आयु सुभग परी रहे।।
-सोरठा-
सो शीतल सुखकंद, तजि परिग्रह शिवलोक गे।
छूट गयो जगधन्द४, करियत तो५ आह्वान अब।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-गीता छंद-
नत६ तृषा७ पीड़ा करत अधिकी, दाव अबके पाइयो।
शुभ कुम्भ कंचन जड़ित गंगा, नीर भरि ले आइयो।।
तुम नाथ शीतल करो शीतल, मोहि भवकी तापसों।
मैं जजों युगपद८ जोरि करि९ मो, काज सरसी आपसों।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
जाकी महक सों नीम आदिक, होत चंदन जानिये।
सो सूक्ष्म घसि के मिला केसर, भरि कटोरा आनिये।।तुम.।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।।
मैं जीव संसारी भयो अरु, मर्यो ताको पार ना।
प्रभु पास अक्षत ल्याय धारे, अखयपद के कारना।।तुम.।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
इन मदन मोरी सकति थोरी, रह्यो सब जग छाय के।
ता नाश कारन सुमन ल्यायो, महाशुद्ध चुनाय के।।
तुम नाथ शीतल करो शीतल, मोहि भवकी तापसों।
मैं जजों युगपद३ जोरि करि४ मो, काज सरसी आपसों।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।
क्षुध रोग मेरे पिंड लागी, देत मांगे ना१ घरी।
ताके नसावन काज स्वामी, लेय चरु आगे धरी।।तुम.।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
अज्ञान तिमिर महान अंधा-कार, करि राखो सबै।
निजपर सुभेद पिछान कारण, दीप ल्यायो हूँ अबै।।तुम.।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।
जे अष्टकर्म महान अतिबल, घेरि मो चेरा कियो।
तिन केरनाश विचारिके ले, धूप प्रभु ढिग क्षेपियो।।तुम.।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
शुभ मोक्ष मिलन अभिलाष मेरे, रहत कब की नाथजू।
फलमिष्ट नानाभाँति सुथरे, ल्याइयो निजनाथ जू।।तुम.।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।
जल गंध अक्षत फूल चरु, दीपक सुधूप कही महा।
फल ल्याय सुन्दर अरघ कीन्हों, दोष सों वर्जित कहा।।तुम.।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक के अर्घ्य
-गाथा छंद-
चैत वदी दिन आठें, गर्भावतार लेत भये स्वामी।
सुर नर असुरन जानी, जजूँ शीतल प्रभू नामी।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाष्टम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ वदी द्वादशि को, जन्मे भगवान् सकल सुखकारी।
मति श्रुत अवधि विराजे, पूजों जिनचरण हितकारी।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशि माघ वदी में, परिग्रह तजि वन बसे जाई।
पूजत तहाँ सुरासुर, हम यहाँ पूजत गुण गाई।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां तप:कल्याणकप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदशि पौष वदी में, जगतगुरु केवल पाय भये ज्ञानी।
सो मूरति मनमानी, मैं पूजों जिनचरण सुखखानी।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आश्विन सुदि अष्टमिदिन, मुक्ति पधारे समेद गिरिसेती।
पूजा करत तिहारी, नसत उपाधि जगत की जेती।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाष्टम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-त्रिभंगी छंद-
जय शीतल जिनवर, परम धरमधर, छविके१ मंदिर, शिव भरता२।
जय पुत्र सुनंदा, के गुण-वृन्दा३, सुख के कंदा४, दुख हरता।।
जय नासा-दृष्टी, हो परमेष्ठी, तुम पद नेष्ठी५ अलख६ भये।
जय तपो चरनमा, रहत चरनमा, सुआ चरणमा, कलुष गये।।
-स्रग्विणी छंद-
जय सुनंदा के नंदा तिहारी कथा।
भाषि को पार पावे कहावे यथा।।
नाथ तेरे कभी होत भव रोग ना।
इष्ट वीयोग आनिष्टसंयोग ना।।
अग्नि के कुण्ड में वल्लभा राम की।
नाम तरे बची सो सती काम की।।नाथ.।।
द्रौपदी-चीर बाढ़ो तिहारी सही।
देव जानी सबों में सुलज्जा रही।।नाथ.।।
कुष्ठ राखो ने श्रीपाल को जो महा।
अब्धि से काढ़ लीनो सिताबी तहाँ।।नाथ.।।
अंजना काटि फांसी, गिरो जो हतो।
औ सहाई तहाँ, तो बिना को हतो।।नाथ.।।
शैल फूटो गिरो, अंजनीपूत१ के।
चोट जाके लगी, न तिहारे तके।।नाथ.।।
कूदियो शीघ्र ही, नाम तो गाय के।
कृष्ण काली नथो, कुंड में जाय के।।नाथ.।।
पांडवा जे घिरे, थे लखागार२ में।
राह दीन्हों तिन्हें, ते महाप्यार में।।नाथ.।।
सेठ को शूलिका, पै धरो देख के।
कीन्ह सिंहासन, आपनो लेख के।।नाथ.।।
जो गनाये इन्हें, आदि देके सबै।
पाद परसाद ते, भे सुखारी३ सबै।।नाथ.।।
बार मेरी प्रभू, देर कीन्हों कहा।
कीजिये दृष्टि दाया, कि मोपे अहा।।नाथ.।।
धन्य तू धन्य तू, धन्य तू मैन४ हा।
जो महा पंचमो, ज्ञान नीके लहा।।नाथ.।।
कोटि तीरथ हैं, तेरे पदों के तले।
रोज ध्यावें मुनी, सो बतावें भले।।नाथ.।।
जानि के यों भली, भाँति ध्याऊँ तुझे।
भक्ति पाऊँ यही, देव दीजे मुझे।।
नाथ तेरे कभी होत भव रोग ना।
इष्ट वीयोग आनिष्टसंयोग ना।।
-गाथा-
आपद सब दीजे भार झोंकि यह, पढ़त सुनत जयमाल।
होय पुनीत करण अरु जिह्वा, वरते आनंदजाल।।
पहुँचे जहँ कबहूं पहुँच नहीं, नहिं पाई सो पावे हाल।
नहीं भयो कभी सो होय सबेरे, भाषत मनरंगलाल।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
भो शीतल भगवान, तो पदपक्षी जगत में।
हैं जेते परवान, पक्ष रहे तिन पर बनी।।
‘‘ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय नम:’’ अनेन मंत्रेण जाप्यं देयम्।
।।इत्याशीर्वाद:।।