Jambudweep - 7599289809
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श्री सम्मेदशिखर वंदना – स्तोत्र
December 10, 2017
स्तुति
jambudweep
श्री
सम्मेदशिखर
वंदना
गणिनीप्रमुख श्री
ज्ञानमती
माताजी
(अनुष्टुप् छंद)
सिद्धान् सर्वान् नमस्कृत्य, सिद्धस्थानं जिनेशिनाम्।
पूज्यं सम्मेदशैलेन्द्रं, भक्त्या संस्तौमि सिद्धये।।१।।
विंशतितीर्थकर्तार:, कूटेषु विंशतौ शिवम्।
असंख्ययोगिनश्चापि, जग्मु: सर्वान्नमाम्यहम्।।२।।
सिद्धों को कर नमस्कार, सम्मेदगिरीन्द्र स्तवन करूँ।
सिद्धिभूमि के वंदन से कटु, कर्मकाष्ठ को दहन करूँ।।
बीस कूट पर बीस जिनेश्वर, और असंख्य महामुनिगण।
शुक्लध्यान से कर्म नाशकर, सिद्धवधू को किया वरण।।
(अनुष्टुप् छन्द:)
कूटे सिद्धवराभिख्येऽजितनाथ: शिवं ययौ।
सहस्रमुनिभि: सार्धं, वन्दे भक्त्या शिवाप्तये।।३।।
(आर्यास्कन्ध छन्द)
तत्टेकू चैकार्बुद — चतुरशीतिकोटिपंचचत्वािंरशत्।
लक्षप्रमिता मुनयो, दग्ध्वा कर्माणि मुक्तिमापुर्योगात्।।४।।
(अनुष्टुप्) मनसा वपुसा वाचा, संततं भक्तिभावत:।
तान् सुसिद्धान् नमस्यामि, स्वकर्ममलहानये।।५।।
कूटसिद्धवर से श्री अजितप्रभु, सहस्र मुनियों के साथ।
भवसमुद्र से पार हुये हैं, वंदन करूँ नमाकर माथ।।
मुनिगण एक अरब चौरासी, कोटि तथा पैंतालीस लक्ष।
इसी कूट पर कर्मनाश कर, मोक्ष गये वंदूँ मैं नित।।
(अनुष्टुप्) धवलदत्तकूटे श्री — संभवो कर्महानित:।
सहस्रमुनियुङ् मोक्ष — राज्यं प्रापन्नमाम्यहम्।।६।।
(आर्यास्कन्ध) तत्र नवकोटिकोट्यो, द्विसप्ततिलक्ष—सप्तसहस्रमिताश्च।
द्विचत्वािंरशदधिकै:, पंचशतीति मुनय: शिवपुरं जग्मु:।।७।।
(अनुष्टुप्) तान् मुनीन्द्रान्नमस्कुर्वे, स्वसंवेदनसिद्धये।
यत: कर्मरिपून् हत्वा, प्राप्नुयाम् तत्पदं त्वरम्।।८।।
धवलदत्त कूट से संभव, नाथ हजार साधुगण साथ।
मोह शत्रु को जीत मुक्तिपद, पाये वंदूं बनूं कृतार्थ।।
उसही से नव कोटाकोटि, लक्ष बहत्तर सात हजार।
ब्यालीस अधिक पाँच सौ मुनिगण, मुक्ति गये वंदूं भवतार।।
आनन्दकूटत:
श्रीम — दभिनंदनतीर्थकृत।
सहस्रमुनियुङ् मुक्ति, ययौ सर्वान् नमाम्यहम्।।९।।
तस्मात्त्रिसप्ततिकोटि—कोट्यश्च सप्ततिकोटि—सप्ततिलक्षा:।
सप्तसहस्राणि द्विचत्वा—रिंशदधिकपंचशतानि प्रमिता:।।१०।।
शुक्लध्यानाग्निना दग्ध्वा, कर्मेधनानि संयता:।
सिद्धिं प्रापुर्नमस्तेभ्य:, शुक्लध्यानस्य सिद्धये।।११।।
आनन्दकूट से अभिनंदन जिन, सहस्रमुनि सह सिद्ध हुये।
भवसागर से पार करो मुझे, नमूँ सदा बहु भक्ति लिये।।
तदनु तिहत्तर कोटाकोटि, सत्तरकोटि सत्तर लक्ष।
सात हजार पाँच सौ ब्यालीस, मुनिगण नमूँ मुक्ति के कांत।।
कूटेऽविचलनाम्नि श्री – सुमति: सुमतिप्रद:।
सहस्रयोगियुक्सिद्धिं , ययौ सर्वान् नमाम्यहम्।।१२।।
तस्मिन्नेकार्बुदचतु – रशीतिकोटिचतुर्दशलक्षप्रमिता:।
सप्तशतैकाशीति-युता मुनीन्द्रा: शाश्वतसौख्यमवाप:।।१३।।
संसाराम्बुधिमुत्तीर्यो – त्तारयितुं परान् क्षमा:।
नमस्करोमि भक्त्या तान्, सिद्धान् स्वात्मोपलब्धये।।१४।।
सुतिनाथ जिन सहस्रमुनि सह, अविचल नाम कूट पर से।
कामदर्प हर मुक्तिधाम पर, पहुँचे वंदूं प्रीति से।।
उसी कूट से एक अरब, चौरासी कोटि चतुर्दश लक्ष।
सात शतक इक्यासी यतिगण, मुक्त हुये मैं नमूँ सतत।।
मोहनकूटत: पद्म – प्रभो मोहद्विषो जयी।
सहस्रमुनियुङ्मोक्षं – ययौ सर्वांस्स्तवीमि तान्।।१५।।
तदनु नवकोटिकोट्य:, सप्ताशीतिलक्षका: सहस्राणि स्यु:।
त्रिचत्वारिंशच्च तथा, सप्तशतसप्तविंशतिमिता: सिद्धा:।।१६।।
घात्यघातिविघाताय, कर्मविजयिनश्च तान्।
सर्वान्सिद्धान्नमस्कुर्वे, तत्कूटं च बुधैर्नुतम्।।१७।।
मोहनकूट से श्री पद्मप्रभु, सहस्रमुनि सह शिव पाये।
जन्म मरण दुख नाश हेतु हम, नमन करें शिवपुर जायें।।
कोटि निन्यानवे लक्ष सत्यासी, सहस तेतालिस सात शतक।
सत्ताइस मुनिगण उससे ही, शिवपुर पहुँचे नमूँ सतत।।
कूटे प्रभासत: श्रीमान्, सुपार्श्व: स्मरपाशभित्।
मुनिसहस्रयुङ्मुक्ति – श्रियं लेभे प्रणौमि तं।।१८।।
तस्मादूनपंचाशत्-कोटिकोट्यश्च चतुरशीतिकोट्य: स्यु:।
द्विसप्ततिलक्षसप्त-सहस्राणि सप्तशतद्विचत्वारिंशत्।।१९।।
एतत्संख्यामिता: भव्या, शिवधाम प्रपेदिरे।
तान् तत्कूटं च वंदेऽहं, भवभ्रमणहानये।।२०।।
प्रभासकूटपर सुपार्श्व देव, सहस्रमुनि सह मुक्ति गये।
उन सिद्धों अरु सिद्धभूमि को, हम नितप्रति ही नमन किये।।
तदनु उनंचास कोटाकोटि, चौरासी कोटि बहत्तर लक्ष।
सात सहस सात सै ब्यालीस, मुनि शिव पहुंचे वंदूँ नित।।
ललितघटकूटे श्री-चन्द्रप्रभो महर्षिभि:।
सहस्रै: सह निर्वाण-राज्यं प्रापत् स्तवीमि तम्।।२१।।
चतुरशीतिकोट्यर्बुद-द्विसप्ततिकोट्यशीति-लक्षप्रमिता:।
चतुरशीतिसहस्राणि, पंचपंचाशच्च पंचशतमिता मुनय:।।२२।।
कर्माटवीं विदंदह्य, परमध्यानवन्हिना।
अनंतास्पदमापुस्तान्, नमस्यामि विशुद्धये।।२३।।
कूट ललित घट से चंद्रप्रभ, सहस्रमुनि सह शाश्वत धाम।
मोहपाश को छेदन कर पहुंचे, मैं उनको करूँ प्रणाम।।
वहीं चौरासी कोटि अरब अरु, कोटि बहत्तर अस्सी लक्ष।
सहस चौरासी पाँच सै पचपन, मुनि शिव पायें नमूँ सतत।।
सुप्रभकूटत: पुष्प-दन्तनाथो यतीशिनाम्।
सहस्रै: सह कर्मारीन्, हत्वा मुक्तिं ययौ स्तुवे।।२४।।
तत्कूटे नवनवतिकोटि-नवतिलक्ष-सप्तसहस्राणि च।
अशीत्युत्तरचतु:शत-कलिता यतय: शिवं गता जितमोहा:।।२५।।
मोहपाशाद्विनिर्गन्तुं, यियासु: शाश्वतास्पदम्।
तान् तत्क्षेत्रं च वंदेऽहं, भक्त्या कल्मषशांतये।।२६।।
सुप्रभ कूट से पुष्पदंत जिन, सहस्रयति सह कर्म विनाश।
परमसुखास्पद धाम प्राप्त किये, नमूँ उन्हें हो स्वात्म विकास।।
उसी कूट से कोटि निन्यानवे, नव्वे लक्ष सात हजार।
चार शतक अस्सी मुनि शिवपुर, गये नमूँ मैं बारम्बार।।
कूट विद्युद्वरे देव:, शीतल: सिद्धिमाश्रित:।
सहस्रयतियुक् सर्वां-स्स्तौमि दुध्र्यानहानये।।२७।।
अष्टदशकोटिकोट्य:, कोट्य: सिद्धा अतो द्विचत्वारिंशत्।
द्वात्रिंशल्लक्षा द्वि-चत्वारिंशत्सहस्रनवशती पंच।।२८।।
एतान् सर्वान् नमस्यामि, तत्कूटं च मुदा सदा।
यमपाशविपाशाय, स्वात्मन: सौख्यसिद्धये।।२९।।
विद्युद्वर कूटपर शीतल, जिन हजार मुनि सह आये।
मृत्युपाश छेदकर त्रिभुवन, पूज्य हुये हम गुण गायें।।
वहीं अठारह कोटाकोटि, ब्यालीस कोटि लक्ष बत्तीस।
ब्यालीसहजार नव सै पाँच, साधु शिव गये नमूँ नत शीश।।
संकुलकूटत: श्रेया-ञ्जिन: सहस्रसाधुयुक्।
लेभे मुक्तिश्रियं तं तत्, कूटं च संस्तुवे श्रियै।।३०।।
षण्णवतिकोटिकोट्य:, सुषण्णवतिकोटिषण्णवतिलक्षा: स्यु।
नवतिससहस्रपंचशती-द्विचत्वारिंशदिति प्रमुक्ता: ऋषय:।।३१।।
कालचक्राद्विनिर्गन्तुं, त्रिकालं नौमि निष्कलान्।
कालकलाव्यतीतांश्च, पुष्यन्तु न: समीहितम्।।३२।।
संकूल कूट से श्रेयांसप्रभु, सहस्रमुनि सह मोक्ष गये।
कालचक्र के नाश हेतु, त्रयकाल नमूँ शुभ भाव लिये।।
वहीं छ्यानवे कोटाकोटी, छ्यानवे कोटि छ्यानवे लक्ष।
नब्बे सहस पाँच सौ ब्यालीस, साधु मोक्ष गये नमूं सतत।।
सुवीरकूटत: श्रीमान्, निष्कलो विमलप्रभु:।
सहस्रयोगियुग् लेभे-ऽनंतसौख्यं नमामि तं।।३३।।
तस्मात्सप्तति कोट्य:, षष्टिलक्षषट्सहस्रसप्तशतानि च।
द्विचत्वारिंशद्युता, मुनीश्वरा: परमसौख्यमापुर्यत्नात्।।३४।।
अंतकांतकनाशाय, विमलाशयवृत्तित:।
सर्वान् सिद्धांस्स्तुवे नित्यं, ध्यानामृतपिपासया।।३५।।
विमलनाथ भगवान् सुवीर, कूट से, सहस्रऋषिगणयुत।
चिच्चैतन्य सुधारसमय, शिव पाये वंदूँ मैं शिरनत।।
इसी से सत्तरकोटि साठ-लक्ष छहसहस सातशतक।
ब्यालिस मुनिगण अविनश्वर सुख, पाये वंदूं त्रिकरणयुत।।
स्वयंभूकूटतोऽनंत – नाथोऽनंतास्पदं ययौ।
षट्सहस्रमुनीन्द्रैर्युक्, तं तांश्च नौमि सिद्धये।।३६।।
त
दनु षण्णवतिकोटि-कोट्यश्च सप्तकोटिसप्ततिलक्षा:।
सप्ततिसहस्रसप्त-शतमितमुनयोंऽतकं सुयौगैर्जिग्यु:।।३७।।
नमस्करोमि तान् सिद्धान्, परमानंदतृप्तकान्।
नृदेवमुनिवंद्यांश्च, चैतन्यानंद – लिप्सया।।३८।।
कूट स्वयंभू से अनंत जिन, अंतकहर अनंतमय धाम।
पाया षट्सहस्रमुनियुत, उनको अनंत सुखहेतु प्रणाम।।
नंतर छ्यानवे कोटाकोटि, सत्तरकोटि सत्तरलक्ष।
सत्तर सहस सातसौ ऋषिगण, मुक्त हुये मैं नमूँ सतत।।
सुदत्तवरकूटाच्छ्री-धर्मो धर्मैकचक्रभृत्।
सहस्रयोगियुक्सिद्धि-वधूं लेभे नमामि तम्।।३९।।
तत्रोनविंशतिकोटि-कोट्यू नविंशतिकोटिनवलक्षा स्यु:।
नवसहस्रसप्तशती-पंचनवतिसंचिता: प्रमुक्ता: ऋषय:।।४०।।
क्षान्त्यादिदशधर्मस्य, प्राप्तये कर्महानये।
सिद्धिकान्तापतीन् वन्दे, तत्कूटं च विशुद्धये।।४१।।
सुदत्तकूट से धर्मतीर्थकर, सहस्रसाधुगण संयुत।
कर्ममर्महर शिव पहुँचे, दश धर्म के लिये नमूँ सतत।।
वहीं उन्नीस कोटाकोटि-उन्नीस कोटि नवलक्ष प्रणाम।
नवसहस सातसैपंचानवे-मुनिगण शिव गये उन्हें प्रणाम।।
प्रभासकूटत: शांति-र्भगवान् सिद्धिमाश्रित:।
सहस्रयतियुक्सर्वांस्तौमि भवाग्निशान्तये।।४२।।
तकूटान्नवकोटि-कोट्यो नवकोटिलक्षनवयुतमुनय:।
नवसहस्रनवशतानि च, ध्यानसुधाभिर्भवं प्रशाम्य सुशांता।।४३।।
शांत्यैषी संस्तुवे नित्यं, शांतिमात्यंतिकीं गतान्।
जन्मरोगप्रशान्त्यै मे, मन:शान्तिर्विधीयताम्।।४४।।
प्र
भासकूट से, शांतिनाथमुनि, हजारयुत यम शांत किया।
भव आताप शांति हेतु मैं, उन सबको झट नमन किया।।
उसी कूट से नव कोटाकोटि नवकोटि नव लक्ष।
नवहजार नवसौ ऋषिगण, शिवनारि वरी मैं नमूँ सतत।।
कूटे ज्ञानधरे पूज्यो, कुंथुदेवो सुरैर्नुत:।
सहस्रमुनियुक् प्रापत्, सिद्धिं सर्वान् नमामि तान्।।४५।।
पण्णवतिकोटिकोट्य:, सुषण्णवतिकोटिलक्षकद्वात्रिंशत्।
तत्र सिद्धा: षण्णवति-सहस्रसप्तशतद्विचत्वारिंशत्।।४६।।
अक्षयानंदबोधस्य, स्वामिन: स्यु: स्तवीमि तान्।
तत्कूटं च सदा मोदात्, यतो लप्स्येऽक्षयं सुखम्।।४७।।
कूट ज्ञानधर से कुंथु प्रभु, सहस्रमुनि युत मृत्युजये।
आत्यंतिक सुख शांति हेतु मैं, करूँ वंदना भाव लिये।।
उससे छ्यानवे कोटाकोटि, छ्यानवे-कोटि लक्ष बत्तीस।
छ्यानवेसहस, सात सौ ब्यालीस, मुनि शिव गये नमूं धर प्रीत।।
नाटककूटत:
श्रीमा-नरनाथो महर्षिणाम्।
सहस्रै: सह निर्वाण-सौख्यं लेभे प्रणौम्यहं।।४८।।
तदनु नवनवतिकोट्यो, नवनवतिलक्षनवनवतिसहस्रमिता:।
मुनय: संसाराम्बुधि-मुत्तीर्य निजालयं विविशुर्यत्नात्।।४९।।
मया सर्वे प्रणूयंते, सिद्धा क्लेशापहारिण:।
यानासाद्य विलोयिन्ते, रागद्वेषादिशत्रव:।।५०।।
नाटककूट से अरहनाथऋषि-सहस्रयुत निर्वाण गये।
जन्ममरण दुख नाश हेतु मैं, नमूँ सदा धर हर्ष हिये।।
उसी कूट से निन्यानवे कोटि, निन्यानवे लक्ष प्रमाण।
तथा निन्यानवे सहस महामुनि, मुक्ति गये वंदूं धर ध्यान।।
कूटसंबलतो मल्लि-प्रभु: सहस्रयोगियुक्।
प्राप्तवान् परमाह्लादा – स्पदं सर्वान् प्रणौम्यहं।।५१।।
तत्पश्चात् षण्णवति-कोट्य: ऋषयोऽक्षयास्पदं प्रतिपन्ना:।
मोहमल्लस्य जयिनो, निर्गतशल्या नमामि तान् सद्भक्त्या।।५२।।
शल्यान्युद्धर्तुकामोऽहं, मल्ले: संवलकूटकं।
उत्फुल्लमनसा वन्दे, सिद्धांश्च करकुड्मल:।।५३।।
संबल कूट से मल्लि जिनेन्द्र, सहस्रमुनि युत परमाह्लाद।
पद पाया हतमोहमल्ल को, वंदूं कर्ममल्ल नाशार्थ।।
उसी कूट से छ्यानवे कोटि, ऋषिगण मृत्युमल्ल जीते।
शल्योद्धरण हेतु मैं वंदूँ, करकुड्मल कर भक्ती से।।
कूटनिर्जरत: श्रीमान्, मुनिसुव्रत ईश्वर:।
सहस्रमुनियुक् सिद्धिं , ययौ सर्वान् प्रणौम्यहम्।।५४।।
तस्मान्नवकोटिचतु-र्लक्षािंस्त्रशत्सहस्रसंचितयतय:।
रत्नत्रयशस्त्रेण हि, घात्यघातिविद्विषं निजघ्नुर्यत्नात्।।५५।।
कर्मभस्मीकृतान् सिद्धान्, तत्कूटं च नमाम्यहम्।
शक्ति: कर्मौघहन्त्री मे, यत्प्रसादाद् भवेद् त्वरम्।।५६।।
निर्जरकूट पर मुनिसुव्रतप्रभु, सहस्र महाव्रतिक गणयुत।
ध्यानानल से कर्मदग्धकर, पहुँचे मोक्ष नमूँ मैं नित।।
वहीं नवकोटि चार लक्ष, तीस सहस संकलित प्रमाण।
मुनिगण परम सौख्य निर्वाण-राज्य को पाये उन्हें प्रणाम।।
कूटे मित्रधरे देवो, नमिनाथ: शिवं गत:।
सहस्रयतियुक् सर्वान्, वंदे मोहजिगीषया।।५७।।
न
वशतकोटिकोट्यै-कार्बुदाश्च लक्षपंचचत्वारिंशत्।
सप्तसहस्राणि तथा द्विचत्वारिंशदधिकनवशतसहिता:।।५८।।
एतत्कूटे गता: सिद्धिं , गुणरत्नाकराश्च ये।
तान् तत्कूटं च संस्तौमि, दुर्गतिच्छित्तये सदा।।५९।।
कूट मित्रधर पर नमि जिनवर, सहस्रयतिगणयुत आये।
कर्माटवी भस्मकर मोक्ष, गये उन वंदत शिव पाये।।
उस पर नवशत कोटाकोटि-एक, अरब पैंतालिस लक्ष।
सात सहस नवसौ ब्यालिस मुनि, शिव पहुँचे मैं वंदूं नित।।
स्वर्णभद्राभिधे कूटे, पार्श्वनाथो बुधैर्नुत:।
त्रिशतमुनियुङ्मुक्ति-श्रियं प्रापत् प्रणौमि तम्।।६०।।
तदनु द्वयशीतिकोट्यश्चतुरधिकाशीतिलक्षसंकलिता:स्यु:।
पंचचत्वारिंशत्सहस्राणि सप्तशतद्विचत्वारिंशत् ।।६१।।
नृदेवमुनिभिर्वंद्या, एते सर्वे शिवं ययु:।
भवपाशच्छिदेऽहं तान्, तत्कूटं च स्तुवे मुदा।।६२।।
स्वर्णभद्रकूट से पार्श्वनाथ, जिन तीन शतक मुनियुत।
मुक्तिरमा को वरण किये मैं, उन्हें नमूँ पाऊँ शिवसुख।।
वही बियासी कोटि चौरासी, लक्ष सु पैंतालीस हजार।
सातशतक ब्यालीस साधुगण, सिद्ध हुये वंदूँ सुखकार।।
(अनुष्टुप् छंद)
कैलाशशैलराजे श्री-वृषभो वृषलाञ्छन:।
सहस्रमुनियुक्सिद्धिं , भेजे सर्वांस्स्तुवे मुदा।।६३।।
भरतदोर्बलीत्याद्या, नवसहस्रमुनीश्वरा:।
तत्रकालद्विषं जिग्यु-स्तेभ्यो भक्त्या नमोऽस्तु मे।।६४।।
कैलाशशैल से वृषभ सहस-मुनियुत निर्वाण गये प्रणमूँ।
वहीं बाहुबलि भरतादिक नव-सहस्र मुनि शिव गये नमूँ।।
मंदारगिरित: स्वामी, वासुपूज्य: शिवं गत:।
सहस्रयतियुक् सर्वा-नेतान् वंदे शिवाप्तये।।६५।।
चंपापुरि से वासुपूज्य मुनि, सहस्र युत कर्मारि हने।
अव्ययपद के हेतु नमूँ मैं, मम सब वांछित कार्य बने।।
ऊर्जयन्ते प्रभुर्नेमि:, कोट्यो द्विसप्तप्रमा:।
सप्तशतमुनीन्द्राश्च, मृत्युं जिग्यु: स्तवीमि तान्।।६६।।
ऊर्जयन्तगिरि पर नेमीश्वर, प्रद्युम्न-शंभु-अनिरुद्धादिक।
कोटिबहत्तर सातसौ यतिगण, शिवकांता वरी वंदूं नित।।
पावापुर्या: सरोमध्ये, वर्धमान: शिवं गत:।
षड्विंशति-यतीन्द्राश्च, सर्वान् वन्दे पुन: पुन:।।६७।।
पावापुरी सरोवर मध्ये, वर्धमानप्रभु सिद्ध हुये।
छब्बीस साधु वहीं भव नाशे, सबको नमूँ अंजली किए।।
भरतेऽस्मिन्नयं मुक्त्यै-तीर्थेशां शाश्वतो गिरि:।
कालदोषाच्चतुस्तीर्थं-करा: सिद्धा: पृथक् पृथक् ।।६८।।
इस भरत क्षेत्र में चौबीस, तीर्थंकर का मुक्त क्षेत्र शाश्वत।
गिरि सम्मेद शिखर ही काल-दोष से ये शिव गये पृथक्।।
एतस्यामवसर्पिण्या – मस्मिन् शैले शिवं ययु:।
यावन्तोऽपि जनास्तेषां, जिनै: संख्या उदीरिता:।।६९।।
इस अवसर्पिणी युग में श्री-सम्मेदशिखर शुभ पर्वत से।
सिद्ध हुये उनकी गणना हो, गयी वीर प्रभु की ध्वनि से।।
उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योऽनंतातीतासु येऽत्र वै।
तीर्थंकरा मुनींद्राश्चा-नंता मुक्ता नमामि तान्।।७०।।
अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणि में अनंत तीर्थंकर मुक्त।
इस पर्वत से हुये अनंत मुनि-गण भी उनको नमूँ सतत।।
भाविकाले तथानन्तास्तीर्थंकराश्च योगिन:।
अस्मात्सिद्धिं प्रयास्यंति, तान् सर्वान्नौम्यहं मुदा।।७१।।
तथा भविष्यत् में अनंत, तीर्थंकर-हो शिव जायेंगे।
अनंत भविजन इस पावन, पर्वत पर कर्म जलायेंगे।
उन सब भूत भविष्यत् संप्रति, सिद्धों की वंदना करूँ।
परम समाधि ध्यानहेतु नित-प्रति चिंतन संस्तवन करूँ।।
अनाद्यनिधनस्यास्य, माहात्म्यं केन वण्र्यते।
भव्या एव प्रवंदंते, नाभव्यैर्वंद्यते कदा।।७२।
सिद्धशैल इस अनादि-अनिधन, की महिमा नहिं कह सकते।
भव्य जीव ही दर्शन पाते, नहिं अभव्य को मिल सकते।।
कुरुते वन्दनां भक्त्या, बारमेकं जनोऽस्य य:।
तिर्यङ्-नरकगत्योश्च, गमनं तस्य नो भवेत्।।७३।।
तथा चैकोनपंचाशत्, भवस्याभ्यंतरे स हि।
नियमाल्लप्स्यते मुक्ति-मेतदुत्तं जिनेश्वरै:।।७४।।
एक बार वंदना करे जो, गती नरक तिर्यंच टले।
उनंचास भव के अंदर, मुक्तिश्री निश्चित उसे मिले।।
एकेन्द्रियादयो जीवा, उत्पद्यंतेऽत्र येऽपि ते।
सर्वे भव्या जिनै: प्रोक्तं, कदापि नान्यथा भवेत्।।७५।।
यहाँ पर एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव जितने।
जन्म धारते हैं जिनवर ने, भव्यराशि में कहा उन्हें।।
व्यंतरदशलक्षेशो, महायक्षोऽत्र भूतक:।
शैलं रक्षति पापिभ्यो, भाक्तिकांश्चापि संततं।।७६।।
व्यंतर दशलक्षों का अधिपति, भूतकयक्ष यहाँ रक्षक।
नरक तिर्यग्गामी अरु अभव्य, की वंदना में है बाधक।।
वस्तु स्वभाव अनादि अनिधन, नहिं अन्तर पड़ता उसमें।
दु:साहसी अनधिकारी के, रोध में अन्य निमित्त बने।।
अस्य वन्दनयासंख्यो-पवासानां फलं भवेत्।
किमन्यैजल्पनैर्यद्धि, निर्वाणसौख्यमश्नुते।।७७।।
असंख्य उपवासाों का फल, इस पर्वत वंदन से मिलता।
अधिक और क्या जब त्रिभुवन, साम्राज्य सौख्य निश्चित मिलता।।
चतुर्विंशतितीर्थेशां, सिद्धा गणभृत: पृथक्।
चतुर्दश-शतीति द्वि-पंचाशत्तानपि स्तुवे।।७८।।
चौबीस तीर्थंकरों के गणधर, चौदहसौ बावन परिणाम।
जहाँ जहाँ से मुक्ति गये हैं, मनवचतन से करूँ प्रणाम।।
श्रुतभृतो मुनीन्द्राश्च, सिद्धा अगणितोन्यत:।
भूशैलाब्ध्यादिक्षेत्रेभ्य:, सिद्धान् क्षेत्राणि च स्तुवे।।७९।।
श्रुतधर मुनिगण अगणित अन्यत-भू-पर्वत नद्यादिक से।
मुक्तधाम को प्राप्त हुये हैं, मुक्ति हेतु वंदूँ रुचि से।।
द्वीपे सार्धद्वये यत्रा-र्हद् गणभृद् यतीश्वरा:।
सिद्धा: सिध्यंति सेत्स्यंति, तान् तत्क्षेत्राणि च स्तुवे।।८०।।
ढाई द्वीप में जहाँ जहाँ से, तीर्थंकर गणधर मुनिगण।
सिद्ध हुये, होते हैं, होंगे, उन्हें उन क्षेत्रों को भी नमन।।
पंचकल्याणमेदिन्य: सातिशयस्थलानि च।
वंदे कृताकृतांश्चापि, जिनचैत्यजिनालयान्।।८१।।
तथा पंचकल्याणक क्षेत्रों, को अतिशययुत क्षेत्रों को।
नमूँ सदा कृत्रिम अकृत्रिम, जिनचैत्यालय चैत्यों को।।
पंचमहागुरून् वागी-श्वरीं प्राक्सूरियोगिन:।
अन्वायातान् मुनींद्रांश्च, स्तौमि स्वात्मोपलब्धये।।८२।।
पंचपरमगुरु श्री श्रुतदेवी, पूर्वाचार्य साधुगण को।
स्वात्मसिद्धि के लिये नमूँ मैं, अन्वायात सभी मुनि को।।
श्रीवीरसागराचार्यं, महाव्रतप्रदायिनं।
तमनुसूरिसाधूंश्च वन्दे समाधिसिद्धये।।८३।।
वीरसिंधु आचार्य प्रवर, महाव्रतदायक गुरुवर को।
नमूँ सदा गुरु परंपरागत, सूरि तथा साधूगण को।।
क्षेत्रस्य वन्दास्तोत्रै-र्दग्ध्वा पापानि शुद्धधी:।
सम्यग् ‘‘ज्ञानमति’’ ध्यान-संपत्त्या सिद्धिमाप्नुयाम्।।८४।।
सिद्धक्षेत्र के वंदन स्तवन से, भवभव के पाप हरूँ।
सम्यग् ‘‘
ज्ञानमती
’’ समाधि के, बल से शिवसुख प्राप्त करूँ।।
।। इति श्री सम्मेदशिखरवंदना।।
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