काशी देश में बनारस नाम का प्रसिद्ध नगर है। जिसको तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान ने अपने जन्म धारण करने से पवित्र किया था। उसी नगर में किसी समय एक सूरसेन नाम का राजा राज करता था। उसकी रानी का नाम पद्मिनी था।
एक दिन वह राजा सभा में बैठा था कि वनपाल ने आकर छ: ऋतुओं के फल-फूल लाकर राजा को भेंट किये। राजा इस शुभ भेंट से केवली भगवान का शुभागमन जानकर स्वजन और पुरजन सहित वंदना को गया और भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा करके नमस्कार करके बैठ गया।
श्री मुनिराज ने प्रथम ही मुनिधर्म का वर्णन करके पश्चात् श्रावक धर्म का वर्णन किया। उसमें भी सबसे प्रथम सब धर्मों का मूल सम्यग्दर्शन का उपदेश दिया कि-वस्तु स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान हुए बिना सब ज्ञान और चारित्र निष्फल है और वह वस्तुस्वरूप का श्रद्धान सत्यार्थ देव (अर्हन्त) सत्यार्थ गुरु (निग्र्रन्थ और) दयामयी (जिन प्रणीत) धर्म से ही होता है।
अतएव प्रथम ही इनका परीक्षापूर्वक श्रद्धान होना आवश्यक है तत्पश्चात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये पाँच व्रत एकदेश पालन करे तथा इन्हीं के यथोचित पालनार्थ सप्तशीलों (तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रतों) का भी पालन करें, इत्यादि उपदेश दिया, तब राजा ने हाथ जोड़कर पूछा-हे प्रभु! रानी के प्रति मेरा अधिक स्नेह होने का क्या कारण है? यह सुनकर श्री गुरुदेव ने कहा-
राजा! सुनो, अवन्ती देश में एक उज्जैन नाम का नगर है, वहाँ वीरसेन नाम का राजा और रानी उसकी वीरमती थी। इसी नगर में जिनदत्त नामक एक सेठ थे, उसकी जयावती नामक सेठानी से ईश्वरचन्द्र नाम का पुत्र भी था जो कि अपने मामा की पुत्री चंदना से पाणिग्रहण कर सुख से कालक्षेप करता था।
एक समय सेठ जिनदत्त और सेठानी जयावती कुछ कारण पाकर दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर मुनि-आर्यिका हो गये और तप के माहात्म्य से अपनी-अपनी आयु पूर्णकर स्वर्ग में देव-देवी हुए और पिता का पद प्राप्त करके ईश्वरचंद सेठ भी चंदना सहित सुख से रहने लगा।
एक दिन अतिमुक्तक नाम के मुनिराज मासोपवास के अनन्तर नगर में पारणा निमित्त आये सो ईश्वरचन्द्र ने भक्ति सहित मुनि को पड़गाह कर अपनी स्त्री से कहा कि श्रीगुरु को आहार देओ। तब चन्दना बोली-
स्वामी! मैं ऋतुवती हूँ, केसे आहार दूँ? ईश्वरचन्द ने कहा कि गुपचुप रहो, हल्ला मत करो, गुरुजी मासोपवासी हैं इसलिए शीघ्र पारणा कराओ।
चंदना ने पति के वचनानुसार मुनिराज को आहार दे दिया सो श्री मुनिराज तो आहार करके वन में चले गये और यहाँ तीन ही दिन पश्चात् इस गुप्त पाप का उदय होने से पति-पत्नी दोनों के शरीर में गलित कुष्ट हो गया सो अत्यन्त दु:खी हुए और कष्ट से दिन बिताने लगे।
एक दिन भाग्योदय से श्रीभद्र मुनिराज संघ सहित उद्यान में पधारे, सो नगर के लोग वंदना को गये और ईश्वरचन्द्र भी अपनी भार्यासह वंदना को गया, सो भक्तिपूर्वक नमस्कार कर बैठा और धर्मोपदेश सुना, पश्चात् पूछने लगा-
हे दीनदयाल! हमारे यहाँ कौन पाप का उदय आया है कि जिससे यह विथा उत्पन्न हुई है। तब मुनिराज ने कहा-तुमने गुप्त कपट कर पात्रदान के लोभ से अतिमुक्तक स्वामी को ऋतुवती होने की अवस्था में भी आहारपान व मन, वचन, काय शुद्ध है, कहकर आहार दिया अर्थात् तुमने अपवित्रता को भी पवित्र कहकर चारित्र का अपमान किया है सो इसी पाप के कारण से यह असातावेदनीय कर्म का उदय आया है। यह सुनकर उक्त दम्पत्ति (सेठ-सेठानी) ने अपने अज्ञान कृत्य पर बहुत पश्चाताप किया और पूछा-
प्रभु! अब कोई उपाय इस पाप से मुक्त होने का बताइये, तब श्री गुरु ने कहा-हे भद्र! सुनो-आश्विन वदी षष्ठी (गुजराती भादों वदी ६) को चारों प्रकार के आहार का त्याग करके उपवास धारण करो तथा जिनालय में जाकर पंचामृत से अभिषेक पूजन करो, अर्थात् छ: प्रकार के उत्तम और प्रासुक फलों सहित अष्टद्रव्य से छ: अष्टक चढ़ावो, अर्थात् छ: पूजा करो। एक सौ आठ (१०८) बार णमोकार मंत्र का फलों व फूलो द्वारा जाप करो, चारों संघ को चार प्रकार का दान देवो।
इस प्रकार व्रत करो। तीनों काल सामायिक, व्रत, अभिषेक, पूजन करो, घर के आरंभ व विषयकषायों का उपवास के दिन और रात्रिभर आठ प्रहर तथा धारणा-पारणा के दिन ४ प्रहर, ऐसे सोलह प्रहरों तक त्याग करो।
इस प्रकार छ: वर्ष तक यह व्रत करो। पश्चात् उद्यापन करो अर्थात् जहाँ जिनमंदिर न हो, वहाँ छ: जिनालय बनवाओ, छह: जिनबिम्ब पधरावो, छ: जिनमंदिर का जीर्णोद्धार करावो, छ: शास्त्रों का प्रकाशन करो, छ: छ: सब प्रकार के उपकरण मंदिर में चढ़ाओ, छात्रों को भोजन करावो, चार प्रकार के (आहार, औषधि, शास्त्र और अभयदान) दान देवो।
इस प्रकार दंपत्ति ने व्रत की विधि सुनकर मुनिराज की साक्षीपूर्वक व्रत ग्रहण करके विधि सहित पालन किया। कुछ दिन में अशुभ कर्म की निर्जरा होने से उनका शरीर बिल्कुल निरोग हो गया और आयु के अन्त में संन्यास मरण करके वे दम्पत्ति स्वर्ग में रत्नचूल और रत्नमाला नामक देव-देवी हुए, सो बहुत काल तक सुख भोगते और नंदीश्वर आदि अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा-वंदना करते कालक्षेप करते रहे।
अन्त में आयु पूर्णकर वहाँ से चयकर तुम राजा हुए हो और वह रत्नमाला देवी तुम्हारी पट्टरानी पद्मिनी हुई हैं। सो यह तुम दोनों का पूर्वभवों का संबंध होने से ही प्रेम विशेष हुआ है।
यह वार्ता सुनकर राजा को भवभोगों से वैराग्य उत्पन्न हुआ सो उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य देकर आपने दीक्षा ले ली और घोर तपश्चरण किया और तप के प्रभाव से थोड़े ही काल में केवलज्ञान प्राप्त करके वे सिद्धपद को प्राप्त हुए, और रानी पद्मिनी ने भी दीक्षा ली, सो वह भी तप के प्रभाव से स्त्रीलिंग छेदकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से चयकर मनुष्य भव लेकर मोक्षपद प्राप्त करेगा।
इस प्रकार ईश्वरदत्त सेठ और चंदना ने इस चंदनषष्ठी व्रत के प्रभाव से नर-सुर के सुख भोगकर मोक्ष प्राप्त किया और जो नर-नारी यह व्रत पालेंगे, वे भी अवश्य उत्तम पद पावेंगे।