श्रुतं मया श्रुतस्कन्धादायुष्मन्तो महाधिय:।
निबोधत पुराणं मे यथावत् कथयामि व:।।९६।।
यत् प्रजापतये ब्रह्मा भरतायादितीर्थकृत्।
प्रोवाच तदहं तेऽद्य वक्ष्ये श्रेणिक भो: शृणु।।९७।।
महाधिकाराश्चत्वार: श्रुतस्कन्धस्य वर्णिता:।
तेषामाद्योऽनुयोगोऽयं सतां सञ्चरिताश्रय:।।९८।।
द्वितीय: करणादि: स्यादनुयोग: स यत्र वै।
त्रैलोक्यक्षेत्रसंख्यानं कुलपत्रेऽधिरोपितम्।।९९।।
चरणादिस्तृतीय: स्यादनुयोगो जिनोदित:।
यत्र चर्याविधानस्य परा शुद्धिरुदाहृता।।१००।।
तुर्यो द्रव्यानुयोगस्तु द्रव्याणां यत्र निर्णय:।
प्रमाणनयनिक्षेपै: सदाद्यैश्च किमादिभि:।।१०१।।
आनुपूर्व्यादिभेदेन पञ्चधोपक्रमो मत:।
स पुराणावतारेऽस्मिन् योजनीयो यथागमम्।।१०२।।
प्रकृतस्यार्थतत्त्वस्य श्रोतृबुद्धौ समर्पणम्।
उपक्रमोऽसौ विज्ञेयस्तथोपोद्धात इत्यपि।।१०३।।
आनुपूर्वी तथा नाम प्रमाणं साभिधेयकम्।
अर्धाधिकारश्चेत्येवं पञ्चैते स्युरुपक्रमा:।।१०४।।
पूर्वानुपूर्व्या प्रथमश्चरमोऽयं विलोमत:।
यथातथानुपूर्व्या च यां कांचिद्गणनां श्रित:।।१०५।।
श्रुतस्कन्धानुयोगानां चतुर्णां प्रथमो मत:।
ततोऽनुयोगं प्रथमं प्राहुरन्वर्थसंज्ञया।।१०६।।
प्रमाणमधुना तस्य वक्ष्यते ग्रन्थतोऽर्थत:।
ग्रन्थगौरवभीरूणां श्रोतृणामनुरोधत:।।१०७।।
सोऽर्थतोऽपरिमेयोऽपि संख्येय: शब्दतो मत:।
कृत्स्नस्य वाङ्मयस्यास्य संख्येयत्वानतिक्रमात्।।१०८।।
द्वे लक्षे पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि चतु:शतम्।
चत्वािंरशत्तथा द्वे च कोट्योऽस्मिन् ग्रन्थसंख्यया।।१०९।।
एकिंत्रशच्च लक्षा: स्यु: शतानां पञ्चसप्तति:।
ग्रन्थसंख्या च विज्ञेया श्लोकेनानुष्टुभेन हि।।११०।।
ग्रन्थप्रमाणनिश्चित्यै पदसंख्योपवर्ण्यते।
पञ्चैवेह सहस्राणि पदानां गणना मता।।१११।।
शतानि षोडशैव स्युश्चतुिंस्त्रशच्च कोटय:।
व्यशीतिलक्षा: सप्तैव सहस्राणि शताष्टकम्।।११२।।
अष्टाशीतिश्च वर्णा: स्यु: संहिता मध्यमं पदम्।
पदेनैतेन मीयन्ते पूर्वाङ्गग्रन्थविस्तरा:।।११३।।
द्रव्यप्रमाणमित्युक्तं भावतस्तु श्रुताह्वयम्।
प्रमाणमविसंवादि परमर्षिप्रणेतृकम्।।११४।।
पुराणस्यास्य वक्तव्यं कृत्स्नं वाङ्मयमिथ्यते।
यतो नास्माद् बहिर्भूतमस्ति३ वस्तु वचोऽपि वा।।११५।।
यथा महार्घ्यरत्नानां प्रसूतिर्मकराकरात्।
तथैव सूक्तरत्नानां प्रभवोऽस्मात् पुराणत:।।११६।।
तीर्थकृच्चक्रवर्तीन्द्रबलकेशवसंपद: ।
मुनीनामृद्धयश्चास्य वक्तव्या: सह कारणै:।।११७।।
बद्धो मुक्तस्तथा बन्धो मोक्षस्तद्द्वयकारणम्।
षड्द्रव्याणि पदार्थाश्च नवेत्यस्यार्थसंग्रह:।।११८।।
जगत्त्रयनिवेशश्च त्रैकाल्यस्य च संग्रह:।
जगत: सृष्टिसंहारौ चेति कृत्स्नामिहोद्यते।।११९।।
मार्गो मार्गफलं चेति पुरुषार्थसमुच्चय:।
यावान् प्रविस्तरस्तस्य धत्ते सोऽस्याभिधेयताम्।।१२०।।
किमत्र बहुनोक्तेन धर्मसृष्टिरविप्लुता।
यावती सास्य वक्तव्यपदवीमवगाहते।।१२१।।
सुदुर्लभं यदन्यत्र चिरादपि सुभाषितम्।
सुलभं स्वैरसंग्राह्यं तदिहास्ति पदे पदे।।१२२।।
यदत्र सुस्थितं वसतु तदेव निकषक्षमम्।
यदत्र दु:स्थितं नाम तत्सर्वत्रैव दु:स्थितम्।।१२३।।
एवं महाभिधेयस्य पुराणस्यास्य भूयस:।
क्रियतेऽर्धाधिकाराणामियत्तानुगमोऽधुना।।१२४।।
त्रय: षष्टिरिहार्थाधिकारा: प्रोक्ता महर्षिभि:।
कथापुरुषसंख्यायास्तत्प्रमाणानतिक्रमात्।।१२५।।
त्रिषष्ट्यवयव: सोऽयं पुराणस्कन्ध इष्यते।
अवान्तराधिकाराणामपर्यन्तोऽत्र विस्तर:।।१२६।।
तीर्थकर्त्तृपुराणेषु शेषाणामपि संग्रहात्।
चतुा\वशतिरेवात्र पुराणानीति केचन।।१२७।।
पुराणं वृषभस्याद्यं द्वितीयमजितेशिन:।
तृतीयं संभवस्येष्टं चतुर्थमभिनन्दने।।१२८।।
पञ्चमं सुमते: प्रोक्तं षष्ठं पद्मप्रभस्य च।
सप्तमं स्यात्सुपार्श्वस्य चन्द्रमासोऽष्टमं स्मृतम्।।१२९।।
नवमं पुष्पदन्तस्य दशमं शीतलेशिन:।
श्रायसं च परं तस्माद् द्वादशं वासुपूज्यगम्।।१३०।।
त्रयोदशं च विमले ततोऽनन्तजित: परम्।
जिने पञ्चदशं धर्मे शान्ते: षोडशमीशितु:।।१३१।।
कुन्यो: सप्तदशं ज्ञेयमरस्याष्टादशं मतम्।
मल्लेरेकोनिंवशं स्याद् िंवशं च मुनिसुव्रते।।१३२।।
एकिंवशं नमेर्भर्तुर्नेमेर्द्वािंवशमर्हत:।
पार्श्वेशस्य त्रयोिंवशं चतुा\वशं च सन्मते:।।१३३।।
पुराणान्येवमेतानि चतुा\वशतिरर्हताम्।
महापुराणमेतेषां समूह: परिभाष्यते।।१३४।।
पुराणं महदद्यत्वे यदस्माभिरनुस्मृतम्।
पुरा युगान्ते तन्नूनं कियदप्यवशिष्यते।।१३५।।
दोषाद् दु:षमकालस्य ग्रहास्यन्ते धियो नृणाम्।
तासां हाने: पुराणस्य हीयते ग्रन्थविस्तर:।।१३६।।
तथाहीदं पुराणं न: सधर्मा श्रुतकेवली।
सुधर्म: प्रचयं नेष्यत्यखिलं मदनन्तरम्।।१३७।।
जम्बूनामा तत: कृत्स्नं पुराणमपि शुश्रुवान्।
प्रथयिष्यति लोकेऽस्मिन् सोऽन्त्य: केवलिनामिह।।१३८।।
अहं सुधर्मोजम्ब्वाख्यो निखिलश्रुतधारिण:।
क्रमात् वैâवल्यमुत्पाद्य निर्वास्यामस्ततो वयम्।।१३९।।
त्रयाणामस्मदादीनां काल: केवलिनामिह।
द्वाषष्टिवर्षपिण्ड: स्याद् भगवन्निर्वृते: परम्।।१४०।।
ततो यथाक्रमं विष्णुर्नन्दिमित्रोऽपराजित:।
गोवर्धनो भद्रबाहुरित्याचार्या महाधिय:।।१४१।।
चतुर्दशमहाविद्यास्थानानां पारगा इमे।
पुराणं द्योतयिष्यन्ति कार्त्स्न्येन शरद: शतम्।।१४२।।
विसाखप्रोष्टिलाचार्यौ क्षत्रियो जयसाह्वय:।
नागसेनश्च सिद्धार्थो धृतिषेणस्तथैव च।।१४३।।
विजयो बुद्धिमान् गङ्गदेवो धर्मादिशब्दन:।
सेनश्च दशपूर्वाणां धारका: स्युर्यथाक्रमम्।।१४४।।
त्र्यशीतिशतमब्दानामेतेषां कालसंग्रह:।
तदा च कृत्स्नमेवेदं पुराणं विस्तरिष्यते।।१४५।।
ततो नक्षत्रनामा च जयपालो महातपा:।
पाण्डुश्च ध्रुवसेनश्च कंसाचार्य इति क्रमात्।।१४६।।
एकादशाङ्गविद्यानां पारगा: स्युर्मुनीश्वरा:।
िंवशं द्विशतमब्दानामेतेषां काल इष्यते।।१४७।।
तदा पुराणमेतत् तु पादोनं प्रथयिष्यते।
भाजनाभावतो भूयो जायेत ज्ञाकनिष्ठता।।१४८।।
सुभद्रश्च यशोभद्रोभद्रबाहुर्महायशा:।
लोहार्यश्चेत्यमी ज्ञेया: प्रथमाङ्गाब्धिपारगा:।।१४९।।
शरदां शतमेषां स्यात् कालोऽष्टादशभिर्युतम्।
तुर्यो भाग: पुराणस्य तदास्य प्रतनिष्यते।।१५०।।
तत: क्रमात् प्रहायेदं पुराणं स्वल्पमात्रया।
धीप्रमोषादिदोषेण विरलैर्धारयिष्यते।।१५१।।
ज्ञानविज्ञानसंपन्नगुरुपर्वान्वयादिदम् ।
प्रमाणं यच्च यावच्च यदा यच्च प्रकाशते।।१५२।।
तदापीदमनुस्मर्तुं प्रभविष्यन्ति धीधना:।
जिनसेनाग्रगा: पूज्या: कवीनां परमेश्वरा:।।१५३।।
पुराणमिदमेवाद्यं यदाम्नातं स्वयम्भुवा।
पुराणाभासमन्यत्तु केवलं वाङ्मलं विदु:।।१५४।।
नामग्रहणमात्रं च पुनाति परमेष्ठिनाम्।
िंक पुनर्मुहुरापीतं तत्कथाश्रवणामृतम्।।१५५।।
ततो भव्यजनै: श्राद्धैरवगाह्यमिदं मुहु:।
पुराणं पुण्यपुंरत्नैर्भृतमब्धीयितं महत्।।१५६।।
तच्च पूर्वानुपूर्व्येदं पुराणमनुवर्ण्यते।
तत्राद्यस्य पुराणस्य संग्रहे कारिका विदु:।।१५७।।
स्थिति: कुलधरोत्पत्तिर्वशानामथ निर्गम:।
पुरो: साम्राज्यमार्हन्त्यं निर्वाणं युगविच्छिदा।।१५८।।
एते महाधिकारा: स्यु: पुराणे वृषभेशिन:।
यथावसरमन्येषु पुराणेष्वपि लक्षयेत्।।१५९।।
कधोपोद्धात एष स्यात् कथाया: पीठिकामित:।
वक्ष्ये कालावतारं च स्थिती: कुलभृतामपि।।१६०।।
मालिनीच्छन्द:
प्रणिगदति सतीत्थं गौतमे भक्तिनम्रा मुनिपरिषदशेषा श्रोतुकामा पुराणम्।
मगधनृपतिनामा सावधाना तदाभूद्धितमवगणयेद् वा क: सुधीराप्तवाक्यम्।।१६१।।
शार्दूलविक्रीडितम्
इत्याचार्यपरम्परीणममलं पुण्यं पुराणं पुरा कल्पे यद्भगवानुवाच वृषभश्चक्रादिभर्त्रे जिन:।
तद्व: पापकलज्र्पज्र्मखिलं प्रक्षाल्य शुिंद्ध परां देयात् पुण्यवचोजलं परमिदं तीर्थं जगत्पावनम्।।१६२।।
श्री गौतम स्वामी कहने लगे—हे आयुष्मान् बुद्धिमान् भव्यजनों, मैंने श्रुतस्कन्ध से जैसा कुछ इस पुराण को सुना है सो ज्यों का त्यों आप लोगों के लिए कहता हूँ, आप लोग ध्यान से सुनें।।९६।। हे श्रेणिक, आदिब्रह्मा प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव ने भरत चक्रवर्ती के लिए जो पुराण कहा था उसे ही मैं आज तुम्हारे लिए कहता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो।।९७।। श्रुतस्कन्ध के चार महाधिकार वर्णित किये गये हैं उनमें पहले अनुयोग का नाम प्रथमानुयोग है। प्रथमानुयोग में तीर्थंकर आदि सत्पुरुषों के चरित्र का वर्णन होता है।।९८।। दूसरे महाधिकार का नाम करणानुयोग है। इसमें तीनों लोकों का वर्णन उस प्रकार लिखा होता है जिस प्रकार किसी ताम्रपत्र पर किसी की वंशावली लिखी होती है।।९९।। जिनेन्द्रदेव ने तीसरे महाधिकार को चरणानुयोग बतलाया है। इसमें मुनि और श्रावकों के चारित्र की शुद्धि का निरूपण होता है।।१००।। चौथा महाधिकार द्रव्यानुयोग है इसमें प्रमाण, नय, निक्षेप तथा सत्संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व, निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान आदि के द्वारा द्रव्यों का निर्णय किया जाता है।।१०१।।
आनुपूर्वी आदि के भेद से उपक्रम के पाँच भेद माने गये हैं। इस पुराण के प्रारम्भ में उन उपक्रमों का शास्त्रानुसार सम्बन्ध लगा लेना चाहिए।।१०२।। प्रकृत अर्थात् जिसका वर्णन करने की इच्छा है ऐसे पदार्थ को श्रोताओं की बुद्धि में बैठा देना—उन्हें अच्छी तरह समझा देना सो उपक्रम है इसका दूसरा नाम उपोद्धात भी है।।१०३।। १ आनुपूर्वी, २ नाम, ३ प्रमाण, ४ अभिधेय और ५ अर्थाधिकार ये उपक्रम के पाँच भेद हैं।।१०४।। यदि चारों महाधिकारों को पूर्व क्रम से गिना जाये तो प्रथमानुयोग पहला अनुयोग होता है और यदि उलटे क्रम से गिना जाये तो यही प्रथमानुयोग अन्त का अनुयोग होता है। अपनी इच्छानुसार जहाँ कहीं से भी गणना करने पर यह दूसरा, तीसरा आदि किसी भी संख्या का हो सकता है।।१०५।। ग्रंथ के नाम कहने को नाम उपक्रम कहते हैं यह प्रथमानुयोग श्रुतस्कन्ध के चारों अनुयोगों में सबसे पहला है इसलिए इसका प्रथमानुयोग यह नाम सार्थक गिना जाता है।।१०६।। ग्रन्थ विस्तार के भय से डरने वाले श्रोताओं के अनुरोध से अब इस ग्रंथ का प्रमाण बतलाता हूँ। वह प्रमाण अक्षरों की संख्या तथा अर्थ इन दोनों की अपेक्षा बतलाया जायेगा।।१०७।। यद्यपि यह प्रथमानुयोग रूप ग्रंथ अर्थ की अपेक्षा अपरिमेय है—संख्या से रहित है तथापि शब्दों की अपेक्षा परिमेय है—संख्येय है तब उसका एक अंश प्रथमानुयोग असंख्येय वैâसे हो सकता है ?।।१०८।। ३२ अक्षरों के अनुष्टुप् श्लोकों के द्वारा गणना करने पर प्रथमानुयोग में दो लाख करोड़, पचपन हजार करोड़, चार सौ बयालीस करोड़ और इकतीस लाख सात हजार पाँच सौ (२५५४४२३१०७५००) श्लोक होते हैं।।१०९-११०।। इस प्रकार ग्रंथ प्रमाण का निश्चय कर अब उसके पदों की संख्या का वर्णन करते हैं। प्रथमानुयोग ग्रंथ के पदों की गणना पाँच हजार मानी गयी है और सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) अक्षरों का एक मध्यम पद होता है। इस मध्यम पद के द्वारा ही ग्यारह अङ्ग तथा चौदह पूर्वों की ग्रंथसंख्या का वर्णन किया जाता है।।१११-११३।। यह जो ऊपर प्रमाण बतलाया है सो द्रव्यश्रुत का ही है, भावश्रुत का नहीं है। वह भाव की अपेक्षा श्रुतज्ञान रूप है जो कि सत्यार्थ, विरोध रहित और केवलि प्रणीत है।।११४।। सम्पूर्ण द्वादशांग ही इस पुराण का अभिधेय विषय है क्योंकि इसके बाहर न तो कोई विषय ही है और न शब्द ही है।।११५।। जिस प्रकार महामूल्य रत्नों की उत्पत्ति समुद्र से होती है उसी प्रकार सुभाषितरूपी रत्नों की उत्पत्ति इस पुराण से होती है।।११६।। इस पुराण में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, इन्द्र, बलभद्र और नारायणों की सम्पदाओं तथा मुनियों की ऋद्धियों का उनकी प्राप्ति के कारणों के साथ-साथ वर्णन किया जायेगा।।११७।। इसी प्रकार संसारी जीव, मुक्त जीव, बन्ध, मोक्ष, इन दोनों के कारण, छह द्रव्य और नव पदार्थ ये सब इस ग्रंथ के अर्थसंग्रह हैं अर्थात् इन सबका इसमें वर्णन किया जायेगा।।११८।। इस पुराण में तीनों लोकों की रचना, तीनों कालों का संग्रह, संसार की उत्पत्ति और विनाश इन सबका वर्णन किया जायेगा।।११९।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक््âचारित्र रूप मार्ग, मोक्ष रूप इसका फल तथा धर्म, अर्थ और काम ये पुरुषार्थ इन सबका जो कुछ विस्तार है वह सब इस ग्रंथ की अभिधेयता को धारण करता है अर्थात् उसका इसमें कथन किया जायेगा।।१२०।। अधिक कहने से क्या, जो कुछ जितनी निर्बाध धर्म की सृष्टि है वह सब ग्रंथ की वर्णनीय वस्तु है।।१२१।। जो सुभाषित दूसरी जगह बहुत समय तक खोजने पर भी नहीं मिल सकते उनका संग्रह इस पुराण में अपनी इच्छानुसार पद-पद पर किया जा सकता है।।१२२।। इस ग्रंथ में जो पदार्थ उत्तम ठहराया गया है वह दूसरी जगह भी उत्तम होगा तथा जो इस ग्रंथ में बुरा ठहराया गया है वह सभी जगह बुरा ही ठहराया जायेगा। भावार्थ—यह ग्रंथ पदार्थों की अच्छाई तथा बुराई की परीक्षा करने के लिए कसौटी के समान है।।१२३।।
इस प्रकार यह महापुराण बहुत भारी विषयों का निरूपण करने वाला है। अब इसके अर्थाधिकारों की संख्या का नियम कहते हैं। इस ग्रंथ में त्रेसठ महापुरुषों का वर्णन किया जायेगा इसलिए उसी संख्या के अनुसार ऋषियों ने इसके त्रेसठ ही अधिकार कहे हैं।।१२५।। इस पुराण स्कन्ध के त्रेसठ अधिवâार व अवयव अवश्य हैं परन्तु इसके अवान्तर अधिकारों का विस्तार अमर्यादित है।।१२६।। कोई-कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि तीर्थंकरों के पुराणों में चक्रवर्ती आदि के पुराणों का भी संग्रह हो जाता है इसलिए चौबीस ही पुराण समझना चाहिए। जो कि इस प्रकार हैं—पहला पुराण वृषभनाथ का, दूसरा अजितनाथ का, तीसरा संभवनाथ का, चौथा अभिनंदननाथ का, पाँचवाँ सुमतिनाथ का, छठा पद्मप्रभ का, सातवाँ सुपार्श्वनाथ का, आठवाँ चन्द्रप्रभ का, नौवाँ पुष्पदन्त का, दसवाँ शीतलनाथ का, ग्यारहवाँ श्रेयांसनाथ का, बारहवाँ वासुपूज्य का, तेरहवाँ विमलनाथ का, चौदहवाँ अनन्तनाथ का, पन्द्रहवाँ धर्मनाथ का, सोलहवाँ शान्तिनाथ का, सत्रहवाँ कुन्थुनाथ का, अठारहवाँ अरनाथ का, उन्नीसवाँ मल्लिनाथ का, बीसवाँ मुनिसुव्रतनाथ का, इक्कीसवाँ नमिनाथ का, बाईसवाँ नेमिनाथ का, तेईसवाँ पार्श्वनाथ का और चौबीसवाँ सन्मति-महावीर स्वामी का।।१२७-१३३।। इस प्रकार चौबीस तीर्थंकरों के ये चौबीस पुराण हैं इनका जो समूह है वही महापुराण कहलाता है।।१३४।। आज मैंने जिस महापुराण का वर्णन किया है वह इस अवसर्पिणी युग के अन्त में निश्चय से बहुत ही अल्प रह जायेगा।।१३५।। क्योंकि दुषम नामक पाँचवें काल के दोष से मनुष्यों की बुद्धियाँ उत्तरोत्तर घटती जायेंगी और बुद्धियों के घटने से पुराण के ग्रंथ का विस्तार भी घट जायेगा।।१३६।। उसका स्पष्ट निरूपण इस प्रकार समझना चाहिए—हमारे पीछे श्रुतकेवली सुधर्माचार्य जो कि हमारे ही समान हैं, इस महापुराण को पूर्ण रूप से प्रकाशित करेंगे।।१३७।। उनसे यह सम्पूर्ण पुराण श्री जम्बूस्वामी सुनेंगे और वे अन्तिम केवली होकर इस लोक में उसका पूर्ण प्रकाश करेंगे।।१३८।। इस समय मैं, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी तीनों ही पूर्ण श्रुतज्ञान को धारण करने वाले हैं—श्रुतकेवली हैं। हम तीनों क्रम-क्रम से केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो जायेंगे।।१३९।। हम तीनों केवलियों का काल भगवान् वर्धमान स्वामी की मुक्ति के बाद बासठ वर्ष का है।।१४०।। तदनन्तर सौ वर्ष में क्रम-क्रम से विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु व बुद्धिमान् आचार्य होंगे। ये आचार्य ग्यारह अङ्ग और चौदह पूर्वरूप महाविद्याओं के पारंगत अर्थात् श्रुतकेवली होंगे और पुराण को सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित करते रहेंगे।।१४१-१४२।।
इनके अनन्तर क्रम से विशाखाचार्य, प्रोष्ठिलाचार्य, क्षत्रियाचार्य, जयाचार्य, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिमान्, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य अंग और दश पूर्व धारक होंगे। उनका काल १८३ वर्ष होगा। उस समय तक इस पुराण का पूर्ण प्रकाश होता रहेगा।।१४३-१४५।। इनके बाद क्रम से नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँच महातपस्वी मुनि होंगे। ये सब ग्यारह अंग के धारक होंगे, इनका समय २२०-दो सौ बीस वर्ष माना जाता है। उस समय यह पुराण एक भाग कम अर्थात् तीन चतुर्थांश रूप में प्रकाशित रहेगा फिर योग्य पात्र का अभाव होने से भगवान् का कहा हुआ यह पुराण अवश्य ही कम होता जायेगा।।१४६-१४८।।
इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य ये चार आचार्य होंगे। जो कि विशाल कीर्ति के धारक और प्रथम अंग (आचारांग) रूपी समुद्र के पारगामी होंगे इन सबका समय अठारह वर्ष होगा। उस समय इस पुराण का एक चौथाई भाग ही प्रचलित रह जायेगा।।१४९-१५०।। इसके अनन्तर अर्थात् वर्धमान स्वामी के मोक्ष जाने से ६८३- छह सौ तिरासी वर्ष बाद यह पुराण क्रम-क्रम से थोड़ा-थोड़ा घटता जायेगा। उस समय लोगों की बुद्धि भी कम होती जायेगी इसलिए विरले आचार्य ही इसे अल्परूप में धारण कर सकेंगे।।१५१।।
इस प्रकार ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न गुरुपरिपाटी द्वारा यह पुराण जब और जिस मात्रा में प्रकाशित होता रहेगा उसका स्मरण करने के लिए जिनसेन आदि महाबुद्धिमान् पूज्य और श्रेष्ठ कवि उत्पन्न होंगे।।१५२-१५३ श्री वर्धमान स्वामी ने जिसका निरूपण किया है वह पुराण ही श्रेष्ठ और प्रामाणिक है इसके सिवाय और सब पुराण पुराणाभास हैं उन्हें केवल वाणी के दोषमात्र जानना चाहिए।।१५४।। जब कि पञ्चपरमेष्ठियों का नाम लेना ही जीवों को पवित्र कर देता है तब बार-बार उनकी कथारूप अमृत का पान करना तो कहना ही क्या है ? वह तो अवश्य ही जीवों को पवित्र कर देता है—कर्ममल से रहित कर देता है।।१५५।।
जब यह बात है तो श्रद्धालु भव्य जीवों को पुण्यरूपी रत्नों से भरे हुए इस पुराणरूपी समुद्र में अवश्य ही अवगाहन करना चाहिए।।१५६।। ऊपर जिस पुराण का लक्षण कहा है अब यहाँ क्रम से उसी को कहेंगे और उसमें भी सबसे पहले भगवान् वृषभनाथ के पुराण की कारिका कहेंगे।।१५७।। श्री वृषभनाथ के पुराण में काल का वर्णन, कुलकरों की उत्पत्ति, वंशों का निकलना, भगवान् का साम्राज्य, अरहन्त अवस्था, निर्वाण और युग का विच्छेद होना ये महाधिकार हैं। अन्य पुराणों में जो अधिकार होंगे वे समयानुसार बताये जायेंगे।।१५८-१५९।।यह इस कथा का उपोद्धात है, अब आगे इस कथा की पीठिका, कालावतार और कुलकरों की स्थिति कहेंगे।।१६०।। इस प्रकार गौतम स्वामी के कहने पर भक्ति से नम्र हुई वह मुनियों की समस्त सभा पुराण सुनने की इच्छा से श्रेणिक महाराज के साथ सावधान हो गयी, सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो कि आप्त पुरुषों के हितकारी वचनों को अनादर करे।।१६१।।इस प्रकार जो आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ है, िनर्दोष है, पुण्यरूप है और युग के आदि में भरत चक्रवर्ती के लिए भगवान् वृषभदेव के द्वारा कहा गया था, ऐसा यह जगत् को पवित्र करने वाला उत्कृष्ट तीर्थस्वरूप पुराणरूपी पवित्र जल तुम लोगों के समस्त पाप कलंकरूपी कीचड़ को धोकर तुम्हें परम शुद्धि प्रदान करे।।१६२।।