अथ स्थापना
(शंभु छंद)
हे सिद्ध प्रभो! तुम आठ कर्म, विरहित गुण आठ समन्वित हो।
अष्टमि पृथिवी पर तिष्ठ रहे, ज्ञानाम्बुधि सिद्धरमापति हो।।
समतारस आस्वादी मुनिगण, नित सिद्ध गुणों को ध्याते हैं।
हम पूजें तुम आह्वानन कर, जिससे सब कर्म नशाते हैं।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक
शंभु छंद
श्री सिद्धसुयश सम उज्ज्वल जल, लेकर झारी भर लाये हैं।
निज समरस सुख पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों सम अति शीतल, चंदन घिसकर ले आये हैं।
निज की शीतलता पाने को, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध सौख्य सम खंडरहित, उज्ज्वल तंदुल ले आये हैं।
निज आत्म सौख्य पाने हेतू, प्रभु पुंज चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्धगुणों सम अति सुगंध, पुष्पों को चुनकर लाये हैं।
निज गुण सुगंध पाने हेतू, प्रभु चरणों पुष्प चढ़ाये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध पुष्टि सम नानाविध, पकवान बनाकर लाये हैं।
निज आत्म तृप्ति पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध ज्ञान सम ज्योतिर्मय, कर्पूर जलाकर लाये हैं।
निज ज्ञानज्योति पाने हेतूू, हम आरति करने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों की सुरभि सदृश, वर धूप सुगंधित लाये हैं।
निज आत्म सुरभि पाने हेतू, अग्नी में धूप जलाये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध सुखामृत सदृश मधुर, रस भरे बहुत फल लाये हैं।
निज मोक्ष सुफल हेतू भगवन्! फल आज चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों के सम अनघ्र्य, यह अघ्र्य सजाकर लाये हैं।
निज तीन रत्न पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: अनघ्र्यपद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
श्री सिद्ध चरणाब्ज, मन से जलधारा करूँ।
पूर्ण शांति साम्राज्य, मिले त्रिजग में शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्री सिद्ध चरणाब्ज, पुष्पांजलि मन से करूँ।
मिले सिद्धि साम्राज्य, त्रिभुवन की सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
शंभुछंद
(तर्ज – यह नंदनवन………..)
जय जय जिनमणि, जग चूड़ामणि, तुम कर्मरहित सिद्धीपति हो।
मन वच तन से, सब सिद्धों के, चरणों में मेरी प्रणती हो।। जय.।।
प्रभु चार अनंतानूबंधी, त्रय दर्शन मोह विनाश किया।
क्षायिक सम्यक्त्वी मुनी बने, फिर क्षपक श्रेणि को मांड लिया।।
गुणस्थान नवम में छत्तिस प्रकृती, नाश आप मुनिगणपति हो।। जय.।।१।।
दशवें में सूक्ष्म लोभ नाशा, नर आयु बिना त्रय आयू नहिं।
बारहवें में सोलह प्रकृती, कर नाश केवली हुये यहीं।।
इन त्रेसठ प्रकृती के क्षय से, परमात्मा नव लब्धीपति हो।। जय.।।२।।
ज्ञानावरणी दर्शनावरण, मोहनीय व अंतराय घाती।
पण नव अट्ठाइस पाँच कहीं, त्रय आयु नाम की तेरह ही।।
इन कर्म रहित धनपति विरचित, प्रभु समवसरण लक्ष्मीपति हो।। जय.।।३।।
गुणस्थान चौदवें में द्विचरम, के समय बहत्तर प्रकृति हनी।
फिर अंतसमय तेरह प्रकृती, नाशा शिवतिय से प्रीति घनी।।
प्रभु गुणस्थान से रहित हुये, शिवधाम गये त्रिभुवनपति हो।। जय.।।४।।
इन इक सौ अड़तालिस प्रकृती के, भेद असंख्य अनंत कहे।
प्रभु द्रव्य भाव नोकर्म नाश, यमराज शत्रु का अंत किये।।
सुख ज्ञान दर्श वीरज आदिक, निज के अनंत गुण निधिपति हो।। जय.।।५।।
प्रभु मोह नाश क्षायिक समकित, ज्ञानावरणी हन पूर्णज्ञान।
दर्शनरज नाश पूर्ण दर्शन, हन अंतराय वीरज अमान।।
हन नामकर्म सूक्ष्मत्व लिया, हन गोत्र अगुरुलघु गुणयुत हो।। जय.।।६।।
हन आयू अवगाहन गुणधृत, हन वेदनीय अव्याबाधी।
सुख लिया अनंत अतीन्द्रिय प्रभु, नाशी सब जन्म मरण व्याधी।।
प्रभु आठकर्म से रहित आठगुण सहित मोक्षनगराधिप हो।। जय.।।७।।
जो भव्य आपकी भक्ति करें, द्वयविध रत्नत्रय युक्ति धरें।
निज शक्ति प्रगट कर मुक्ति वरें, गुणरत्नों का भंडार भरें।।
तुम भक्तों को निज सम करते, इससे अद्भुत पारसमणि हो।। जय.।।८।।
इस ढ़ाईद्वीप में कर्मभूमि, इक सौ सत्तर बतलाई हैं।
उनसे तीर्थंकर आदि नरों ने, मुक्तिवल्लभा पाई है।।
तीर्थंकर होकर शिव पाते, उन सबको मेरी शिरनति हो।। जय.।।९।।
बिन तीर्थंकर भी चक्रवर्ति, बलभद्र कामदेवादि पुरुष।
बिन पदवी के सामान्य मनुष, शिवपद पा लेते कर्मवियुत।।
उपसर्ग बिना उपसर्ग सहित, अगणित नरपुंगव शिवपति हों।। जय.।।१०।।
जल से, थल से, नभ से भी तो, शिव गये अनंतानंत मनुज।
सुर या खेचर उपसर्ग किया, जल या नभ में छोड़ा दुखप्रद।।
धर शुक्लध्यान तत्क्षण कर्मों को, नाश अंतकृत केवलि हों।। जय.।।११।।
जो द्रव्यपुरुष वेदी भावों से, हुये नपुंसक वेदी भी।
या भावों से स्त्रीवेदी, मुक्ती पा जाते हैं ये भी।।
ये भाव भेद त्रयविध मुनिगण, शिव गये उन्हें नित शिरनति हो।। जय.।।१२।।
जो सिद्ध हुये हैं, होते हैंं, होवेंगे ये त्रय कालों के।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ हेतु आज, सिद्धों को नमते शिवगति हो।। जय.।।१३।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त अनंतानंतसिद्धपरमेष्ठिभ्य: जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य कर्मदहन की पूजा को करेंगे।
वे भाव कर्म द्रव्यकर्म दहन करेंगे।।
निज का परम अतीन्द्रिय सुख प्राप्त करेंगे।
रवि ‘ज्ञानमती’ से यहाँ प्रकाश भरेंगे।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।