लोकालोक विलोकन लोकित, सल्लोचन है सम्यग्ज्ञान।
भेद कहे प्रत्यक्ष परोक्ष, द्वय हैं सदा नमूं सुखदान।।१।।
मतिज्ञान अभिमुख नियमित बोधन इन्द्रिय मन से उपजे।
अवग्रहादिक बहुआदिकयुत, तीन सौ छत्तीस भेद लसें।।२।।
विविध ऋद्धि बुद्धि कोष्ठ स्पुट बीज सुपदानुसारी हैं।
ऋद्धि कही संभिन्नश्रोतृता, इन युत श्रुत को वंदू मैं।।३।।
जिनवर कथित रचित गणधर से, युत अंगांग बाह्य संयुत।
द्वादश भेद अनेक अनंत, विषययुत वंदूं मैं जिनश्रुत।।४।।
पर्याय अक्षर पद संघात, प्रतिपत्तिक अनुयोग सहित।
प्राभृत-प्राभृत कहे तथा, प्राभृतक वस्तु अरु पूर्व दशक।।५।।
प्रत्येकों दस में समासयुत, बीस भेद होते उनको।
वर गंभीर शास्त्र पद्धति से, द्वादश अंग नमूं सबको।।६।।
आचारांग सूत्रकृत स्थानांग तथा समवाय महान।
व्याख्याप्रज्ञप्ति अरु ज्ञातृकथा उपासक अध्ययनांग।।७।।
अंतकृत दश अनुत्तरोपपादिक दश युत अंग कहे।
अंग प्रश्नव्याकरण विपाक, सूत्र अंग प्रणमूं नित मैं।।८।।
दृष्टिवाद युत द्वादशांग हैं, दृष्टिवाद के पांच प्रकार।
परीकर्म अरु सूत्र प्रथम, अनुयोग पूर्व चूलिका सुसार।।९।।
कहे पूर्वगत चौदह उनमें, है उत्पाद पूर्व पहला।
अग्रायणि अरु पुरुवीर्यानुप्रवाद पूर्व हैं नमूं सदा।।१०।।
अस्तिनास्ति सुप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवाद पूर्व शुभ हैं।
सत्यप्रवाद पूर्व अरु आत्मप्रवाद पूर्व प्रणमूँ नित मैं।।११।।
कर्म प्रवादपूर्व अरु प्रत्याख्यानपूर्व है उत्तम श्रुत।
वंदूं विद्यानुप्रवाद को , क्षुद्रमहाविद्या संयुत ।।१२।।
कल्याणानुप्रवाद प्राणावाय सुक्रियाविशालं श्रुत।
पूर्व लोकविंदूसारं ये, चौदह पूर्व नमूं संतत।।१३।।
दस चौदह अठ अठरह बारह, बारह सोलह बीस अरु तीस।
पंद्रह दस-दस-दस-दस क्रम से, चौदह पूर्व की वस्तु कथित।।१४।।
एक-एक वस्तू में होते, बीस-बीस प्राभृतक नमूं।
चौदह पूर्व सुप्राभृतयुत, इक सौ पंचानवे वस्तु नमूं।।१५।।
पूर्वांतरु अपरांत धु्रवं, अधु्रव अरु च्यवन लब्धि नामक।
अधु्रव संप्रणिधि अरू अर्थ, अरु भौमावयादि संयुत।।१६।।
श्रुत सर्वारथकल्पनीय है, ज्ञान अतीत भाविकालिक।
सिद्धि उपाध्यं ये चौदह, वस्तु अग्रायणि पूर्वकथित।।१७।।
इनमें पंचम वस्तु का, चौथा प्राभृत जो कहा जिनेश।
उसके हैं अनुयोग द्वार, चौबीस वरणे मैं नमूं हमेश।।१८।।
कृतिवेदन स्पर्शन कर्म अरु, प्रकृति कहें ये पांच तथा।
बंधन और निबंधन प्रक्रम, अनुपक्रम अभ्युदय कहा।।१९।।
मोक्ष तथा संक्रम लेश्या, लेश्या के कर्म अरू परिणाम।
सातासात दीर्घ अरु ह्रस्वं, अरु भवधारणीय शुभ नाम।।२०।।
पुरु पुद्गलात्मक है तथा निधत्त, अनिधत्त निकाचित अनिकाचित।
कर्म स्थिति पश्चिमी स्कंध अरु, अल्पबहुत्व नमूं चौबीस।।२१।।
एक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस रु पांच।
द्वादशांग श्रुत के पद इतने, वंदन करूं, नमाकर माथ।।२२।।
सोलह सौ चौतीस करोड़, तेरासी लाख अरु सात सहस।
अठ सौ अठ्यासी इतने ये, पद के वर्ण कहे शाश्वत।।२३।।
सामायिक चउबिस तीर्थंकर, स्तुति वंदन औ प्रतीक्रमण।
वैनयिक कृतिकर्म तथा दश, वैकालिक का करूं नमन।।२४।।
श्रेष्ठ उत्तराध्ययन कल्प, व्यवहार कहा वंदूं उनको।
कल्पाकल्प महाकल्पं अरु, पुंडरीक वंदूं सबको।।२५।।
परिपाटी से नमूं महायुत, पुंडरीक श्रुत को नित ही।
अंग बाह्य ये कहे प्रकीर्णक, निपुण महाश्रुत पूज्य सही।।२६।।
अवधिज्ञान मर्यादायुत, पुद्गल प्रत्यक्ष करे बहुविध।
देशावधि परमावधि सर्वावधि को वंदूं भेद सहित।।२७।।
पर मन में स्थित सब वस्तू, को प्रत्यक्ष करे जो ज्ञान।
ऋजुमति विपुलमति मनःपर्यय, उनको वंदू भव भय हान।।२८।।
केवलज्ञान त्रिकालिक सर्व, पदार्थ प्रकाशे युगपत ही।
क्षायिक एक अनंत सकल, सुखधाम उसे वंदूं नित ही।।२९।।
इस विध स्तुति करते मुझको, सकल लोकचक्षू सब ज्ञान।
ज्ञान ऋद्धि देवें झट ज्ञानों, का फल अच्युत सौख्य निधान।।३०।।
हे भगवन् ! श्रुतभक्ती, कायोत्सर्ग किया उसके हेतु।
आलोचन करना चाहूँ जो, अंगोपांग प्रकीर्णक श्रुत।।
प्राभृतकं परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग पूर्वादिगत।
पंच चूलिका सूत्र स्तव, स्तुति अरु धर्म कथादि सहित।।
सर्वकाल मैं अर्चूं पूजूं, वदूं नमूं भक्ति युत से।
ज्ञानफलं शुचि ज्ञान ऋद्धि, अव्यय सुख पाऊं झटिति से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।