महावीरो जगत्स्वामी, सातिशायीति विश्रुत:।
तस्मै नमोऽस्तु मे भक्त्या, सर्वकार्यस्य सिद्धये।।१।।
अष्टादशमहाभाषा, लघुसप्तशतान्विता।
सर्वभाषामयी वाणी, तां नुमो वाग्विशुद्धये।।२।।
सर्वे ऋषभसेनादि-गौतमान्त्यगणेशिन:।
साधून् वीरांगजान्तांश्च, नौमि चारित्रपूर्त्तये।।३।।
श्रीधरसेनमाचार्यं श्रुताब्धे: पारगं नुम:।
पुष्पदन्तगुरुं सूरिं, भूतबलिमपि स्तुवे।।४।।
वीरसेनादिसूरिभ्यो, नमो भक्त्या पुन: पुन:।
ग्रन्थ टीकादिकर्तृभ्यो, नमो ज्ञानर्द्धिलब्धये।।५।।
वन्देऽहं ग्रन्थकर्तार-मिंद्रनंदिमुनीश्वरम्।
कुंदकुंदान्वयान् सर्वान्, मूलसंघे स्थितान् स्तुवे।।६।।
वन्दे ब्राह्मीगणिन्यादि-सर्वश्रीसंयतान्त्यजा:।
एकादशांगज्ञात्रीश्च, मूलोत्तरगुणाप्तये।।७।।
नवखपचद्वयंकेऽस्मिन्१, वीराब्दे ज्येष्ठशुक्लके।
पंचम्यामस्य ग्रन्थस्या-नुवाद: पूर्यते मया।।८।।
श्रुतावतारग्रन्थोऽयं, स्वस्यार्थं च ब्रुवीत्यपि।
अस्मिन् कथितग्रन्थांश्च नौमि सूरीन् त्रिधा मुदा।।९।।
अस्मिन् विंशशताब्दौ य: प्रथमाचार्य इष्यते।
चारित्रचक्रिणं नौमि, सूरिं श्रीशांतिसागरम्।।१०।।
तस्य पट्टाधिपं वन्दे, गुरुं श्रीवीरसागरम्।
यस्मान्महाव्रतं लब्ध्वा, ज्ञानमत्यार्यिकाभवम्।।११।।
गणिनीज्ञानमत्याय-मनूदितश्चिरं भुवि।
स्थेयाद् भव्यस्य सज्ज्ञानं, कुर्यादाचन्द्रतारकम्।।१२।।
अर्थ-महावीर भगवान जगत् के स्वामी हैं और अतिशयकारी प्रसिद्ध हैं-उनकी प्रतिमा यहाँ जम्बूद्वीप में अतिशयकारी है। अपने सर्वकार्यों की सिद्धि के लिए मेरा उन प्रभु को नमोऽस्तु होवे। अठारह महाभाषा और सात सौ लघु भाषा में खिरती अथवा सर्वभाषामयी भगवान की वाणी को अपने वचन की शुद्धि के लिए मैं नमस्कार करती हूँ।। श्री ऋषभसेन प्रथम गणधर देव से लेकर श्री गौतम स्वामी पर्यंत सभी गणधर देवों को और अंतिम वीरांगज मुनि पर्यंत सभी साधुओं को अपने चारित्र की पूर्ति के लिए मैं नमस्कार करती हूँ।।१-२-३।।
श्रुतसमुद्र के पारंगत श्री धरसेनाचार्य की श्री पुष्पदंत आचार्य की और भूतबलि आचार्य की भी मैं स्तुति करती हूँ। श्री वीरसेनाचार्य आदि तथा सभी ग्रन्थकर्ता व टीकाकर्ता आचार्यों के लिए भी ज्ञानऋद्धि की प्राप्ति के लिए मेरा भक्तिपूर्वक पुन: पुन: नमस्कार होवे।इस श्रुतावतार ग्रंथ के कर्ता श्री इन्द्रनंदि आचार्यदेव की तथा मूलसंघ में स्थित कुंदकुंदाम्नाय के सभी मुनियों की मैं स्तुति करती हूँ।।४-५-६।।
श्री ब्राह्मी गणिनी माता को आदि लेकर अंतिम सर्वश्री आर्यिका पर्यंत सभी आर्यिकाओं की व ग्यारह अंग के ज्ञान प्राप्त आर्यिका माताओं की भी मैं वंदना करती हूँ।।७।।
वीर निर्वाण संवत् पच्चीस सौ नौ (२५०९) ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी-श्रुतपंचमी के दिन मैं इस श्रुतावतार ग्रंथ का अनुवाद पूर्ण कर रही हूँ। यह श्रुतावतार ग्रंथ अपने अर्थ को स्वयं ही कह रहा है-अर्थात् इसमें षट्खण्डागम आदि श्रुत के अवतार-लिपिबद्ध आदि होने का क्रम व आचार्यों के नाम आदि का वर्णन है। इसमें कहे गये ग्रंथ व उनके कर्ता आचार्यों को मैं हर्षपूर्वक मन-वचन-काय से नमस्कार करती हूँ।।८-९।।
इस बीसवीं सदी के जो प्रथमाचार्य माने गये हैं, ऐसे चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी को मैं नमन करती हूँ। उनके प्रथम शिष्य व पट्टाचार्य श्री वीरसागर गुरुदेव को मैं वंदन करती हूँ कि जिनसे महाव्रतों को-आर्यिका दीक्षा को प्राप्त कर मैं ‘ज्ञानमती’ नाम से आर्यिका हुई हूँ।।१०-११।।
मुझ गणिनी ज्ञानमती द्वारा अनुवादित यह ‘श्रुतावतार ग्रंथ’ चिरकाल तक इस पृथ्वी पर स्थित रहे और जब तक पृथ्वीतल पर चंद्रमा, सूर्य तारागण हैं तब तक भव्यों को समीचीन ज्ञान प्रदान करता रहे।।१२।।