जैन तीर्थ गंधर्वपुरी इंदौर-भोपाल मार्ग पर सोनकच्छ नगर से उत्तर में करीब ९ किलोमीटर दूरी पर पक्की सड़क से जुड़ा हुआ छोटी-छोटी विन्ध्याचल की पर्वत श्रेणियों के मध्य स्थित है। इसके पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वत की श्रेणियाँ हैं, तो पश्चिम में १.५ किलोमीटर की दूरी पर कालीसिंध नदी बहती है। यह ऐतिहासिक दि. जैन तीर्थ है जहाँ पर भगवान महावीर रुके थे। यह बात १३वीं शताब्दी में लिखी गई जैनधर्म की पुस्तक कालकाचार्य कथानक से भी प्रभावित होती है। कालिदास के प्रसिद्ध ग्रंथ मेघदूत में भी उज्जैन के पूर्व में स्थित गंधर्वपुरी का उल्लेख किया गया है। गाँव के एक छोर में एक नाला बहता है, जिसके उस पार कुशवाह (काछी) समाज की बस्ती है वहाँ पर एक शिव मंदिर है। गाँव के लोग इस शिवमंदिर को राजाओं के मंदिर के नाम से पुकारते हैं। इस नाले को पूर्वज सोमवती नदी के नाम से बताते हैं, जिसमें पहले पूरे वर्ष पानी बहता रहता था, किन्तु सिंचाई होने से पूरे वर्ष पानी बहना बंद हो गया है। शोधकर्ताओं की राय है कि इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यह बहुत बड़ा नगर था। इसके पूर्व दक्षिण में ५ किमी. दूर तालोद नामक गाँव है, जहाँ पर मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं और वहीं से सोमवती नदी (नाले) का उद्गमस्थल माना जाता है। उत्तर पूर्व में पहाड़ी के उस पार ग्राम कथनारिया करीब ४-५ किलोमीटर पर स्थित है जहाँ पर भी मूर्तियाँ एवं अवशेष मिलते हैं। इसी प्रकार पश्चिम उत्तर में ग्राम बेराखेड़ी है जो कि राजपूत लोगों की बस्ती है, ऐसा प्रतीत होता है कि बेराखेड़ी अपभ्रंशरूप में है। मूल शब्द वीरखेड़ा है। इसी प्रकार दक्षिण पश्चिम में ग्राम सुराखेड़ा, जिसकी गंधर्वपुरी से दूरी ३ किमी. है, कालीसिंध नदी के तट पर स्थित है, वह भी राजपूतों का गाँव है। संभवत: सूराखेड़ा का शुद्धरूप सूरखेड़ा होगा। पूर्व में ग्राम लोंदिया के पास पहाड़ी के समीप से ग्राम गन्धावल का प्रवेश द्वार माना जाता था, इसे पुतलीघोड़ा स्थान कहते हैं, क्योंकि वहाँ पर एक पत्थर का स्तंभ आज भी गड़ा है। वर्तमान में भी सड़क पहाड़ी के किनारे से निकलती है, इससे यह ज्ञात होता है कि जो राजा हुआ होगा, उसने इसकी सुरक्षा की दृष्टि से भी चुनकर एक नगर में रूप में बसाया होगा। सभ्यता का विकास हमेशा नदियों के किनारे होता रहा है, जैसे सिंधु घाटी की सभ्यता, इसी प्रकार यह गाँव भी कालीसिंध नदी के किनारे बसा है। यहाँ पर भी प्राचीन मूर्तियाँ एवं अवशेष पाये जाते हैं, इससे सिद्ध हो जाता है कि यह एक प्राचीन नगर रहा होगा। गंधर्वपुरी के स्थापत्य एवं मूर्तिकला को देखकर लगता है कि यह सभी प्रतिमाएँ गुप्तकाल के पूर्व की पाँचवी-छठी शताब्दी की हैं। आज वर्तमान में यहाँ पुरातत्व विभाग की ओर से एक संग्रहालय स्थित है, जिसमें सैकड़ों जैन, शिव, वैष्णव धर्म की मूर्तियाँ संंग्रहीत हैं। वैसे भी गाँव में यत्र-तत्र मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हुई है, प्रत्येक मकान के दासों में मूर्तियाँ लगी हैं, पुरातत्व दृष्टिकोण से मध्यप्रदेश में गंधर्वपुरी का २३वाँ स्थान है। बुजुर्गों से ज्ञात होता है कि गाँव में जो हरिजन मोहल्ला नाले के किनारे स्थित है वहाँ एक जैन मंदिर था जिसके अवशेष वहाँ आज भी विद्यमान हैं। पुरातत्व संग्रहालय में यहाँ की एक विशाल जैन प्रतिमा संग्रहालय में रखी है, जिसकी लम्बाई करीब १२ फुट है एवं चौड़ाई ४ फुट है। इस मंदिर के कुछ अवशेष गाँव के एक मकान में लगे हैं। वर्तमान में गाँव के मध्य में एक दिगम्बर जैन मंदिर स्थित है, जिसमें मूलनायक मूर्ति श्री पार्श्वनाथ भगवान की है और यह मंदिर करीब २५० वर्ष पुराना है जो चूने एवं पतली र्इंट का बना हुआ है। ग्रंथों में चूने के मंदिर का महत्व अलग ही है, मंदिर क्रेक होने से इसमें गार्डर लगाई हैै। शोधकर्ता यहाँ की प्राचीन जैन प्रतिमा एवं अवशेषों को देखकर यह तर्वâ लगाते हैं कि यह एक बहुत बड़ा नगर एवं व्यापारिक केन्द्र रहा होगा। यहाँ पर अनेक जैन मंदिर थे, साथ ही जैन परिवार की बाहुल्यता भी थी। शोधकर्ताओं के मत के अनुसार यहाँ जैन परिवार होने के कारण यदि खुदाई की जावे तो पुरानी सम्पदा भी मिलना चाहिए। यहाँ वर्तमान में जैनियों के मात्र ५ परिवार ही रह गये हैं। आज भी यहाँ पर भगवान आदिनाथ से लेकर भगवान महावीर स्वामी की एवं करीब सभी तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं, किन्तु कुछ मूर्तियाँ चिन्ह समाप्ति होने से ज्ञात नहीं हो पा रही हैं कि यह कौन से तीर्थंकर की मूर्ति है, वैसे आज भी गाँव में जमीन के नीचे अनेक मूर्तियाँ दबी पड़ी हैं। कुछ जगह मकान की नींव खोदने पर बड़े-बड़े पत्थर के बने कमरे एवं सीढ़ियाँ मिली हैं। यहाँ पर अभी दो जैन तीर्थंकर की विशाल प्रतिमा है, इनमें एक मूर्ति माताजी के मंदिर के पीछे स्थित है। मूर्ति का छत्र टूटा है जो मूर्ति के समीप रखा है, संभवत: यह मूर्ति श्री शांतिनाथ तीर्थंकर की है इसकी लम्बाई करीब १७ फीट होनी चाहिए। इसके जमीन के अंदर की लम्बाई १० फीट एवं नीचे ७ पुâट गड़ी होना चाहिए, इसकी चौड़ाई करीब ४.५ फीट है। वैसे इस गाँव का तीर्थक्षेत्र के संदर्भ में काफी महत्व है। श्री बलभद्र जैन ने (गंधावल) वर्तमान में गंधर्वपुरी के संदर्भ में भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ मंदिर भाग-३ में इसका उल्लेख किया है। गंधर्वपुरी का उल्लेख गंधावल के नाम से प्राचीन जैन स्मारक दिगम्बर जैन डायरेक्टरी में मुद्रित सन् १९१४ में सरस्वती लायब्रेरी खण्डवा पुस्तक में किया गया है, जिसमें इसका प्राचीन नाम चम्पावती है एवं यहाँ से २ मील दूर पर्वत पर एवं जैन मंदिर के खण्डर हैं। यहाँ पुरातत्त्व पर शोध करने वाले अनेक विद्वान समय-समय पर आते रहे हैं जिसमें मुख्य हैं-डॉ. यू.एन.राय-इलाहाबाद विश्वविद्यालय, डॉ. प्रज्ञा मिश्रा-इंदौर के साहित्यकार डॉ. चन्द्रशेखर दुबे इत्यादि। इनका अनुमान है कि इसका पुराना नाम गन्धावल रहा होगा। डॉ. वैलाशनाथ काटजू जो कि जवाहरलाल के परिषद में गृहमंत्री थे, तब वे यहाँ आये थे उन्हें इस गाँव में प्राचीन मूर्तियाँ देखकर बेहद लगाव हो गया था, बाद में जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने इसे सड़क से इंदौर-भोपाल मार्ग से जुड़वाया एवं पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना करवाई। साथ ही इसका नाम गंधावल से गंधर्वपुरी करवाया। डॉ. त्रिवेदी जो कि काटजू साहब के मंत्री काल में पुरातत्व विभाग में थे, उनका मत था कि मध्यप्रदेश के पुरातत्व विभाग ने गंधावल उर्पक गंधर्वपुरी के साथ बिल्कुल न्याय नहीं किया है। वैसे यहाँ की अनेक अच्छी एवं आकर्षक मूर्तियाँ भोपाल, देवास एवं दिल्ली संग्रहालयों में ले जाई गई है। आज हमारी जैन समाज पुराने जैन मंदिर पर ध्यान न देकर नये तीर्थ पर ध्यान देती है। यह सत्य है कि यहाँ मंदिर में जो मूर्ति पार्श्वनाथ भगवान की है बहुत ही चैतन्य एवं चमत्कारी है, वैसे पुरानी मूर्तियों में ज्यादा महत्व चैतन्यता एवं आकर्षण होता है। यहाँ के जैनवासियों को गर्व है कि हम एक प्राचीन जैन धरोहर के बीच में उस गाँव में रह रहे हैं, किन्तु यहाँ जैन समाज विस्तृत नहीं होने के कारण एवं पूर्णरूप से आर्थिक कमी के कारण इस धरोहर के विकास में अड़चन आ रही है। क्षेत्र पर ठहरने हेतु मात्र एक गेस्ट हाउस है। इस तीर्थ को विकास की आवश्यकता है। इसकी रक्षा और विकास करना समस्त धर्मानुरागियों का पावन कर्तव्य है। यह तीर्थ जैन संस्कृति के अतीत की बहुमूल्य धरोहर है। वार्षिक मेला- पौष वदी ग्यारस के दिन (पार्श्वनाथ जन्मोत्सव पर) वार्षिक मेला लगता है।