इन्दौर नगर से ६५ कि.मी. एवं धार नगर से १३ कि.मी. दूर पश्चिम दिशा में श्री संकटमोचन आहू पार्श्वनाथ दि.जैन अतिशय क्षेत्र, आहू में स्थित है। इन्दौर-धार-अहमदाबाद मार्ग से जुड़ा होने के कारण यहाँ आवागमन सुलभ है। मालवा की भूमि पर धार नगरी में राजा भोज का राज्य था, आचार्य मानतुंग स्वामी को जब उन्होंने ४८ कोठरियों में (बन्दीगृह में) बन्द कर दिया तब उन्होंने भगवान आदिनाथ की भक्ति करते हुए ४८ काव्यों की रचना की जिससे बन्दीगृह के ४८ ताले स्वयमेव टूट गए, भक्ति का ऐसा चमत्कार देखकर राजा भोज को भी मुनिराज के समक्ष नतमस्तक होना पड़ा। वह स्तोत्र आज भक्तामर स्तोत्र के नाम से जाना जाता है। पुरातात्त्विक वैभव की छटा और शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण आहू मंदिर में देखने को मिलता है। आहू में भगवान पार्श्वनाथ की एक फुट ७ इंच अवगाहना प्रमाण चमत्कारिक प्रतिमा विराजमान है, जिसके अनेकों प्रमाण जैन एवं जैनेतर लोगों की जुबान पर प्रसंगवश आते हैं और लोकव्यवहार में भी कहे और सुने जाते हैं। यह क्षेत्र ५०० वर्ष प्राचीन माना जाता है। आहू में विराजित पार्श्वनाथ प्रतिमा लगभग ३५० वर्ष तक भव्य चैत्यालय में भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रेरित करती रही परन्तु कहते हैं कि पहले यहाँ लगभग १५० घर जैनों के थे। आज से लगभग १५० वर्ष पूर्व चैत्यालय का रूपान्तर मंदिर में किया गया। वहाँ लगातार धर्मप्रेमी लोेगों का जमावड़ा बना रहता है। पार्श्वनाथ भगवान के जन्मोत्सव पर विशाल मेले का आयोजन प्रतिवर्ष होता रहता था, दूर-दूर से यात्रीगण आकर यहाँ ठहरते थे। समय चक्र के साथ-साथ जैन समाज के लोगों का शहरों की ओर आकर्षण बढ़ता गया, नवीन व्यवसायों ने उन्हें प्रवासित होने के लिए बाध्य किया। आहू में मंदिर में पूजा-प्रक्षाल के लिए घर ही नहीं बचे। एक ब्राह्मण इसकी देखरेख करने लगा, मंदिर जी जीर्ण-शीर्ण हो चला। जब धार के उत्साही नवयुवकों को यह बात मालूम पड़ी तो वे लोग आहू जाकर मंदिर की जीर्ण-शीर्ण हालत देखकर चिन्तातुर हुए। धार नगर के उत्साही नवयुवकों के मन में अरिहंत भक्ति का अपूर्व भाव जागृत हुआ। मंदिर के जीर्णोेद्धार का प्रस्ताव उन्होंने समाज के समक्ष रखा। तीर्थ रक्षा समिति के ध्यान में इस बात को लाने पर उन्होंने इस प्रस्ताव को काफी व्यय साध्य बताकर इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया तब उन उत्साही युवकों ने यह भार अपने जिम्मे लिया और पुरूषार्थ ने अपना रंग दिखाया। मंदिर का भित्ति निर्माण, सिंहद्वार, वेदी प्रतिष्ठा सन् १९८६ में हुई और अप्रैल १९९६ में जीर्णोद्धार के प्रथम चरण का कार्य सम्पन्न हुआ। द्वितीय चरण में यात्रियों के आवास हेतु विशाल धर्मशाला, भोजनशाला आदि का एवं एक प्रवचन हाल का निर्माण हुआ। तृतीय चरण में वर्ष १९९८ में मंदिर पर ध्वजारोहण के लिए ध्वजदण्ड स्थापना व मूलनायक संकटमोचन आहू पार्श्वनाथ को कमलासन पर विराजमान किया गया। तीर्थ का विकास कार्य अभी प्रारंभ है। वर्तमान में आहू अतिशय क्षेत्र की विकास गाथा जन-जन द्वारा मुक्त कंठ से कही जाती है। अतिशय के कारण ही ग्रामोन्नति की झलक यहाँ सहज रूप में देखी जा सकती है। आवागमन के लिए पहुँच मार्ग, विद्युतिकरण, संचार साधनों का विकास, पथ वृक्षारोपण आदि से यह क्षेत्र सुगम, सुरम्य तथा आकर्षण का केन्द्र बन गया है। दिगम्बर जैन समाज के यहाँ पर ५ घर हैं। जिनेन्द्र भक्ति की अविरल धारा, दिगम्बर संतों के मंगल विहार तथा यात्रियों के आवागमन से अपूर्व आनंद का वातावरण बना रहता है। संतों की अमृतवाणी का प्रभाव यहाँ के निवासियों पर पड़ने से उनके जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन हुए हैं।
वार्षिक मेला- प्रतिवर्ष पौष वदी ग्यारस के दिन यहाँ वार्षिक मेला लगता है, जिसमें हाथी, घोड़े , बग्घियाँ आदि रहती हैं। भारतवर्ष के कई भागों से यात्रीगण प्रतिदिन यहाँ अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करने आते रहते हैं। क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ- क्षेत्र पर जयसागर धर्मशाला है। ३ कमरे और १ हाल भी है। भोजनशाला आदि की सुविधा नहीं है।