—शंभु छंद—
प्रभु पास नहीं िंकचित् संग है, अतएव राग का लेश नहीं।
आयुध के पास न होने से, प्रभु तुम में िंकचित् द्वेष नहीं।।
तव वाणी दिव्या सत्य सुखद, अतएव दोष लवलेश नहीं।
तुमको प्रणमूँ सर्वज्ञ प्रभो ! जिन हे सुपार्श्व! जगवंद्य सही।।१।।
हरिताभ तनु फिर भी तनु से, विरहित अशरीरी सिद्ध तुम्हीं।
शिवरमणी में आसक्त सदा, फिर भी ब्रह्मचारी पूर्ण तुम्हीं।।
कर्मारि युद्ध में निर्दय हो, फिर भी करुणा के सागर हो।
सब छोड़ दिया फिर भी अपने, अगणित गुणनिधि रत्नाकर हो।।२।।
धनपति ने नगरि बनारस में, रत्नों की वर्षा वर्षायी।
पृथ्वी भी तृप्त हुई उस क्षण, पृथ्वीषेणा माँ हर्षायी।।
सित भादों षष्ठी को प्रभु ने, माता के गर्भ प्रवेश किया।
शुक्तापुट में मुक्ताफलवत् निंह, माँ को िंकचित् क्लेश हुआ।।३।।
शुभ ज्येष्ठ सुदी बारस प्रभु का, अभिषेक हुआ मंदर गिरि पर।
उस तिथि ही में जिनरूपधरा, धर ध्यान शस्त्र भी करुणाकर।।
फाल्गुन वदि षष्ठी को प्रभु के, घट में केवल रवि उदित हुआ।
फाल्गुन वदि सप्तमि मोक्ष बसे, सब कर्म नशे तम भाग गया।।४।।
अठ सौ कर तुंग शरीर प्रभो, मरकतमणि आभा धारी हो।
आयु है बीस लाख पूरब, इक्ष्वाकु वंश अवतारी हो।।
स्वस्तिक लांछन सुप्रतिष्ठ पिता, रत्नत्रय निधि के पूर्ण धनी।
प्रभु तव प्रसाद से पूर्ण ‘‘ज्ञानमति’, हो मुझको अर्हत् लक्ष्मी।।५।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।