श्रीमती मात स्वप्ने देखें, श्रेयांस नृपति से फल पूछें।
तीर्थंकर सुत जननी होंगी, सुन माता मन में अति हर्षें।।
इन्द्रों ने उत्सव किया विविध, धनपति ने रत्नवृष्टि की थी।
हम वंदें गर्भकल्याणक नित,जिससे होवे धन की वृष्टी।।१।।
सीमंधर प्रभु ने जन्म लिया, स्वर्गों में बाजे बाज उठे।
सुरपति के सिंहासन कंपे, इंद्रों के मस्तक मुकुट झुकें।।
प्रभु वृषभ चिन्ह पितु मात धन्य, जनता में हर्ष अपार हुआ।
हम वंदें जन्मकल्याणक नित, नमते ही चित्त प्रसन्न हुआ।।२।।
तीर्थंकर प्रभु जब राज्य छोड़, दीक्षा लेने का भाव किया।
लौकान्तिक सुर ने आकर के, प्रभु की संस्तुति कर पुण्य लिया।।
प्रभु ने जिनदीक्षा ग्रहण किया, अति घोर तपस्या करने को।
हम नमते दीक्षा कल्याणक, निज जन्म मरण दुख हरने को।।३।।
प्रभु को जब केवलज्ञान हुआ, धनपति ने तत्क्षण ही आकर।
गगनांगण में प्रभु समवसरण, रच दिया अखिल वैभव लाकर।।
पूरब विदेह में आज वहाँ, प्रभु समवसरण में राज रहे।
हम वंदें ज्ञानकल्याणक को, प्रभु समवसरण में राज रहे।।४।।
प्रभु घात अघाती कर्मांे को, निश्चित ही मुक्ती पायेंगे।
हम भी उनकी भक्ती करके, निश्चित ही कर्म जलायेंगे।।
उन प्रभु का मोक्षकल्याणक हम, भक्ती से वंदें पुण्य भरें।
आत्मा को शुद्धात्मा करके, निज मानव जीवन धन्य करें।।५।।