मत्तगयंद छंद श्रीमत वीर हरे भवपीर, भरें सुखसीर अनाकुलताई।
केहरि अंक अरीकरदंक, नये हरि पंकति मौलि सुआई।।
मैं तुमको इत थापत हौं प्रभु, भक्तिसमेत हिये हरषाई।
हे करूणा-धन-धारक देव, इहाँ अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक
(चाल-द्यानतरायकृत नंदीश्वराष्टकादिक अनेक रागों में बनती है)
क्षीरोदधिसम शुचि नीर, कचंन भृंग भरों।
प्रभु वेग हरो भवपीर, यातेंं धार करों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वद्र्धमान गुणधीर, सन्मति दायक हो।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
मलयागिरि चन्दनसार, केसर संग घसों।
प्रभु भवआताप निवार, पूजत हिय हुलसों।।श्रीवीर.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।।
तंदुलसित शशिसम शुद्ध, लीनों थार भरी।
तसु पुंज धरों अविरुद्ध, पावों शिवनगरी।।श्रीवीर.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमान जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे।
सो मनमथभंजन हेत, पूजों पद थारे।।श्रीवीर.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।
रसरज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी।
पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी।।श्रीवीर.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
तमखंडित मंडित नेह, दीपक जोवत हों।
तुम पदतर हे सुखगेह, भ्रमतम खोवत हों।।श्रीवीर.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।
हरिचंदन अगर कपूर, चूर सुगंध करा।
तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा।।श्रीवीर.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
रितुफल कल-वर्जित लाय, कंचन थार भरों।
शिव फलहित हे जिनराय, तुम ढिग भेंट धरों।।श्रीवीर.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमान जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।
जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरों।
गुणगाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरों।।श्रीवीर.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
पंचकल्याणक के अघ्र्य -राग टप्पा- मोहि राखो हो सरना,
श्री वद्र्धमानजिनरायजी, मोहि राखो.।।
गरभ साढ़सित छट्ट लियो तिथि, त्रिसला उर अघ हरना।
सुर सुरपति तित सेव कर्यो नित, मैं पूजों भवतरना।।मोहि.।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
जनम चैत सित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कनवरना।
सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भवहरना।।मोहि.।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लात्रयोदश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
मंगसिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना।
नृप कुमार घर पारन कीनों, मैं पूजों तुम चरना।।मोहि.।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
शुकलदशैं वैशाख दिवस अरि, धाति चतुक क्षय करना।
केवल लहि भवि भवसर तारे, जजों चरण सुख भरना।।मोहि.।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
कार्तिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुर तें वरना।
गणफनिवृन्द जजें तित बहुविध, मैं पूजों भय हरना।।मोहि.।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णामावस्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
छंद-हरिगीता,
२८ मात्रा गणधर अशनिधर, चक्रधर, हलधर, गदाधर वरवदा।
अरु चापधर, विद्यासुधर तिरशूलधर, सेवहिं सदा।।
दु:खहरन आनंदभरन तारन, तरन चरन रसाल हैं।
सुकुमाल गुण मणिमाल उन्नत भालकी जयमाल है।।१।।
छंद घत्तानंद
जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगदानंदन चंदवरं।
भवतापनिकंदन, तनकनमंदन, रहित सपंदन नयन धरं।।२।।
छंद त्रोटक
जय केवलभानु-कला-सदनं। भवि-कोक-विकाशन कंदवनं।
जगजीत महारिपु मोहहरं। रजज्ञान-दृगांवर चूर करं।।१।।
गर्भादिक-मंगलमंडित हो। दु:खदारिदको नित खंडित हो।
जगमांहि तुम्हीं सतपंडित हो, तुमही भवभाव-विहंडित हो।।२।।
हरिवंश सरोजन को रवि हो। बलवंत महंत तुम्हीं कवि हो।
लहि केवल धर्म प्रकाश कियो। अबलों सोइमारग राजति यो।।३।।
पुनि आप तने गुण मांहि सही। सुरमग्न रहैं जितने सबहीं।
तिनकी वनिता गुनगावत हैं। लय माननिसों मनभावत हैं।।
पुनि नाचत रंग उमंग भरी। तुम भक्ति विषैं पग एम धरी।
झननं झननं झननं झननं। सुर लेत वहाँ तननं तननं।।५।।
घननं घननं घनघंट बजै। दृमदं दृमदं मिरदंग सजै।
गगनांगन-गर्भगता सुगता। ततता ततता अतता वितता।।६।।
धृगतां धृगतां गति बाजत है। सुरताल रसालजु छाजत है।
सननं सननं सननं नभमें। इकरूप अनेक जु धारि भ्रमें।।७।।
कई नारि सुबीन बजावत हैं। तुमरो जस उज्जवल गावत हैं।
करताल विषैं करताल धरैं। सुरताल विशाल जु नाद करैं।।८।।
इन आदि अनके उछाह भरी। सुरभक्ति करें प्रभुजी तुमरी।
तुमही जग जीवन के पितु हो। तुमही बिनकारन के हितु हो।।९।।
तुम ही सब विघ्न विनाशन हो। तुम ही निज आनंदभासन हो।
तुमही चितचिंतितदायक हो। जगमांहि तुम्हीं सबलायक हो।।१०।।
तुमरे पन मंगल मांहि सही। जिय उत्तम पुण्य लियो सबही।
हमको तुमरी शरणागत है। तुमरे गुण में मन पागत है।।११।।
प्रभु मो हिय आप सदा बसिये। जबलों वसु कर्म नहीं नसिये।
तबलों तुम ध्यान हिये वरतो। तबलों श्रुतचिंतन चित्त रतो।।१२।।
तबलों व्रत चारित चाहतु हों। तबलों शुभभाव सुगाहतु हों।
तबलो सतसंगति नित्त रहो। तबलों मम संजम चित्त गहो।।१३।।
जबलों नहिं नाश करों अरि को। शिव नारि वरो समता धरिको।
यह द्यो तबलों हमको जिनजी। हम जाचतु हैं इतनी सुनजी।।१४।।
घत्ता छंद
श्रीवीरजिनेशा नमित सुरेशा, नाग नरेशा भगति भरा।
‘वृन्दावन’ ध्यावै विघन नशावै, वांछित पावै शर्म वरा।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीवद्र्धमानजिनेन्द्राय महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
दोहा
श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूजैं धर प्रीत।
‘वृन्दावन’ सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत।।
।। इत्याशीर्वाद:।।