वन्दों श्री जिनदेव पद, वन्दूं गुरु चरणार।
वन्दूँ माता सरस्वती, कथा कहूँ हितकार।।
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र संबंधी कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नामक एक अति रमणीक नगर है। वहाँ का राजा कामदुक और रानी कमललोचना थी और उनके विशाखदत्त नाम का पुत्र था। उस राजा के वरदत्त नामक एक मंत्री था, जिसकी विशालाक्षी पत्नी से विजयसुन्दरी नामक एक कन्या बहुत सुन्दर थी, जिसका पाणिग्रहण राजपुत्र विशाखदत्त ने किया था। कितनेक दिन बाद राजा कामदुक की मृत्यु होने पर युवराज विशाखदत्त राजा हुआ।
एक दिन राजा अपने पिता के वियोग से व्याकुल हो उदास बैठा था कि उसी समय उस ओर विहार करते हुए श्री ज्ञानसागर नाम के मुनिवर पधारे। राजा ने उनको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उच्चासन दिया, तब मुनिश्री ने धर्मवृद्धि कह आशीष दी और इस प्रकार संबोधन करने लगे-
राजा! सुनो, यह काल (मृत्यु), सुर (देव) नर, पशु आदि किसी को भी नहीं छोड़ता है। संसार में जो उत्पन्न होता है सो नियम से नष्ट होता है। ऐसी विनाशीक वस्तु के संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद ही क्या? यह तो पक्षियों के समान रैन (रात्री) बसेरा है। जहाज में देश-देशान्तर के अनेक लोग आ मिलते हैं, परन्तु अवधि पूरी होने पर सब अपने-अपने देश को चले जाते हैं।
इसी प्रकार ये जीव एक कुल (वंश-परिवार) में अनेक गतियों से आ-आकर एकत्रित होते हैं और अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर संचित कर्मानुसार यथायोग्य गतियों में चले जाते हैं। किसी की यह सामथ्र्य नहीं कि क्षणमात्र भी आयु को बढ़ा सके। यदि ऐसा होता तो बड़े-बड़े तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि पुरुषों को क्यों कोई मरने देता? मृत्यु से यद्यपि वियोगजनित दु:ख अवश्य ही मोह के वश मालूम होता है, तथापि उपकार भी बहुत होता है। यदि मृत्यु नहीं होती तो रोगी रोग से मुक्त न होता, संसारी कभी सिद्ध न हो सकता, जो जिस दशा में होता, उसी में रह जाता। इसलिए यह मृत्यु उपकारी भी है, ऐसा समझकर शोक तजो। इस शोक से (आर्तध्यान से) अशुभ कर्मों का बंध होता है जिससे अनेकों जन्मांतरों तक रोना पड़ता है। रोना बहुत दु:खदाई है।मुनिवर के उपदेश से राजा को कुछ धैर्य बंधा। वे शोक तजकर प्रजापालन में तत्पर हुए और मुनिराज भी विहार कर गये।
एक दिन रानी ने संयमभूषण आर्र्यिका के दर्शन करके पूछा-माताजी! मेरे योग्य कोई व्रत बताइये, जिससे मेरी चिंता दूर होवे और जन्म सुधरे तब आर्यिका जी ने कहा-तुम त्रैलोक्य तीज व्रत करो। भादों सुदी ३ को उपवास करके चौबीस तीर्थंकरों के ७२ कोठे का मंडल मांडकर तीन चौबीसी पूजा विधान करो और तीनों काल १०८ जाप (ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्कालसंबंधिचतुर्विंशतितीर्थज्र्रेभ्यो नम:) जपो, रात्रि को जागरण करके भजन व धर्मध्यान में काल बितावो। इस प्रकार तीन वर्ष तक यह व्रत कर पीछे उद्यापन करो, अथवा द्विगुणित करो। इसे दूसरे लोग रोट तीज भी कहते हैं।
उद्यापन करने के समय तीन चौबीसी का मण्डल मांडकर बड़ा विधान पूजन करना चाहिए और प्रत्येक प्रकार के उपकरण तीन तीन श्री मंदिर जी में भेंट कर चर्तुसंघ को चार प्रकार का दान देवो। शास्त्र छपाकर बांटो। इस प्रकार रानी ने व्रत की विधि सुनकर विधिपूर्वक इसे धारण किया। पश्चात् आयु के अंत में समाधिमरण करके सोलहवें स्वर्ग में स्त्रीलिंग छेदकर देव हुई। वहाँ नाना प्रकार के देवोचित सुख भोगे तथा अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की वंदना आदि करते हुए यथासाध्य धर्मध्यान में समय बिताया।
पश्चात् वहाँ से चयकर मगधदेश के कंचनपुर नगर में राजा पिंगल और रानी कमललोचना के सुमंगल नाम का अति रूपवान तथा गुणवान पुत्र हुआ। सो वह राजपुत्र एक दिन अपने मित्रों सहित वनक्रीड़ा को गया था कि वहाँ पर परम दिगम्बर मुनि को देखकर उसे मोह उत्पन्न हो गया, सो मुनि की वंदना करके उनके निकट बैठा और पूछने लगा-हे प्रभो! आपको देखकर मुझे मोह क्यों उत्पन्न हुआ?तब श्री गुरु कहने लगे-वत्स! सुन, यह जीव अनादिकाल से मोहादि कर्मों से लिप्त हो रहा है और क्या जाने इसके किस-किस समय के बांधे हुए कौन-कौन कर्म उदय में आते हैं जिनके कारण यह प्राणी कभी हर्ष व कभी विषाद को प्राप्त होता है।
इस समय जो तुझे मोह हुआ है इसका कारण यह है कि इसके तीसरे भव में तू हस्तिनापुर के राजा विशाखदत्त की भार्या विजयसुन्दरी नाम की रानी थी, सो तुझे संयमभूषण आर्यिका ने सम्बोधन करके त्रैलोक्य तीज का व्रत दिया था, जिसके प्रभाव से तू स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से चयकर यहाँ राजा पिंगल के सुमंगल नाम का पुत्र हुआ है और वह संयमभूषण आर्यिका का जीव वहाँ से समाधिमरण करके स्वर्ग में देव हुआ।
वहाँ से चयकर यहाँ मैं मनुष्य हुआ हूँ, सो कोई कारण पाकर दीक्षा लेकर विहार करता हुआ यहाँ आया हूँ इसलिए तुझे पूर्व स्नेह के कारण यह मोह हुआ है।
हे वत्स! यह मोह महादु:ख का देने वाला त्यागने योग्य है। यह सुनकर सुमंगल को वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने इस संसार को विडम्बनारूप जानकर तत्काल जैनेश्वरी दीक्षा धारण की और कितने काल तक घोर तपश्चरण करके केवलज्ञान को प्राप्त होकर मोक्षपद प्राप्त किया।
इस प्रकार विजयसुन्दरी रानी ने त्रैलोक्य तीज व्रत को पालन कर देवों और मनुष्यों के उत्तम सुखों को भोगकर निर्वाण पद प्राप्त किया। सो यदि और भी भव्य जीव श्रद्धा सहित यह व्रत पालें तो वे भी ऐसी उत्तम गति को प्राप्त होवेंगे।
विजयसुन्दरी व्रत किया, तीज त्रिलोक महान।
सुरनर के सुख भोगकर,‘दीप’ लहा निर्वाण।।१।।