(श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
भव्यात्माओं! वैशाख सुदी दशमी के दिन भगवान महावीर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था, किन्तु गणधर के अभाव में ६६ दिन तक उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी। उस समय इन्द्र ने बुद्धिबल से इन्द्रभूति नामक ब्राह्मण को वहाँ उपस्थित किया। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने अपने भाई अग्निभूति और वायुभूति के साथ तथा अपने पाँच सौ शिष्यों सहित प्रभु के समवसरण में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तत्क्षण ही वे मन:पर्ययज्ञान से और सात महाऋद्धियों से सम्पन्न होकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। पुन: उन्होंने भगवान से ‘‘जीव है या नहीं’’ इत्यादि रूप से अनेंको प्रश्न किए। उस समय भगवान की दिव्यध्वनि खिरने लगी।
राजगृही नगर में विपुलाचल पर्वत के ऊपर भगवान महावीर की सबसे प्रथम दिव्यदेशना हुई है। वह दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का था। जो कि आज भी ‘‘वीर शासन जयंती’’ के नाम से प्रसिद्ध है।
गौतम स्वामी ने उसी दिन बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रंथों की एक ही मुहूर्त में रचना की। इस तरह भावश्रुत और अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर भगवान महावीर हैं और तीर्थंकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रुतपर्याय से परिणत हुए इसलिए दिव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। इस तरह गौतम गणधर से ग्रंथ रचना हुई। गौतम स्वामी ने दोनों प्रकार का ज्ञान लोहाचार्य को दिया।
लोहाचार्य ने भी जंबूस्वामी को दिया। परिपाटी क्रम से ये तीनों ही सकल श्रुत के धारक कहलाये और यदि परिपाटी क्रम की अपेक्षा न की जाये तो उस समय संख्यात हजार सकलश्रुत के धारी हुए। गौतम स्थविर, लोहाचार्य और जंबूस्वामी ये तीनों ही सप्तद्र्धिसम्पन्न सकल श्रुतधर होकर अंत में केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इसके बाद विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से चौदह पूर्व के धारी हुए।
अनंतर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थ, स्थविर, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह महामुनि ग्यारह अंग और दश पूर्वों के ज्ञाता हुए तथा शेष चार पूर्वों के एकदेश ज्ञाता हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, ध्रुवसेन और वंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य ग्यारह अंगों के ज्ञाता हुए और चौदह पूर्वों के एकदेश ज्ञाता हुए।
तदनंतर सुभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य ये चारों ही आचार्य संपूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग-पूर्वों के एकदेश के धारक हुए। इसके बाद सभी अंग और पूर्वों का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ।
पद्यावली में लोहाचार्य के अनंतर ‘‘अर्हद्वलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबली’’ ऐसा क्रम लिया है एवं इन्द्रनंदिकृत-श्रुतावतार में लोहाचार्य के अनंतर अंगपूर्व के एकदेश ज्ञाता में ‘‘विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त ये चार नाम कहे हैं।
पुन: अर्हद्वलि नाम के महानज्ञानी आचार्य हुए, जिन्होंने पृथक्-पृथक् संघ व्यवस्था बनाई। इनके बाद ‘‘माघनन्दि’’ आचार्य हुए, वे भी अंगपूर्व के एकदेश ज्ञाता थे। पुन: धरसेनाचार्य हुए।
सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में रहने वाले अष्टांग महानिमित्तज्ञानी श्रीधरसेनाचार्य ने ‘‘अंगपूर्व श्रुतज्ञान का विच्छेद न हो जाये’’ इसलिए ‘‘महामहिमा अर्थात् पंचवर्षीय साधु सम्मेलन में आये हुए दक्षिणपथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा।
लेख को पढ़कर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नानागुण युक्त-देश, कुल और जाति से शुद्ध ऐसे दो साधुओं को आंध्रदेश की वेभानदी के तट से भेजा। इधर श्रीधरसेनाचार्य ने स्वप्न में देखा कि अत्यन्त शुभ और उन्नत दो बैल हमारी तीन प्रदक्षिणा देकर चरणों में पड़ गये हैं। स्वप्न से संतुष्ट हुए श्री धरसेन भट्टारक ने ‘जयतु श्रुतदेवता’ ऐसा वाक्य उच्चारण किया और उठ बैठे।
उसी दिन प्रात: वे दोनों मुनि श्रीगुरु के पास पहुँचे और विनयपूर्वक कृतिकर्म विधि से उनकी पादवंदना की। अनंतर दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनों ने निवेदन किया कि ‘‘हम श्रुत अध्ययन हेतु आपके पादमूल में आये हुये हैं।’’ उनके वचनों को सुनकर गुरु ने ‘‘अच्छा है, कल्याण हो’’ ऐसा कहकर उन्हें आश्वासन दिया।
‘‘जो साधु भग्नघट आदि के समान श्रोताओं को मोह से श्रुत का व्याख्यान करते हैं वे रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर भव वन में चिरकाल तक भ्रमण करते हैं।’’ इस वचन के अनुसार स्वच्छंदतापूर्वक आचरण करने वाले श्रोताओं को विद्या देना संसार और भय का ही बढ़ाने वाला है, ऐसा सोचकर शुभ स्वप्न देखने मात्र से ही यद्यपि आचार्य श्री ने उन मुनियों की विशेषता को जान लिया था, तो भी उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया, क्योंकि उत्तम प्रकार की परीक्षा ही हृदय में संतोष को उत्पन्न करती है।
इसके बाद आचार्य ने उन दोनों को दो विद्याएं दीं। उनमें से एक अधिक अक्षर वाली थी और दूसरी हीन अक्षर वाली थी। विद्याएं देकर उनसे कहा कि बेला करके इनको सिद्ध करो। जब उनकी विद्याएं सिद्ध हो गर्इं, तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एक देवी के दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है। ‘‘विकलांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं होता है’’ इस प्रकार विचार कर मंत्र संबंधी व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षर वाली विद्या में से अक्षर निकालकर मंत्र फिर से सिद्ध करना प्रारंभ किया। जिससे वे दोनों विद्या देवताएं अपने स्वभाव और अपने सुन्दर रूप में स्थित दिखलाई पड़ीं। तदनंतर भगवान धरसेन के समक्ष आकर उन दोनों ने विनय सहित सारा वृतांत निवेदित किया।
‘‘बहुत अच्छा’’ इस प्रकार संतुष्ट हुए धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभवार में ग्रंथ पढ़ाना प्रारंभ किया। इस तरह क्रम से व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवान से उन दोनों ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी के पूर्वाण्ह काल में ग्रंथ समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रंथ समाप्त किया, इसलिए संतुष्ट हुए भूत जाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक की पुष्प, बलि तथा शंख और तूर्य जाति के वाद्य विशेष के नाद से व्याप्त बड़ी भारी पूजा की।
उसे देखकर भट्टारक धरसेन ने उनका ‘‘भूतबलि’’ यह नाम रखा तथा जिनकी भूतों ने पूजा की है और अस्त-व्यस्त दंत पंक्ति को दूर करके जिनके दांत समान कर दिये हैं ऐसे दूसरे का भी धरसेन भट्टारक ने ‘पुष्पदंत’ नाम रखा।
अनंतर उसी दिन वहाँ से भेजे गये उन दोनों ने ‘‘गुरु की आज्ञा अलंघनीय होती है’’ ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर गुजरात में वर्षाकाल बिताया। वर्षायोग समाप्त कर जिनपालित को देखकर (उसको साथ लेकर)पुष्पदंत आचार्यतो वनवासि देश को चले गये और भूतबलि भट्टारक तमिल देश को चले गये।
तदनंतर पुष्पदंत आचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर पुन: बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढ़ाकर अनंतर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा।
जिनपालित मुनि को और उनके पास बीस प्ररूपणान्तर्गत सत्प्ररूपणा के सूत्रों को देखकर तथा जिनपालित के मुख से पुष्पदंत आचार्य की अल्पायु जानकर भूतबलि आचार्य ने विचार किया कि ‘‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद हो जायेगा, अत: हमें इस कार्य को पूरा करना चाहिए’’ ऐसा सोचकर भगवान भूतबलि ने ‘‘द्रव्यप्रमाणानुगम’’ आदि को लेकर ग्रंथ रचना की। इसलिए खंड सिद्धांत की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदंत आचार्य श्री श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं।
अर्थात् पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य ने जीव-स्थान, क्षुद्रकबंध, बंधस्वामित्व, वेदनाखंड, वर्गणाखंड और महाबंध’’ नामक षट्खण्डागम की रचना की है।४’’
धवला में षट्खण्डागम की रचना का इतना ही इतिहास पाया जाता है। इससे आगे का वृत्तांत इन्द्रनंदिकृत श्रुतावतार में मिलता है। ‘‘श्री भूतबलि आचार्य ने षट्खण्डागम की रचना पुस्तकबद्ध करके ज्येष्ठ शुक्ला-पंचमी को चतुर्विध संघ के साथ उन पुस्तकों की उपकरण श्रुतज्ञान की पूजा की।’’ इसीलिए श्रुत पंचमी तिथि तभी से प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई है और आज तक भी जैन लोग श्रुतपंचमी के दिन श्रुत पूजा करते हैं।’’
फिर भूतबलि ने उन षट्खण्डागम पुस्तकों को जिनपालित के हाथ पुष्पदंत गुरु के पास भेजा। उन्हें देखकर और चिंतित कार्य को सफल जानकर पुष्पदंत आचार्य अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने भी चातुर्वर्ण संघ सहित सिद्धांत की पूजा की। यह तो षट्खण्डागम सिद्धांत की उत्पत्ति मैंने बताई। ऐसे ही कषाय प्राभृत महाग्रंथराज को श्री गुणधर आचार्य ने बनाया है। इन दोनों प्रकार के सिद्धांत ग्रंथों का द्रव्यभाव पुस्तक गतज्ञान गुरुपरंपरा से आता हुआ कुंदकुंदाचार्य के मुनि श्री पद्मनंदि आचार्य को प्राप्त हुआ।
श्री कुंदकुंदाचार्य ने पहले षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम का एक टीका ग्रंथ रचा। पुन: कुछ काल के बाद ‘‘शामकुंड’’ नाम के आचार्य ने छठे खंड को छोड़कर पाँच खंडों पर तथा दूसरे सिद्धांत ग्रंथ कषाय प्राभृत पर ‘‘पद्धति’’ नाम से टीका रची। यह टीका भी बारह हजार श्लोक प्रमाण थी और संस्कृत, प्राकृत तथा कन्नड़ इन तीनों भाषाओं से मिश्रित थी।
पुन: कुछ काल बाद तुंबुलूर ग्राम में तुंबुलूर नाम के आचार्य हुए हैं। इन्होंने छठे खंड के अतिरिक्त पूर्व के पाँच खण्डों पर चौरासी हजार श्लोक प्रमाण से ‘‘चूड़ामणि’’ नाम की टीका रची तथा छठे खंड पर सात हजार प्रमाण में ‘‘पंचिका’’ लिखी है। वह कर्नाटक भाषा में थी। इसके भी कुछ काल बाद ‘‘तार्किकार्क’’ नाम से प्रसिद्ध भी समंतभद्र स्वामी हुए हैं। उन्होंने भी दोनों ही सिद्धांतों का अध्ययन करके षट्खण्डागम के पांच खंडों पर अड़तालिस हजार श्लोक प्रमाण में संस्कृत भाषा में अति सुन्दर और मृदुल टीका लिखी है। इसके ये स्वामी द्वितीय सिद्धांत की भी टीका रचने वाले थे किन्तु उनके एक सहधर्मी ने द्रव्यादि शुद्धि के करने के प्रयत्न का अभाव होने से उन्हें रोक दिया। इसी परम्परा में ‘‘शुभनंदि’’ और ‘‘रविनंदि’’ नाम के दो मुनि सिद्धान्तों के ज्ञाता हुए।
उनसे समस्त सिद्धांत को सीखकर ‘‘बप्पदेव’’ गुरु ने महाबंध को छोड़ शेष पाँच खंडों पर ‘‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’’ नाम की टीका रची। पुन: महाबंध पर संक्षिप्त व्याख्या लिखकर कषाय प्राभृत की टीका रची। ये सब रचना प्राकृत में थी तथा पाँच खण्ड और कषाय प्राभृत इनकी टीका का प्रमाण साठ हजार एवं छठे खण्ड की टीका का पाँच अधिक आठ हजार प्रमाण था।
पुन: कुछ काल व्यतीत हो जाने पर चित्रकूटपुरवासी श्री एलाचार्य महामुनि सिद्धान्तवेत्ता हुए। उनके पास सकल सिद्धांत का अध्ययन करके श्री वीरसेनाचार्य ने निबंधन आदि आठ अधिकार लिखे। फिर गुरु की आज्ञा से वे वाट ग्राम में आये और वहाँ के आनतेंद्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में ठहरे। वहीं पर उन्हें बप्पदेव गुरु की व्याख्याप्रज्ञप्ति टीका प्राप्त हो गई, फिर उन बंधन आदि को अठारह अधिकारों में पूरा करके ‘‘सत्कर्म’’ नाम का छठवाँ खंड संक्षेप से तैयार किया और इस प्रकार ‘‘षट्खण्डागम’’ की बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत और संस्कृत मिश्रित ‘‘धवला’’ नाम की टीका लिखी।
पुन: कषायप्राभृत की चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोक प्रमाण ‘‘जयधवला’’ टीका लिखने के पश्चात् वे स्वर्गवासी हो गये। तब उनके शिष्य जिनसेन ने उस जय धवला टीका को आगे चालीस हजार श्लोक प्रमाण में बनाकर पूर्ण किया।
इस प्रकार ‘‘जयधवला’’ टीका साठ हजार श्लोक प्रमाण हुई। आज ‘‘धवला टीका’’ समन्वित षट्खण्डागम प्रकाशित हो चुका है और ‘‘जयधवला’’ कषायपाहुड़ ग्रंथ भी छपा है। भव्यात्माओं! इस प्रकार से इस ‘‘श्रुतावतार’’ का श्री इन्द्रनन्दि आचार्य ने निरूपण किया है।
श्रुतपंचमी के दिन साधुवर्ग भव्यजीवों के समक्ष इस श्रुतातवार का वाचन करें ऐसा आदेश दिया है। इस श्रुतपंचमी के दिन श्रावक और श्राविकाओं का भी कर्तव्य है कि श्रुत की बड़े समारोह से पूजन करें या श्रुतस्कंध विधान करें तथा प्राचीन ग्रंथों को सुरक्षित करके उन्हें नूतन वेष्टन में बांधें और आचार्यों द्वारा प्रणीत तथा वर्तमान में मुद्रित आगमोक्त ग्रंथों को मंगाकर मंदिर में विराजमान करें और सिद्ध श्रुत भक्ति आदि करके केवलज्ञान को प्राप्त करने में सहायक ऐसा पुण्य संचित कर लेवें।