गुजरात प्रान्त में स्थित गिरनार पर्वत एक निर्वाणक्षेत्र के रूप में सुप्रसिद्ध तीर्थ है। षट्खण्डागम सिद्धान्तशास्त्र की आचार्य वीरसेन कृत धवला टीका में इसे क्षेत्र मंगल माना है। इसे ऊर्जयन्त गिरि भी कहते हैं। आचार्य यतिवृषभ ने भी तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रंथ में इसी आशय की पुष्टि करते हुए इसे क्षेत्र मंगल माना है। ऊर्जयन्त क्षेत्र पर बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के तीन कल्याणक हुए थे-दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण। जिस क्षेत्र पर किसी तीर्थंकर का एक ही कल्याणक हो वह कल्याणक क्षेत्र या तीर्थक्षेत्र कहलाता है और जहाँ किसी तीर्थंकर के तीन कल्याणक हुए हों वह क्षेत्र तो वस्तुत: अत्यन्त पवित्र बन जाता है अत: गिरनार क्षेत्र अत्यन्त पावन तीर्थभूूमि है। भगवान नेमिनाथ का निर्वाणस्थल होने से इसे सिद्धक्षेत्र कहा जाता है। गिरनार पर्वत का नाम लेते ही महासती राजुल का नाम भी स्मृति में आ जाता है जब भगवान नेमिनाथ जूनागढ़ से गिरनार की ओर राजुलमती से ब्याह करने के लिए चले तो वहाँ पहुँचते हुए मार्ग में बाड़े में बंद पशुओं की करुण चीत्कार ने उन्हें द्रवित कर दिया तब वे वैराग्य उत्पन्न हो जाने से विवाह बंधन में न पंâसकर गिरनार पर्वत पर जाकर दीक्षा ले घोर तपश्चरण में लीन हो गए तब महासती राजुल ने भी भगवान नेमिनाथ के पथ का अनुसरण करते हुए आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर इसी पर्वत पर घोर तपश्चरण किया था। इसी पर्वत पर भगवान नेमिनाथ के तीन कल्याणकों का वर्णन तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रंथ में विस्तारपूर्वक दिया गया है। भगवान के निर्वाण की तिथि आदि का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है-
बहुलट्टमी पदोसे आसाढ़े जम्मभम्मि उज्जंते। छत्तीसाधिय पणसयसहिदो णेमीसरो सिद्धो।।
अर्थात् भगवान नेमीश्वर आषाढ़ कृष्णा अष्टमी के दिन प्रदोषकाल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते ५३६ मुनियों के साथ ऊर्जयन्त गिरि से सिद्ध हुए। भगवान का निर्वाण होने पर असंख्य देवों, इन्द्रों और मनुष्यों ने निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया। तब से इस पर्वत की ख्याति एक प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र के रूप में हो गई है। इस क्षेत्र पर भगवान नेमिनाथ के अतिरिक्त प्रद्युम्न, शम्बुकुमार, अनिरुद्ध कुमार आदि ७२ करोड़ ७०० मुनियों ने ऊर्जयन्त गिरि से सिद्धिपद प्राप्त किया। ऊर्जयन्त गिरि से अनेक मुनि मोक्ष गए हैं इसका समर्थन हरिवंशपुराण से भी होता है। इस संबंध में आचार्य जिनसेन ने मुनियों के कुछ नाम देकर यह भी सूचित किया है कि इन मुनियों आदि के निर्वाण के कारण ही ऊर्जयन्त को निर्वाण क्षेत्र माना जाने लगा और अनेक भव्यजन तीर्थयात्रा के लिए आने लगे। आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण में प्रद्युम्न आदि मुनियों के संबंध में ऊर्जयन्त गिरि से निर्वाणप्राप्ति के साथ जिन कूटों से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया था उसकी भी सूचना दी गई हैं। इसी पर्वत से गजकुमार मुनि ने निर्वाण की प्राप्ति की। हरिवंशपुराण में वर्णित कथा में गजकुमार मुनि के मुक्तिस्थान का उल्लेख नहीं किया गया किन्तु हरिषेणकृत वृहत्कथाकोष में स्थान का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस प्रकार गिरनार पर्वत से करोड़ों मुनियों को निर्वाण प्राप्त हुआ अत: वह निर्वाणक्षेत्र या सिद्धक्षेत्र है। भगवान नेमिनाथ जिस स्थान से मुक्त हुए थे वह स्थान अत्यन्त पवित्र और लोकपूज्य था। उस स्थान के गौरव को सदाकाल के लिए अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए इन्द्र ने वङ्का से सिद्धशिला का निर्माण किया और उस पर भगवान के चरण चिन्ह उत्कीर्ण किए। इस आशय की सूचना आचार्य जिनसेन ने ‘हरिवंशपुराण’ (सर्ग ६५, श्लोक १४) में दी है। उन्होंने लिखा है-
‘ऊर्जयन्तगिरौ वङ्काी वङ्कोणालिख्या पाविनीम्। लोके सिद्धिशिलां चक्रे जिनलक्षणपङ्क्तिभि:।।’’
इसके अतिरिक्त आचार्य दामनन्दी कृत पुराणसारसंग्रह एवं आचार्य समन्तभद्र स्वामी रचित स्वयंम्भूस्तोत्र में इस बात का उल्लेख किया गया है। इन्द्र ने जिस प्रकार भक्तिवश वङ्का से भगवान के चिन्ह अंकित किए थे उसी प्रकार उसने भक्तिवश गिरनार पर्वत पर भगवान नेमिनाथ की भव्य मूर्ति भी स्थापित की थी जिसका वर्णन आचार्य मदनकीर्ति यतिपति ने ‘शासन चतुस्त्रिंशतिका’’ में किया है। इन्द्र द्वारा स्थापित उस मूर्ति का क्या हुआ, इसका कुछ पता नहीं चलता किन्तु श्वेताम्बर आचार्य राजशेखरसूरिकृत ‘प्रबन्धकोष’ (वि.सं. १४०५) में रत्नश्रावक संबंधी एक प्रबंध में काश्मीर देश के नवहुल्ल पत्तन निवासी रत्न नामक जैन श्रीमंत द्वारा संघ सहित यात्रा करने का वर्णन आता है जिन्होंने नेमिनाथ भगवान की अति प्राचीन मूर्ति के दर्शन के साथ उनका जलाभिषेक किया। प्रतिमा लेप की होने से वह गल गई जिससे उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ, उन्होंने उपवास किया। तब रात्रि में अम्बिका देवी ने प्रकट होकर उन्हें अन्य प्रतिमा स्थापित करने का आदेश दिया तदनुरूप रत्न ने १८ सोने की, १८ चांदी की और १८ पाषाण की प्रतिमाएं बनवाई। यदि इस प्रकरण को प्रामाणिक स्वीकार किया जाए तो मदनकीर्ति (वि.स.१२८५) ने नेमिनाथ की जिस भव्य दिगम्बर मूर्ति का उल्लेख किया है वह वि.सं. १४०५ में लिखित ‘प्रबंधकोष’ के अनुसार रत्न नामक यात्री के हाथों नष्ट हुई। इससे लगता है कि मदनकीर्ति के द्वारा उल्लिखित मूर्ति वि.सं. की १४-१५ वीं शताब्दी तक अवश्य विद्यमान थी। संभव है, मदनकीर्ति ने उसके दर्शन भी किए हों किन्तु इतना तो निश्चित है ही कि वह मूर्ति दिगम्बर थी और अत्यन्त आकर्षक थी। गिरनार के दूसरे शिखर पर अम्बा या अम्बिका देवी का मंदिर है। इस मंदिर की मान्यता जैनों और हिन्दुओं दोनों में ही है। मंदिर पर आजकल हिन्दुओं का अधिकार है। The Report on the Antiquities of Kathiawad and Kachha, P. 129 ceW Mr. Burgess ने मूलत: इस मंदिर को जैनों का बताया है। अम्बिका देवी के कई नाम जैन शास्त्रों में मिलते हैं-कूष्माण्डी, कूष्माण्डिनी, आम्रा देवी, अम्बा देवी, अम्बिका देवी। यह देवी तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन देवी कहलाती हैं। आचार्य जिनसेन ने ‘हरिवंशपुराण’ (सर्ग ६६, श्लोक ४४) में गिरनार की अम्बिका देवी के संबंधमें विशेष उल्लेख किया है। अम्बिका देवी की मूर्तियाँ बहुसख्ंया में प्राप्त होती हैं। इस देवी का मुख्य चिन्ह यह है-सिंहारूढ़ देवी की गोद में एक बालक होता है तथा एक बालक बगल में खड़ा होता है। देवी आम्रवृक्ष के नीचे बैठी होती है अथवा वृक्ष नहीं होता तो हाथ में आम्रस्तवक रहता है। देवी के शिरोभाग पर भगवान नेमिनाथ की पद्मासन प्रतिमा बनी होती है। गिरनार पर अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई हैं, जिनका विशेष महत्व है। चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य गिरनार की यात्रा के लिए गए थे। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने भी यहाँ की यात्रा की थी। इनके पश्चात् एक महत्वपूर्ण घटना का गिरनार के साथ संबंध है, जिसके द्वारा जैन वाङ्मय का इतिहास जुड़ा हुआ है। वह घटना इस प्रकार है- गिरनार की चन्द्रगुफा में स्थित धरसेनाचार्य नन्दिसंघ की प्राकृत ‘पट्टावली’ के अनुसार आचारांग के पूर्ण ज्ञाता थे। उन्हें इस बात की चिंता हुई कि उनके पश्चात् श्रुतज्ञान का लोप हो जाएगा, उस समय महिमानगरी में मुनि सम्मेलन हो रहा था। उन्होंने मुनि सम्मेलन को अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए एक पत्र लिखा फलस्वरूप व्युत्पन्न और विनयी दो मुनि पुष्पदंत और भूतबलि विद्या ग्रहण हेतु उनके पास पहुँचे, तब आचार्यश्री ने उनकी परीक्षा लेकर उन्हें सिद्धान्त सीखने योग्य समझकर गं्रथ पढ़ा दिया जिसके फलस्वरूप षट्खण्डागम नामक महान ग्रंथ की रचना हुई, इस प्रकार सिद्धान्त ग्रंथों की विद्याभूमि गिरनार ही है। पुष्पदंत और भूतबलि ने गिरनार की सिद्धशिला पर बैठकर, जहाँ भगवान नेमिनाथ को मुक्ति प्राप्त हुई थी, मंत्र सिद्धि की थी। आचार्य कुन्दकुन्द भी गिरनार की वंदना करने आए थे ऐसा वर्णन ज्ञान प्रबोध एवं पाण्डवपुराण ग्रंथ में आता है। इसके अतिरिक्त सुगंधदशमी व्रत का कथानक भी यहीं से जुड़ा है। ऊर्जयन्त पर्वत दिगम्बर परम्परा में तीर्थराज माना गया है। अनन्तानंत तीर्थंकरों एवं मुनियों की निर्वाणभूमि होने से जहाँ सम्मेदशिखर को तीर्थाधिराज की संज्ञा दी गई है वहीं ऊर्जयन्तगिरि से ७२ करोड़ ७०० मुनियों की मुक्ति और तीर्थंकर नेमिनाथ के तीन कल्याणक होने से सम्मेदशिखर के बाद इस तीर्थ का नाम आता है। श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र गिरनार पर्वत के ऊपर पाँच टोंके हैं। लगभग दो मील की चढ़ाई चढ़ने पर दिगम्बर मंदिर और धर्मशाला से कुछ पहले राजुल गुफा है। इस गुफा से आगे बढ़ने पर दिगम्बर जैन धर्मशाला है इसके आगे अहाते में ३ मंदिर और एक छतरी है। एक मन्दरिया में ४ फुट ऊँची खड्गासन भगवान बाहुबली की प्रतिमा है।
पार्श्व में एक छतरी में कुन्दकुन्दाचार्य के चरण हैं, सामने दीवार में पंचपरमेष्ठी की ५ मूर्तियाँ बनी हैं। छतरी के पार्श्व में एक जिनमंदिर है। अहाते के प्रांगण में बड़ा मंदिर बना हुआ है। दिगम्बर मंदिर से थोड़ा आगे बढ़ने पर गोमुखी गंगा है, एक गोमुख से जलधारा निकलते रहने से जल से कई कुण्ड बन गए हैं। गोमुख के पृष्ठ भाग में एक वेदी पर तीर्थंकरों के २४ चरणचिन्ह बने हुए हैं। यह प्रथम टोंक कहलाती है। इस पवित्र कल्याणक स्थान पर हिन्दुओं ने अधिकार कर रखा है। इस गोमुख गंगा के निकट ही सहस्राम्रवन (भगवान नेमिनाथ की दीक्षा भूमि) को मार्ग जाता है। यहाँ से कुछ आगे चलने पर राखंगार के दुर्ग का द्वार मिलता है। द्वार के बायीं ओर नेमिनाथ का विशाल और दर्शनीय मंदिर है जो कि मूलत: दिगम्बर आम्नाय का था किन्तु अब उस पर श्वेताम्बरों का अधिकार है। ९०० सीढ़ी चढ़कर द्वितीय टोंक है जहाँ अनिरुद्ध कुमार के चरण हैं, इसके निकट ही अम्बा देवी का विशाल मंदिर है। तीसरी टोंक शम्बुकुमार की है। तीसरी टोंक से १५०० सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने पर चौथा टोंक है। इस पर्वत पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ नहीं हैं, खड़ा पहाड़ है। चढ़ाई कठिन है किन्तु यात्री साहस व परिश्रम से थोड़ा कष्ट सहकर चढ़ सकते हैं। पर्वत की चोटी पर शिला में प्रद्युम्न कुमार के चरण बने हैं, चरणों के निकट ही एक फुट ऊँची मूर्ति बनी हुई है। पाँचवी टोंक पर भगवान नेमिनाथ के चरण हैं जिन्हें हिन्दू लोग दत्तात्रेय कहते हैं, चरणों के पीछे भगवान नेमिनाथ की भव्य दिगम्बर प्रतिमा विराजमान हैं, यह पाँचों टोंक व नेमिनाथ मंदिर सरकार के पुरातत्त्व विभाग के अधिकार में है। यहाँ से गये हुए मार्ग से ही वापस लौटकर सहस्राम्रवन (प्रथम टोंक) के लिए सीढ़ियाँ जाती हैं। इस दीक्षावन में एक छतरी के नीचे चरण बने हैं, यहाँ से कच्चा मार्ग धर्मशाला के लिए जाता है जो कि कष्टकर है अत: सीढ़ियों द्वारा ही मुख्य मार्ग से नीचे आना चाहिए। नीचे तलहटी में दिगम्बर जैन धर्मशाला में एक जिनालय है, धर्मशाला में अनेक कमरे हैं और यात्रियों की सुविधा हेतु समुचित व्यवस्था है। परमपूज्य आचार्यश्री निर्मलसागर महाराज की प्रेरणा से गिरनार तीर्थ का विकास हुआ है। वर्तमान में भी वहाँ ‘‘निर्मलध्यान केन्द्र’’ नामक संस्था के द्वारा नवनिर्माण आदि कार्य चल रहे हैं। पहाड़ के ऊपर प्रथम टोंक पर बनी धर्मशाला में ६ कमरे हैं। इसी प्रकार जूनागढ़ में भी ऊपर कोट के निकट क्षेत्र की एक धर्मशाला है इसमें भी यात्री हेतु सभी सुविधाएं हैं। क्षेत्र कार्यालय जूनागढ़ के जगमाल चौक में है। इस प्रकार भगवान नेमिनाथ की त्रयकल्याणक भूमि व अनेक मुनियों की सिद्धभूमि सभी के लिए कल्याणकारी होवे यही भावना है।