तीर्थंकर भगवान के मुख से निकली हुई दिव्यध्वनि जो १८ महाभाषा, ७०० लघु भाषा में खिरती है, जिसे निबद्ध कर द्वादशांग की रचना की गई, वह द्वादशांग ११ अंगों व १४ पूर्वों के रूप में है, जिनका आज अंशमात्र षट्खण्डागम आदि ग्रंथों में है। उस अथाह ज्ञान गंगा में अवगाहन करने वाले अपने को धन्य मानते हैं।
श्रुतस्कंध विधान में अभयमती माताजी ने विभिन्न छंदों का प्रयोग करते हुए ११ अंग, ५ परिकर्म, दृष्टिवाद, सूत्र, चौदह पूर्व, पाँच चूलिका, अंगबाह्य, चार अनुयोग के अर्घ्य बनाये हैं।
इस विधान में कुल ५६ अर्घ्य और ७ पूर्णार्घ्य हैं।
ये संपूर्ण द्वादशांग मिलकर एक श्रुतस्कंध वृक्ष का रूप धारण करते हैं जो कल्पवृक्ष के समान मनोवांछित फल को प्रदान करने वाला है। ये मोक्षरूपी फल को प्रदान करने वाला है। पूज्य माताजी ने लिखा है-
द्वादशांग ही भविक जनों को, सच्चा सुख दर्शाता है।
द्वादशांग आतम से परमातम बनना सिखलाता है।।
द्वादशांग लहं रत्न त्रिवेणी, पूर्ण ज्ञान चमकाता है।
नमन करूँ मैं द्वादशांग, जो मोक्षपुरी पहुँचाता है।।
द्वादशांग को जिनवाणी माता, सरस्वती माता के रूप में नमन करते हैं जो पुत्रवत् हमारा उपकार करती हैं। इस श्रुतस्कंध विधान के माध्यम से अपने अज्ञान अंधकार को दूर कर अपने जीवन में ज्ञानज्योति को प्रज्ज्वलित करना चाहिए।