-स्थापना-(अडिल्ल छंद)-
सुरमन्यू श्रीमन्यु आदि ऋषि सात हैं।
चारण ऋद्धि समन्वित जो विख्यात हैं।।
मथुरापुरि में चमत्कार इनका हुआ।
रोग महामारी इन तप से भग गया।।१।।
-दोहा-
इन सातों ऋषिराज की, पूजा का ये विधान।
रोग शोक की शांति हित, करें प्रथम आह्वान।।२।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्यु-श्रीमन्यु-श्रीनिचय-सर्वसुन्दर-जयवान-विनयलालस-जयमित्रनाम-सप्तऋषिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्यु-श्रीमन्यु-श्रीनिचय-सर्वसुन्दर-जयवान-विनयलालस-जयमित्रनाम-सप्तऋषिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्यु-श्रीमन्यु-श्रीनिचय-सर्वसुन्दर-जयवान-विनयलालस-जयमित्रनाम-सप्तऋषिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक-शंभु छंद-
गंगा यमुना अरु सरस्वती, नदियों का जल भर लाए हैं।
हो जन्म जरा मृत्यू का क्षय, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।१।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर विमिश्रित केशर घिसकर, स्वर्ण कटोरी लाए हैं।
संसार ताप हो जाए नष्ट, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।२।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती सम उज्ज्वल तंदुल की, थाली भर कर ले आए हैं।
हो अक्षय पद की प्राप्ति हमें, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।३।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा गुलाब आदिक पुष्पों का, थाल सजाकर लाए हैं।
निज कामबाण विध्वंस हेतु, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।४।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
फेनी घेवर आदिक व्यंजन का, थाल सजाकर लाए हैं।
निज क्षुधारोग के नाश हेतु, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।५।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक कंचन थाली में ले, आरति करने आए हैं।
निज मोह तिमिर के नाश हेतु, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।६।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन कपूर की धूप दहन, अग्नी में करने आए हैं।
निज अष्ट कर्म के नाश हेतु, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।७।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम्र फल आदि विविध, फल थाल सजाकर लाए हैं।
शिवपद की केवल प्राप्ति हेतु, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।८।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध सुअक्षत पुष्प चरु, वर दीप धूप फल लाए हैं।
‘‘चन्दनामती’’ इक अर्घ्य थाल, गुरुचरण चढ़ाने आए हैं।।
सुरमन्यु आदि ऋद्धीधारी, सातों ऋषियों को वन्दन है।
आरोग्य प्राप्ति के हेतु सभी, मुनियों के पद में प्रणमन है।।९।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्रीसुरमन्युआदि सप्तऋषिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
कंचन झारी में भरा, यमुना सरिता नीर।
शांतीधारा हम करें, सप्तऋषी पद तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
विविध पुष्प की वाटिका, से पुष्पों को लाय।
सप्तऋषी के पदनिकट, पुष्पांजली चढ़ाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
-दोहा-
सप्तऋषी मण्डल रचा, पूजा हेतु महान।
पुष्पांजलि करके वहाँ, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
राजा श्रीनन्दन की रानी, धारिणी पुत्र सुरमन्यु कहे।
प्रीतिंकर जिनवर के समीप, दीक्षा ले तपकर ऋद्धि लहें।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।१।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीसुरमन्युमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अपने पितु के संग दीक्षा ले, श्रीमन्यु पुत्र भी मुनी बने।
निज आत्मा में तन्मय होकर, तप कर ऋद्धी के स्वामि बने।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।२।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वित श्री श्रीमन्युमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री निचय मुनी के तन में भी, तप से ऐसी शक्ती आई।
अपने भ्राताओं के संग उनने, भी चारणऋद्धी पाई।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।३।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीनिचयमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से सुन्दर मन से सुन्दर था, रूप सर्वसुन्दर ऋषि का।
इसलिए दूर कर सके घोर-उपसर्ग वे मथुरा नगरी का।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।४।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीसर्वसुन्दरमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शत्रुघ्न ने मथुरा के राजा, मधुसुन्दर को जब मार दिया।
तब देव विक्रिया को जयवान्, सहित सब ऋषि ने शांत किया।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।५।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीजयवानमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अत्यन्त विनयवृत्ती वाले, मुनिराज विनयलालस जी थे।
अपने पितु मुनिवर श्रीनंदन के, साथ तपस्या में रत थे।।
उन चारणादि ऋद्धीधारी, मुनिवर की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।६।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीविनयलालसमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतिम थे श्रीजयमित्र महर्षी, मित्रभावना से संयुत।
उग्रोग्र तपस्या करने से, हो गये सर्वऋद्धीसंयुत।।
उन सर्वौषधि आदिक ऋद्धीयुत, मुनि की पूजा सुखकारी।
उनकी ऋद्धी से मिल जाती, भौतिक आत्मिक संपति सारी।।७।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीजयमित्रमहर्षये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंत्र जाप्य-ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीसुरमन्युआदिसप्तऋषिभ्यो नम:।
-शेरछंद-
जय सप्तऋषी चारणादि ऋद्धि के धारी।
जय सप्तऋषी सब हुए हैं गगनविहारी।।
जय सप्तऋषी रोग शोक दुख हरें सारे।
जय सप्तऋषी सुख समृद्धि देते हैं सारे।।१।।
नौ लाख वर्ष पूर्व की सच्ची है कहानी।
इन सात सगे भाइयों की कथा पुरानी।।
जन्मे थे प्रभापुरि में श्रीनन्दन नृपति के घर।
अपने पिता के साथ सबने दीक्षा ग्रहण कर।।२।।
तप करके बहुत ऋद्धियों को प्राप्त कर लिया।
भव भोग तजके आत्मसौख्य प्राप्त कर लिया।।
तब इक नये इतिहास से संबंध जुड़ गया।
इनकी तपोशक्ती का परिज्ञान मिल गया।।३।।
दशरथ के पुत्र रामचन्द्र अवध के राजा।
लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न के सबसे बड़े भ्राता।।
इनमें से जब शत्रुघ्न बने मथुरा के राजा।
मथुरा में पैâला महामारी रोग असाता।।४।।
मरने लगी जनता तो त्राहि माम् मच गया।
शत्रुघ्न का मन देख यह विचलित सा हो गया।।
कुछ पुण्य से सप्तर्षि का चौमास हो गया।
उन तप से महामारि रोग नाश हो गया।।५।।
वे वर्षायोग में भी श्रीविहार करते थे।
क्योंकी वे ऋद्धि से धरा पे पग न रखते थे।।
जिनकल्पि मुनिशृँखला में गणना है उनकी।
शिवधाम प्राप्त सिद्धप्रभु में गणना है उनकी।।६।।
मथुरा में उनके तप का चमत्कार हो गया।
हर व्यक्ति उनके आगमन से स्वस्थ हो गया।।
सातों मुनी निज आत्म में निमग्न रहते थे।
राजा प्रजा उन भक्ति में संलग्न रहते थे।।७।।
मथुरा से वे मुनी विहार करने लगे जब।
शत्रुघ्न ने उनसे विनीत वचन कहे तब।।
गुरुदेव! आप यहीं पर निवास कीजिए।
फिर से न पैâले रोग आशिर्वाद दीजिए।।८।।
गुरु ने कहा घर घर में जिनालय बनाइये।
गुरुभक्ति करके सर्वसुख समृद्धि पाइए।।
उनके प्रभाव से सदा सुभिक्ष रहेगा।
जिनधर्म से हि सर्वदा दुर्भिक्ष टलेगा।।९।।
मुनि तो वहाँ से बात बताके चले गये।
शत्रुघ्न ने घर-घर में जिनालय बना दिये।।
घर-घर में सप्तऋषियों की मूर्ति बिठाई।
भक्तों ने इनकी भक्ति करके स्वस्थता पाई।।१०।।
यह भक्तिसुमन थाल है जयमाल के लिए।
पूर्णार्घ्य भरा थाल है शिवधाम के लिए।।
मुझ मन वचन व तन को अब पवित्र कीजिए।
बस ‘‘चन्दनामती’’ मुझे भी ऋद्धि दीजिए।।११।।
ॐ ह्रीं चारणऋद्धिसमन्वितश्रीसुरमन्युआदिसप्तऋषिभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
सप्तऋषी की अर्चना, देवे सौख्य महान।
इनके पद की वंदना, करे कष्ट की हान।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
मैं तो आरति उतारूँ रे, सप्त ऋषीश्वर की।
जय-जय-जय सप्तऋषि, जय जय जय।।टेक.।।
पहले मुनिवर हैं सुरमन्यु, चारण ऋद्धीधर………चारणऋद्धीधर।
दूजे ऋषिवर हैं श्रीमन्यु, जन जन के हितकर………..जन जन के।
इनको नमस्कार करूँ, इनका सत्कार करूँ, इनको निहारूँ रे,
हो प्यारा-प्यारा मुखड़ा निहारूँ रे………….मैं तो………..।।१।।
श्रीनिचय मुनीश्वर तृतीय, तपलक्ष्मी भर्ता………तपलक्ष्मी भर्ता।
सर्वसुन्दर ऋषीश्वर चतुर्थ, आतमसुखकर्ता………आतमसुखकर्ता।।
भक्ति करूँ झूम-झूम, नृत्य करूँ घूम-घूम, जीवन सुधारूँ रे,
हो प्यारा-प्यारा जीवन सुधारूँ रे………….मैं तो………..।।२।।
श्री जयवान मुनी पंचम, हैं पंचमगतिदाता……पंचमगतिदाता।
विनयलालस व जयमित्र नाम, गुरुवर सुखदाता……..गुरुवर सुखदाता।
सातों ये ऋद्धि धरें, विहरण इक संग करें, प्रतिमा निहारूँ रे।
हो पावन इनकी प्रतिमा निहारूँ रे………….मैं तो………..।।३।।
मथुरापुर की महामारी, दूर हुई इनसे…….दूर हुई इनसे।
राजा शत्रुघ्न की नगरी, पवित्र हुई इनसे…………पवित्र हुई इनसे।।
‘‘चन्दनामति’’ भक्ति करूँ, काया में शक्ति भरूँ, पल-पल पुकारूँ मैं,
हो इन्हीं को पल-पल पुकारूँ रे………….मैं तो………..।।४।।