श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित मेरी स्मृतियाँ — एक समीक्षा
पुरुषोत्तम दुबे
वैराग्य का अर्थ है, खिंचाव का अभाव। वैराग्य के सम्बन्ध में पतंजली ने कहा है—
दृष्टानु श्रविक विषय वितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम (१.१५)
दृष्ट और आनुश्रविक विषयों के प्रति वितृष्णा की वशीकार भावना को वैराग्य कहते हैं। इसके चार भेद है या यों कहना चाहिए कि चार स्तर है। सबसे नीचे के स्तर का नाम यतमान है । उसके ऊपर क्रमश: व्यतिरेक, एकेन्द्रिय और वशीकार आते हैं। यतमान का अर्थ ही है यत्न करता हुआ । इन्द्रियों के विषयों में जो दोष है उनके ऊपर बराबर चिन्तन करके इन्द्रियों को तथा चित्त को उनकी ओर से हटाने के प्रयत्न को यतमान कहते हैं। यह यतमान जब आगे बढ़कर सफलता प्राप्त करता है तो उसको व्यतिरेक कहते हैं और इसी का विकसित रूप एकाग्रता है। जब देखने में चित्त विषयों से हट गया हो, इन्द्रियाँ खींचकर विषयों की प्राप्ति की ओर प्रवृत करने में असमर्थ देख पड़े परन्तु फिर भी भीतर में झुकाव बना हो और विषयों के सान्निध्य में स्खलित हो जाने की संभावना वर्तमान हो उसको केन्द्रीकरण कहते हैं। प्रयत्न की पूर्ण सफलता का नाम वशीकार है। सिद्धांत वाचस्पति, न्याय प्रभाकर, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन दर्शन वैराग्य—विषयक उक्त स्तरों से भली—भाँति अनुप्राणित हुआ मिलता है। यतमान से लेकर वशीकार के मूलभूत स्तर तक उनकी यात्रा का निदर्शन उनके स्वयं के द्वारा आत्मकथात्मक शैली में विरचित ‘मेरी स्मृतियाँ’ शीर्षक ग्रंथ से मिलता है। जहाँ वे वैराग्य साधना के सर्वोच्य सोपान पर खड़ी होकर अपने को अपने ही ढंग से निर्धारित करते हुए समाज में सार्वजनिक तौर पर वैराग्य धारण का शँखनाद करती हुई मिलती है। विचार—संकुल समाज की जड़ता को चीरकर और बहुसँख्यक रूढ़ियों और थोथी परम्पराओं की थाती को नकारकर, अपने सुयोग्य लक्ष्य को धर्मगुरूओं के आशीष रूपी पारस से छुआकर श्री ज्ञानमती माताजी जैन जगत की नहीं अपितु देश की बहुश्रुत विदुषी हो चुकी है। वे आर्यिकारत्न के अलंकार से सुशोभित हैं। इस महती अलंकार की अधिकारिणी होने में उन्हें जितना भी समय लगा है, तथा इस दिशा में जितने भी जनकल्याणकारी उपक्रम उन्होंने किए हैं, ‘मेरी स्मृतियाँ’ उन सबका पता बतलाने वाली उन्हीं के द्वारा विरचित आत्म साक्षात्कार की तर्ज पर एक जिल्द बंद सूची है। वैराग्य धारण कोई नियति नहीं है, अपितु, आत्म कल्याण करने का एक मौलिक अधिकार है। माया की विलक्षणता के प्रति आकर्षित संसार सुखी है और सो रहा है। विषयों का उपभोग ही उसके लिए सबसे बड़ा सुख है और आसक्ति की नींद ही उसके लिए सर्वोपरि है। इन सबमें खोकर वह अज्ञानी यह नहीं जान पाता है कि वह ‘परमात्मा’ के समान ही परमात्मा का एक स्वतंत्र रूप है और जब तक माया के षड्यन्त्र को वह विफल नहीं कर देता है, तब तक न तो वह आवागमन से मुक्त हो पाएगा और न ही ब्रह्मलीन हो पाएगा। संसृति की क्रीड़ा अनन्त है। इस अनन्त क्रीड़ा में बेचरा ‘जीव’ भटका हुआ है। इस अँधेरी कोठरी से बाहर निकलने में जितना ‘आत्म—विश्लेषण’ मदद करता है, उतना ही पारिवारिक परिवेश भी सहायक सिद्ध होता है। पारिवारिक रिश्तों के प्रति यदि अतिशय लगाव है, तो यह भी मनुष्य के लिए ‘मुक्ति’ पाने की दिशा में व्यवधान है। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने जन्म लेने के उपरान्त जब आँख खुलते ही संसार को प्रथम बार निहारा , तब उनके निरापद जीवन में प्रथमावस्था में ही रिश्तों की ‘कोई’ नहीं जम पाई। अपितुु, उनके दैदीप्यमान बाल रूप में सहसा एक प्रभा मंडल जागृत हो चुका था, उस पुस्तक की वजह से जिसका नाम है ‘पद्मनंदिपञ्चविंशतिका’ और जिसको श्री माताजी को जन्म देने वाली ‘माता’ अपने साथ ‘दहेज’ में लाई थी। गर्भावस्था में ही सँस्कारों के बीज रोपित हो जाते हैं, यह कथन मिथ्या नहीं है। साँसारिक माता—पिता किसको क्या दे सकते हैं भला ? सन्तानों के प्रति उत्तरदायित्व के निर्वहन के अतिरिक्त और कोई चमत्कार उनके पास नहीं होता है, जिसके बल पर वे अपनी सन्तान को यशस्वी और भाग्यवान बना सके। परन्तु यदि माता—पिता के द्वारा संतान के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन ‘‘ईश्वर को साक्षी’ मानकर किया जाता हो, तो उनकी यह सच्चाई संतान के विकास का पथ—प्रशस्त करने में सहायक निरूपित होती है। श्री माताजी धन्य है, जिनको माता—पिता की ओर से संस्कारित मुखरता जन्म—जात मिली है। इसी मुखरता ने मैना (माताजी का दीक्षापूर्व नाम) को ‘वीरमती’ बनाया है। क्योंकि ‘श्मशान वैराग्य’ तो बहुतों ने देखे हैं। मगर छोटी सी, मात्र अट्ठारह वर्ष की आयु में ‘सप्तम प्रतिमा रूप’ ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर, उन्नीस वर्ष की अवस्था में ‘श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र’ पर ‘क्षुल्लिका’ की दीक्षा ग्रहण कर लेना ‘इहलौकिकता’ के मध्य लोक कल्याण के निमित्त ‘अवतार’ लेने के समकक्ष आश्चर्य निर्मित करता है। साधारण मनुष्य इसलिए साधारण है कि वह ‘स्व—ववेकी’ होने के उपरान्त भी सांसारिक आशंकाओं से घिरा मिलता है। वह सतगुरूओं के समीप इसलिए नहीं जाता है, ताकि ‘विषय—विलास’ का उच्चासन छोड़कर उसको कहीं कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलना न पड़ जाये। आर्यिकारत्न श्री माताजी ने ‘विवेक’ और ‘लोक सेवा’ के ‘अलख’ को जलाये हुए रखा और महान गुरूओं के परम सान्निध्य के प्रति सदैव ‘बुभुक्षित’ बनी रही। आत्म—कल्याण करने का अधिकार और जनकल्याण करने का गुरुतर भार शिरोधार्य करते हुए श्री माताजी ने आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज से ‘‘सप्तम प्रतिमा रूप’’ ब्रह्मचर्य धारण कर लिया। तथा उन्नीस वर्ष की अवस्था में आचार्य श्री से ही ‘श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र’ पर ‘क्षुल्लिका’ दीक्षा ग्रहण कर ली। यह कौतुक नहीं, अपितु अंधेरों में भटकी हुई सांसरिकता को एक ‘विराट् ज्योति—पुंज’ प्रदान करने की ‘अलौकिक—बेला’ थी। इसी बेला में श्री माताजी की दृढ़ता देखकर आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने उनको ‘वीरमती’ की संज्ञा से सुशोभित / अलंकृत किया। पृथ्वी पर यदि सब ‘देव’ हों जायें, तो स्वर्ग की स्वायत्तता का प्रश्न अवश्यभेव उठेगा ही। लेकिन इस अधम जगत में ‘देव’ बनने की ‘फुरसत’ किसको कहाँ पड़ी है। ईष्र्या और विद्वेष से परिचलित लोक समाज किसी के ‘साधु’ होने पर उसके पीछे परिवार—विषयक आर्थिक अभाव की मन्त्रणा गढ़ता है और आक्षेप मढ़ता है कि विवाह जैसे माँगलिक कार्य के निष्पादन में व्यय—विषयक असमर्थता भी ‘साध्वी’ होने के द्वार खोल देती है। पूज्य श्री ज्ञानमतीजी ने बड़ी सहजता के साथ ऐसी उठती ऊँगलियों का मुँह तोड़ जवाब दिया है एवं ऐसे ही तमाम प्रश्नों के सारगर्भित उत्तर बिना किसी ‘लाग—लिहाज’ के सपाट शैली में अपनी आत्मकथा ‘मेरी स्मृतियाँ’ में लिखित रूप में दे दिये हैं। १ ताकि आने वाले युग में समाज के परिव्याप्त ‘‘विषैली—गंध’’ और ‘‘पीव’’ को बुहारने के वास्ते यदि कोई शक्ति—स्वरूपा कुमारी कन्या, सौभाग्यवती महिला या विधवा महिला विश्व—कल्याण के निमित्त ‘साध्वी’ का चोला पहिनने को आतुर हो, तो यह ‘दिगभ्रमित’ संसार आक्षेपों के काले अक्षर उनकी ‘धवल—कीर्तियों’ पर ‘कुविशेषणों’ में लिख नहीं सके। छह वर्षों तक आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के संघ में रहकर श्री माता जी ने ध्यानाध्ययन किया और परोपकार को जीवन की सार्थकता माना । पूज्य श्री माताजी ने कुमारी कन्याओं, सौभाग्यवती महिलाओं एवं अनेक विधवा महिलाओं को ‘कीचड़’ से निकालकर ‘मोक्ष मार्ग’ में लगाया है। वहीं कई नवयुवकों को एवं प्रौढ़—पुरूषों को भी शिक्षा प्रदान कर त्याग के चरम—शिखर तक पहुँचाया है। आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज ने कहा है कि ज्ञानमती माताजी बहुत पुरूषार्थीं हैं।२ अनेक विरोध के होते हुए भी वे सदैव ही अडिग रही हैं। श्री माताजी की इसी अडिगता के फलस्वरूप हस्तिनापुर में ‘जम्बूद्वीप’ के निर्माण का कार्य संभव हो सका है। यह श्रीमाताजी के अथक यत्न का कारण है कि वहाँ ‘ज्ञान—ज्योति’ भी अखण्ड रूप से जल रही है। यहाँ जम्बूद्वीप ज्ञान—ज्योति सेमिनार का उल्लेख करना आवश्यक है। जो कि २१ अक्टुबर से २ नवम्बर १९८२ तक आयोजित हुआ है। जिसका उद्घाटन तत्कालीन सांसद श्री राजीव गाँधी ने किया था। इस धार्मिक समारोह में श्री राजीव गाँधी के वक्तव्य—’धर्म को राजनीति से अलग रखना ही आवश्यक है’ के जवाब में श्री माताजी ने राजीवजी से सहमत होते हुए अपने प्रत्युत्तर में दृष्टि—सम्पन्न विचारों को कहते हुए रखा कि, ‘धर्म को राजनीति से अलग रखा जाये’, यह बात ठीक है, पर इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीति को धर्मनीति के साथ चलाया जाये तभी देश में सुख और शांति हो सकती है। श्री ज्ञानमति माताजी के उक्त प्रत्युत्तर में उनके द्वारा इस बात पर जोर दिया गया कि शासन से ‘‘हिंसा’’ को प्रश्रय नहीं मिलना चाहिए। आज जिस मांस निर्यात निरोध की यत्र—तत्र—सर्वत्र चर्चा है, पूज्य माताजी सदैव से इस हेतु प्रयत्नशील रही हैं। १९८२ का उक्त प्रत्युत्तर इसी सन्दर्भ में प्रतीत होता है। श्री माताजी गाँधीजी की अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की विचारधारा से ही देश और जन—जन का हित होना स्वीकार करती हैं। यह सुमेरू पर्वत और श्री ज्ञानमती माताजी का प्रभाव था कि छह वर्ष की अल्प—अवधि में ‘जम्बूद्वीप’ बनकर तैयार हो गया। २८ अप्रेल से २ मई, १९८५ तक ‘जम्बूद्वीप’ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। भारत वर्ष के आधुनिक युग में यह एक ऐसी महान घटना है, जो जन—कल्याण के निमित्त घटी है। इसी समय २६—२८ अप्रेल ८५ के मध्य सम्पन्न international Seminar on Jaina School of Mathematics & Cosmology जैनधर्म की वैज्ञानिकता को विश्वव्यापी आयाम देने वाली अकादमिक उपलब्धि है। हस्तिनापुर की जिस तेजस्वी स्थली पर ‘जम्बूद्वीप’ का निर्माण कराया गया, वह वही भूमि है जहाँ आदि तीर्थंकर वृषभदेव को प्रथम बार ‘इक्षुरस’ का आहार राजा श्रेयांस ने दिया था और स्वप्न में सुमेरु पर्वत देखा था। शायद इसलिये ऊँचे सुमेरू पर्वत का निर्माण यहाँ की पवित्र—स्थली पर हुआ है। एक ही नहीं, न जाने कितने इतिहास इस भूमि से जुड़े हुए हैं। देखिए न रक्षा बंधन पर्व, महाभारत की कथा, मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा का इतिहास, द्रोपदी के शील का महत्व, राजा अशोक और रोहिणी का सम्बन्ध, अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनियों का उपसर्ग, गजकुमार मुनि का उपसर्ग तथा भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ के चार—चार कल्याणक का सौभाग्य यहाँ की माटी को ही प्राप्त हुआ था। उसी का पुनरूद्धार किया परम तपस्विनी गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमति माताजी ने। आधुनिक युग के महान चिन्तक और साहित्यकार अज्ञेय ने लिखा है, आत्मकथा में झूठ लिखना ज्यादा आसान है और उपन्यास में सच लिखना । (स्मृति लेखा: अज्ञेय) ऐसे ही वक्तव्य वे काँटे है जिनको श्री माताजी ने अकसर अनुभव किया है। जैसा कि ‘मरी स्मृतियाँ’ की प्रस्तावना में डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल ने लिखा है कि जब ‘मेरी स्मृतियाँ’ के प्रणयन के सिलसिले में श्री कासलीवालजी ने पूज्य माताजी से विन्रम अनुरोध किया तो, उनका एक ही जवाब था, — ‘समाज इसे आत्म प्रंशसा समझेगा।’५ किन्तु अनेक साधु आग्रहों के वशीभूत होकर ‘मेरी स्मृतियाँ’ के रूप में माताजी ने अपने जीवन की पूरी कहानी लिखकर एक गौरवपूर्ण एवं यशस्वी कार्य का सम्पादन किया है। ‘मेरी स्मृतियाँ’ श्री माताजी के खट्ठे—मीठे संस्मरणों का संकलन है। ऐसा संकलन जिसमें लेखकीय सच्चाई उभर कर सामने आई है, तथा जो तत्कालीन समाज की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला है। प्रस्तुत संकलन के प्रकाशन से समाज तथा विशेषकर युवा—पाठकों को बड़ा लाभ मिला है। पूज्य माताजी की लेखनशैली एवं घटनाओं को प्रस्तुत करने की शैली दोनों ही आकर्षक हैं। वर्तमान शताब्दी में कवीन्द्र रवीन्द्र, महात्मा गाँधी, डॉ राजेन्द्र प्रसाद एवं पण्डित जवाहरलाल नेहरू प्रभृति लेखकों ने आत्मकथाएँ लिखी है। ये सभी आत्मकथाएँ महत्वपूर्ण मानी गई है। तथा देश के सभी वर्गों में समादृत है। जैन जगत में स्वर्गीय क्षुल्लक गणेश प्रसादजी ‘वर्णी’ द्वारा लिखित आत्म कथा ‘मेरी जीवन गाथा’ तथा पूर्व में अट्ठारहवीं शताब्दी के जैन कवि बनारसी दास द्वारा लखित ‘‘अद्र्ध कथानक’’ शीर्षक से ‘आत्म कथा’ मिलती है। उक्त सभी आत्मकथाएँ प्रेरक होकर लोक जीवन को व्यवस्थित बनाने में कारगर साबित हुई हैं। आत्म कथाओं के लेखन का दौर वर्तमान युग में भी व्याप्त है। प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन द्वारा ‘बसेरे से दूर’ शीर्षक से लिखी गई आत्मकथा, तथा अमृता प्रीतम की ‘‘रसीदी टिकिट’ जैसी आत्मकथा सामने आई है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि हिन्दी जगत जो कई वर्षों से उत्पीड़न झेल रहा है, ऐसे जगत के उद्धार के निमित्त हिन्दी भाषा में आत्मकथा लेखन गिना—चुना ही हुआ है । अनेक आत्मकथायें अग्रेंजी अथवा उर्दू से हिन्दी में अनुदित हुई हैं। इस दृष्टि से मेरी स्मृतियाँ आत्मकथा के लेखन के क्षेत्र में, अपितु हिन्दी में आत्मकथा के लेखन के क्षेत्र में एक महान उपलब्धि मानी जाएगी। गणिनी आर्यिका ने जिस सच्चाई के साथ ‘मेरी स्मृतियाँ’ को संजोया है, उससे न केवल हिन्दी—लेखन निहाल हुआ है, अपितु सम्पूर्ण समाज लाभान्वित भी हुआ है। ‘मेरी स्मृतियाँ’ के पारदर्शी आवरण से यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है कि चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की सुशिष्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमति माताजी जो स्वयं १०५ आर्यिका होकर भी अपने आश्रित शिष्यों को १०८ मुनि भी बना देती है। यह उनकी निरभिमानता का साक्षात उदाहरण है। अन्त में परम पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के अन्मोल वचन से ही बात को समाप्त करता हूँ कि — सीमा से अधिक किसी धर्मात्मा का स्थितिकरण भी करने का प्रयास नहीं करना चाहिए, अन्यथा स्वच्छ परम्परा दूषित होने का भय रहता है।६ कुछ शिथिलाचारी सन्तों के अवगुण ढकने वालों के लिये ये शब्द अवश्यमेव अनुकरणीय हैं। प्राप्त— ४.९.९८
सन्दर्भ :
१. मेरी स्मृतियाँ, आर्यिका ज्ञानमति, दि.जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ), प्रथम संस्करण १९९०, अध्याय—१