स्थापना
नरेन्द्र छंद
श्रीमन् शांति कुंथु अर जिनवर, तीर्थंकर पदधारी।
चक्रवर्ति सम्राट् हुए ये, कामदेव पदधारी।।
तिहुँजग भ्रमण विनाशन हेतू, इनका यजन करूँ मैं।
आह्वानन स्थापन करके, सन्निधिकरण करूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरजिनेश्वरा:। अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरजिनेश्वरा:। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरजिनेश्वरा:। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक
नरेन्द्र छंद
तीनलोक भर जाय नाथ मैं, इतना नीर पिया है।
फिर भी तृप्ति न हुई अत: अब, जल से धार दिया है।।
शांति कुंथु अर तीर्थंकर को, पूजूँ मनवचतन से।
रत्नत्रयनिधि मिले नाथ अब, छूटूँ भवभव दुख से।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में बहु देह धरे मैं, उनसे शांति न पाई।
इसी हेतु चंदन से पूजूँ, मिले शांति सुखदाई।।शांति.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह शत्रु ने आत्मसौख्य मुझ, खंड खंड कर रक्खा।
शालि पुंज से जजूँ अखंडित, सौख्य मिले यह इच्छा।।शांति.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कामदेव ने तीनजगत को, निज के वश्य किया है।
उसके जेता आप अत: मैं, अर्पण पुष्प किया है।।शांति.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
काल अनादी से क्षुध व्याधी, भोजन से नहीं मिटती।
व्यंजन सरस बनाकर जिनपद, अर्पण से वह नशती।।शांति.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहतिमिर ने तीन जगत को, अंध समान किये हैं।
दीपक से तुम आरति करके, ज्ञान उद्योत हिये है।।शांति.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट कर्म ये संग लगे हैं, इनका नाश करूँ मैं।
तुम सन्निधि में धूप जलाकर, सुरभित धूम्र करूँ मैं।।शांति.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुत कुदेव नमन कर मैंने, अविनश्वर फल चाहा।
फिर भी आश हुई नहिं पूरी, अत: आप ढिग आया।।शांति.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, स्वर्णथाल भर लाया।
सर्वोत्तम फल पाने हेतू, अघ्र्य चढ़ाने आया।।शांति.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
शांति कुंथु अर नाथ के, चरणों में त्रय बार।
शांतीधारा मैं करूँ, मिले शांति भंडार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बकुल कमल चंपा जुही, सुरभित हरसिंगार।
तुम पद पुष्पांजलि करूँ, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
तीर्थक्षेत्र को अर्घ
दोहा
शांति कुंथु अरनाथ के, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
हस्तिनागपुर में हुए, चार कल्याण महान् ।।१।।
ॐ ह्रीं हस्तिनागपुरे गर्भजन्मतपोज्ञानकल्याणकप्राप्तेभ्य: श्रीशांतिकुंथु-अरतीर्थंकरेभ्य: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांति कुंथु अरनाथ ने, पाया पद निर्वाण।
श्री सम्मेदाचल जजूँ, सिद्धक्षेत्र सुखदान।।२।।
ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरात् निर्वाणपदप्राप्तेभ्य: श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्य: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
हस्तिनागपुर में हुये, काश्यप गोत्र ललाम।
नमूँ नमूँ नत शीश मैं, शांति कुंथु अर नाम।।१।।
शंभु छंद
जय शांतिनाथ तुम तीर्थंकर, चक्री औ कामदेव जग में।
माता ऐरावति धन्य हुर्इं, पितु विश्वसेन भी धन्य बने।।
भादों वदि सप्तमि गर्भ बसे, जन्में वदि ज्येष्ठ चतुर्दशि में।
इस ही तिथि में दीक्षा लेकर, सित पौष दशमि केवली बने।।२।।
शुभ ज्येष्ठ कृष्ण चौदश तिथि में, शिवपद साम्राज्य लिया उत्तम।
इक लाख वर्ष आयू चालिस, धनु१ तुंग चिह्नमृग तनु स्वर्णिम।।
हे शांतिनाथ! तीनों जग में, इक शांती के दाता तुमही।
इसलिये भव्यजन तुम पद का, आश्रय लेते रहते नितही।।३।।
श्री कुंथुनाथ पितु सूरसेन, माँ श्रीकांता के पुत्र हुए।
श्रावणवदि दशमी गर्भ बसे, वैशाख सितैकम२ जन्म लिये।।
इस ही तिथि में दीक्षा लेकर, सित चैत्र तीस केवलज्ञानी।
वैशाख सितैकम मुक्ति बसे, पैंतिस धनु तुंग देह नामी।।४।।
पंचानवे सहसवर्ष आयू, स्वर्णिम तनु छाग३ चिह्न प्रभु को।
सत्रहवें तीर्थंकर छट्ठे, चक्रेश्वर कामदेव तनु हो।।
तुम पदपंकज का आश्रय ले, भविजन भववारिधि तरते हैं।
निजआत्मसौख्य अमृत पीकर, अविनश्वर तृप्ती लभते हैं।।५।।
अरनाथ! सुदर्शन पिता आप, माँ ख्यात मित्रसेना जग में।
फाल्गुन सित तीज गर्भ आये, मगसिर सित चौदश को जन्में।।
मगसिर सित दशमी दीक्षा ले, कार्तिक सित बारस ज्ञान उदय।
प्रभु चैत्र अमावस्या शिवपद, धनु तीस तुंग तनु सुवरणमय।।६।।
चौरासी सहसवर्ष आयू, प्रभु चिह्न मीन४ से जग जानें।
हम भी तुम पद पंकज में नत, सब रोग शोक संकट हानें।।
जय जय रत्नत्रय तीर्थंकर, जय शांति कुंथु अर तीर्थेश्वर।
जय जय मंगलकर लोकोत्तम, जय शरणभूत है परमेश्वर।।७।।
मैं शुद्ध बुद्ध हूँ सिद्ध सदृश, मैं गुण अनंत के पुञ्जरूप।
मैं नित्य निरंजन अविकारी, चििंच्चतामणि चैतन्यरूप।।
निश्चयनय से प्रभु आप सदृश, व्यवहार नयाश्रित संसारी।
तुम भक्ती से यह शक्ति मिले, निज संपत्ति प्राप्त करूँ सारी।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिकुंथुअरतीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
दोहा
तुम पद भक्ति प्रसाद से, मिले यही वरदान।
‘ज्ञानमती’ निधि पूर्ण हो, मिले अंत निर्वाण।।९।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।