भादों मास में भादों कृष्णा प्रतिपदा से लेकर आश्विन कृष्णा प्रतिपदा तक यह व्रत किया जाता है। इसमें एक महिने में उत्कृष्ट १६ उपवास, मध्यम १० और जघन्य ८ उपवास करें। पारणा के दिन यथाशक्ति नीरस या एक- दो आदि रस छोड़कर एक बार भोजन (एकाशन) करें। १६ उपवास करने में प्रतिपदा से एक उपवास, एक पारणा ऐसे आश्विन कृ. प्रतिपदा तक १६ उपवास होंगे। ऐसे ही १० उपवास में कृष्णपक्ष में दूज, पंचमी, अष्टमी, दशमी और चौदश तथा शुक्लपक्ष में भी २,५,८,१० और १४ को उपवास करें। ८ उपवास में भी दो पंचमी, २ अष्टमी, २ दशमी और २ चौदस ऐसे ८ उपवास करें। अथवा शक्ति अनुसार जैसे भी हो, वैसे ये उपवास करें।
प्रतिदिन जिनमंदिर में श्रुतस्कंध मंडल बनाकर श्रुतस्कंध विधान पूजन करें। इस व्रत में प्रतिदिन निम्नमंत्र का जाप्य करे- ‘‘ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भूतस्याद्वादनयगर्भितद्वादशांगश्रुतज्ञानेभ्यो नम:।’’
यह व्रत बारह वर्ष तक करें अथवा पांच वर्ष करें। व्रत पूर्ण कर उद्यापन करें। मंदिर में १२-१२ उपकरण-घंटा, पूजा के बर्तन, छत्र, चंवर, चंदोवा, चौकी, वेष्टन आदि भेंट करें। शास्त्र छपाकर मंदिर में रखें और मुनि-आर्यिकाओं को तथा श्रावकों को भी शास्त्र भेंट करें। सरस्वती भवन का निर्माण कर श्रुतदेवी की प्रतिमा या श्रुतस्कंध यंत्र स्थापित करें। जिनवाणी के उपदेश आदि द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करें। इस प्रकार इस व्रत के प्रभाव से भव्यों को श्रुतज्ञान की वृद्धि होती है और अगले भव में श्रुतकेवली होकर वे परंपरा से केवलज्ञान की प्राप्ति कर लेते हैं।
व्रत की कथा-
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में अंग देश में पटना नगर है। उस नगर के राजा चंद्ररुचि की चन्द्रप्रभा रानी के श्रुतशालिनी नाम की एक कन्या थी। इसे आर्यिका जिनमती के पास विद्याध्ययन के लिए रखा गया। थोड़े ही दिनों में वह कन्या सर्वविद्या में निपुण हो गई। एक दिन श्रुतशालिनी ने एक चौकी पर श्रुतस्कंध मंडल बनाया। इसे देखकर आर्यिका जिनमती ने प्रसन्न होकर कन्या को विद्या मे निष्णात समझकर राजा के यहाँ वापस भेज दिया।
एक दिन उद्यान में पधारे वद्र्धमान मुनिराज की वंदना करके राजा ने पूछा-भगवन्! मेरी कन्या को इतने गुण और सुंदर रूप किस पुण्य से मिले हैं? मुनिराज ने कहा-राजन्! इसी जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश में पुण्डरीकिणी नगरी है। वहाँ के राजा गुणभद्र और रानी गुणवती दोनों एक समय सपरिवार श्री सीमंधर भगवान की वंदना को गये। यथायोग्य भक्ति, पूजा करके मनुष्य के कोठे में बैठ गये। पुन: दिव्य उपदेश सुनने के बाद श्रुतस्कंधव्रत का स्वरूप पूछा-तब गणधर देव ने कहा-जिनेन्द्रदेव की दिव्यध्वनि निरक्षरी वाणी है, यह अनंत भव्यों के हितार्थ होती है। भगवान की दिव्यध्वनि को वहाँ पर बैठे सभी भव्य अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। भगवान की वाणी सात सौ अठारह भाषा में खिरती है। इसे सुनकर चार ज्ञान के धारी गणधरदेव द्वादशांगरूप में गूंथ लेते हैं।
द्वादशांग के नाम-
१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञातृकथांग ७. उपासकाध्ययनांग ८. अंतकृत्दशांग ९. अनुत्तरौपपादिकदशांग १०. प्रश्नव्याकरणांग ११. सूत्रविपाकांग और १२. दृष्टिवादांग।
फिर इन्हीं के आधार से अनेक मुनिगण ग्रंथ रचना करते हैं। यह जिनेन्द्रवाणी समस्त लोक-अलोक के स्वरूप को और त्रिकालवर्ती पदार्थों को प्रदर्शित करने वाली है। समस्त प्राणियों का हित करने वाली है, मिथ्यामतों को दूरकर पूर्वापर विरोधी दोषों से रहित सच्चे धर्म का उपदेश देने वाली है।
अनेक प्रकार से उपदेश देकर श्रीगणधरदेव ने उन्हें श्रुतस्कंध व्रत की विधि बतलाई। राजा गुणभद्र और रानी गुणवती ने इस व्रत को वहीं समवसरण में गणधर गुरु से ग्रहण किया। पुन: विधिवत् इस व्रत को करके अंत में समाधिपूर्वक मरण कर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र-इन्द्राणी हुए।
वहाँ से चयकर वह गुणवती रानी का जीव यहाँ तुम्हारी श्रुतशालिनी नाम की कन्या हुई है। इस प्रकार गुरुमुख से अपने भवांतर सुनकर उस कन्या ने पुन: श्रुतस्कंध व्रत धारण किया। पश्चात् चारित्र के प्रभाव से अंत में समाधिमरण कर स्त्रीलिंग छेदकर इन्द्रपद प्राप्त कर लिया।
कालांतर में इस श्रुतशालिनी के जीव पश्चिम विदेह के कुमुदवती देश के अशोक नगर में राजा पद्मनाभ की रानी जितपद्मा के ‘‘नयंधर’’ नाम के तीर्थंकर हुए हैं। ये कामदेव और चक्रवर्ती भी हुए हैं। नयंधर तीर्थंकर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों को नष्ट कर केवली हो गये, तब देवों ने समवसरण की रचना कर दी। इन्होंने अनेक देशों में विहार कर भव्यजीवों को धर्मामृत से तर्पित कर अंत में अघातिकर्मों का नाश करके मोक्षपद प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार जो नर-नारी भावसहित इस व्रत का पालन करेंगे, वे अवश्य ही श्रुतज्ञान को पूर्ण कर केवलज्ञान को प्राप्त करेंगे।
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